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Showing posts from February, 2016

हे प्रभु, केवल एक पुख्ता सीट दिला दो

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हे प्रभु, आप ने एक और रेल बजट पेश कर दिया. बहुत सारी बातों, घोषणाओं के बीच सत्ता पक्ष ने तालियाँ बजाकर आप का उत्साह बढ़ाया तो आदतानुसार विपक्ष ने आप के बजट की बुराई की. मुझे आप के बजट की बहुत सारी बातें समझ भी नहीं आईं. मैं ठहरा आम आदमी. आप तो कुछ ऐसी व्यवस्था करो कि हमें यात्रा करने के लिए दो-तीन महीने पहले तैयारी न करनी पड़े. प्रतीकात्मक चित्र (साभार ) आप तो जानते हैं, इतने पहले तैयारी करने के खतरे बहुत हैं. घर-परिवार वाला हूँ. यात्रा के दिन ही किसी बच्चे की तबीयत ख़राब हो जाये, मेरी ही ख़राब हो जाये, ऐसे में अब बहुत नुकसान होता है. पहले टिकट कटाना अब खतरे से खाली नहीं है. पूँजी डूबने की आशंका ज्यादा है. मेरी तो आप के महकमे से सिर्फ इतनी ख्वाहिश है कि मुझे यात्रा के समय पुख्ता टिकट मिल जाय. क्योंकि आजकल पुख्ता रेल टिकट पाना कोई छोटी-मोटी बात नहीं. मेरे मोहल्ले में एक नेता जी हैं. उनके यहाँ रोज सुबह कई लोग पहुँच जाते हैं क्योंकि वे जरूरतमंद की रेल में सीट पुख्ता करा देते हैं. और फिर वे खुद और उनके घर-परिवार, रिश्तेदार भी उनके इस गुण के कायल हैं. मोहल्ले में काफी लोकप्रिय हैं वे. क्य

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-11 / देश का स्वास्थ्य-एक

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गणेश शंकर विद्यार्थी जी  बड़ा ही अभागा है वह देश, जिसके युवक और युवतियों के चेहरों पर स्वास्थ्य की आनंद-दायिनी झलक देखने में न आवे. ह्रदय के क्लेश का ठिकाना नहीं रहता, जब हम देखते हैं कि ऐसे देशों में हमारा ही देश सबसे आगे बढ़ा हुआ है. देश के युवक और युवतियां नाम के युवक और युवतियां हैं. उनमें से 99 फ़ीसदी अपने अमूल्य स्वास्थ्य को हाथ से खो चुके हैं, और इस बात के पूरे और पक्के साक्षी उन्ही का दबता हुआ ह्रदय, उन्हीं के बैठे हुए गाल और उन्हीं के चुचके और सूखे हुए शरीर हैं. कमजोर शरीरों से बलवान हृदयों की आशा नहीं की जा सकती और पीले चहरे वाले बलवानों की ठोकरों से अपनी रक्षा नहीं कर सकते. सच है कि जातियों का निवास-स्थान नगर ही नहीं होते और अधिकतर नगर निवासी ही प्रकृति के प्रारम्भिक और आवश्यक स्वत्वों के शत्रु बन जाया करते हैं. लेकिन ह्रदय की अशांति और भी बढ़ जाती है, जब हम दूर नजर फेंकते हैं और उन झोपड़ों को देखते हैं, जिनमें जनता का निवास है. हमारे देश के झोपड़ों में भी विकसित और हंसमुख चहरे, हृष्ट-पुष्ट शरीर और स्वस्थ मधुर कंठों का अभाव है.  एक तरफ मलेरिया, हैजा और प्लेग घाट लगाये हुए ब

का गुरु, कौनो जुगाड़ बा का

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अपने देश में जुगाड़ के सहारे बहुतेरे काम हो जाते हैं. जैसे छुटभैये नेता की मदद से पहले नाले के किनारे पड़ी सरकारी जमीन पर टट्टर घेरो. गायब हो जाओ. कुछ दिन बाद वहीं एक छप्पर डाल दो. फिर रहने लगो. कुछ दिन बाद राशन कार्ड, वोटर कार्ड, टेलीफोन, इन्टरनेट सब लगवाओ. रहने लगो घर-परिवार के साथ. फिर कुछ साल बाद आप को हटा दिया जाएगा. तब तक छोटा नेता बड़ा हो चुका होगा. मतलब एमपी-एमएलए बन चुका होगा. फिर धरना, प्रदर्शन, आन्दोलन, लाठीचार्ज...बाद में सरकार की ओर से घोषणा, कि अमुक झुग्गी के लोगों को अमुक जगह बसाया जाएगा. उन्हें पांच रुपये रोज पर पक्के मकान मिलने की घोषणा भी करने से परहेज नहीं करती हमारी नेतानगरी. नियम कानून का मखौल उडाता यह जुगाड़ (साभार)  दिल्ली हो या मुंबई. ये झुग्गियां नेताओं को बहुत भाती हैं. क्योंकि वहाँ से थोक में वोट मिलते हैं. हर छोटे-बड़े शहर से इन झुग्गियों का रिश्ता है. और इन्हें बसाने का काम नेता ही करते हैं. और इसी जुगाड़ से ये लोग विधायक/मंत्री/सांसद बन जाते हैं और झुग्गी वाले पक्के मकानों के मालिक. यहाँ लखनऊ में आये दिन अख़बारों में ख़बरें छप रही हैं, कि अमुक व्यक्ति पै

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-10 / कायदे की तलवार

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गणेश शंकर विद्यार्थी जी  जो बात नहीं होने वाली थी, वह नहीं हुई. हमने उसके हो जाने की आशा ही न की थी, इसलिए हमें उसके न होने पर कोई निराशा नहीं है. देश के समाचार पत्रों और छापेखानों के संचालकों के सिरों पर आठ पहर चौंसठ घड़ी कायदे की पैनी तलवार एक कच्चे धागे के सहारे टंगी रहती है. इस तलवार को हटाने के लिए नहीं, किन्तु केवल उसे जरा मजबूत सूत से बांधने के लिये सुरेन्द्र नाथ बनर्जी ने बड़ी कौंसिल में प्रस्ताव पेश किया था. नतीजे में वही ढाक के तीन पात. स्पीचें हुईं, जबरदस्त दलीलें पेश की गईं, प्रेस की स्वतंत्रता के राग अलापे गए, वायदे याद दिलाये गए, लेकिन अंत में वोट लेने पर सुधार के विरोधियों का दल ही जबरदस्त बैठा. 17 के मुकाबले में विपक्षी 40 निकले. समाचार-पत्रों की गरमा-गरमी को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए सरकार के पास प्रेस एक्ट के जन्म से पहिले भी अस्त्र थे, इसलिए हम नहीं कह सकते कि किसी समय भी उसे इसकी जरूरत थी. प्रेस एक्ट काफी से ज्यादा कड़ा है, और 'प्रताप' के किसी पिछले अंक में हम उसकी सख्ती दर्शा भी चुके हैं. उसकी धाराओं को आद्योपांत पढ़ जाइए और हमें विश्वास है कि आप को मानना

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-नौ / एंग्लो इण्डियन पत्रों में खलबली

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गणेश शंकर विद्यार्थी जी  मुसलमानों की सबसे बड़ी सभा मुस्लिम लीग को कांग्रेस की ओर लुढ़कते देखकर एंग्लो-इण्डियन पत्रों के पेट में चूहे कूदने लगे हैं. वे आगे बढ़ने वाले मुसलमानों को पुरानी कथाएं सुनाते हैं, कभी उन्हें पुचकारते, कभी धमकाते और भीषण भविष्यवाणी का डर दिखाते हैं. मुसलमानों के इन बड़े "हितैषियों" के ख्यालात का पता 'इंग्लिश मेन' के इन शब्दों से अच्छी तरह लग सकता है-'हिन्दू राष्ट्रीयता के वेग को रोकने के लिए मुस्लिम लीग का जन्म हुआ था. राष्ट्रवादियों ने इसका बड़ा तिरस्कार किया, लेकिन कांग्रेस के भक्तों में कुछ ऐसे चालाक आदमी थे, जिन्हें लीग को सरकार का विरोधी बना डालने की सूझ गई. उन्हें आशातीत सफलता भी मिली क्योंकि गजरहुलहक़ और मुहम्मद अली ऐसे आदमी नहीं, किन्तु आगा खां के ऐसे आदमी तक स्वराज्य के आदर्श के जाल में फंस गए. यद्यपि उस समय सरकार का बल कुछ कम हो जाएगा, जब उसे हिन्दू और मुसलमान, दोनों के संयुक्त विरोध का सामना करना पड़ेगा, तो भी उसमें इतनी शक्ति रहेगी कि वह इस धक्के को सह ले. लेकिन, पीछे मुसलमानों को बड़ी हानि पहुंचेगी. मुसलमान हिन्दुओं के पिछलगुए-म

बहुत हुआ, अब बंद करो आरक्षण का ये खेल

मेरे दोस्तों में हिन्दू, मुस्लिम, क्षत्रिय, वैश्य सब हैं. लिखते हुए असहज महसूस कर रहा हूँ, लेकिन सन्दर्भवश लिखने की मजबूरी है-मेरी मित्र-मंडली में पिछड़ी जाति, दलित और अन्य बिरादरी के लोग भी हैं. पर, मैंने उन्हें कभी किसी जाति-धर्म के आधार पर देखा ही नहीं, शायद उन्होंने भी नहीं. हम साथ-साथ उठते-बैठते. काम करते. खाते-पीते चले आ रहे हैं. हाँ, इनमें से कुछ ऐसे जरूर हैं कि यदा-कदा आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भावुक हो जाते हैं. अब जब सरकार ने एक और आरक्षण देने का फैसला कर लिया है, तो कुछ सवाल मेरे जेहन में बरबस उठ रहे हैं. आखिर यह सिलसिला कब बंद होगा? सरकार कब तक वोटों के लिए ऐसी जाहिलियत करती रहेगी? अनारक्षित श्रेणी के नौजवानों के हक़ पर कब तक डाका पड़ता रहेगा? उनकी ऊर्जा को कब तक हम आन्दोलनों में जलाते रहेंगे? तय है कि एक आग बुझेगी तो दूसरी लगेगी, फिर इस सिलसिले को बंद हम कब करेंगे? आखिर सरकारें क्यों कोई ठोस रास्ता नहीं तलाशती? क्यों नहीं सभी तरह के आरक्षण ख़त्म करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की पालिसी लागू करने के बारे में सरकारें सोचतीं? जानता हूँ कि यह काम उनके लिए बहुत कठिन है. क्योंक

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-आठ / राष्ट्रीय महा-सभा

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श्री गणेश शंकर विद्यार्थी  राष्ट्रीय महा-सभा कहलाने वाली कांग्रेस के जलसे करांची में सकुशल हो गए. कांग्रेस किसी समय यथार्थ में राष्ट्रीय महा-सभा थी. लेकिन हमें अब उसे इस नाम से पुकारते संकोच होता है. हम उसी को राष्ट्रीय महा-सभा कह सकते हैं, जिसमें राष्ट्र भर के प्रतिनिधियों को एक समान मत प्रकट करने का अधिकार हो. हम मानते हैं, कि वर्तमान कांग्रेस में हमारे देश के बहुत से ऐसे सज्जन शामिल हैं, जिनके देश के नेता और प्रतिनिधि होने में किसी भी समझदार आदमी को संदेह नहीं हो सकता, लेकिन साथ ही कोई विचारवान आदमी इस बात में भी संदेह नहीं कर सकता, कि देश का सारा प्रतिनिधित्व और नेतृत्व का भार केवल इन्हीं सज्जनों पर नहीं. देश में ऐसे सज्जन और भी हैं, जिन्हें जनता के सच्चे प्रतिनिधि होने का सच्चा गौरव प्राप्त है, और जो अपनी विद्वता, चरित्र की शुद्धता, और मातृभूमि के लिए त्याग में शायद ही किसी से कम निकलें. लेकिन इन सारे गुणों के होते हुए भी वे कांग्रेस के पास फटकने भी नहीं पाते, और इसी कारण कांग्रेस के एक दली होने पर, हम उसे राष्ट्रीय महा-सभा कहने में हिचकते हैं. कांग्रेस का आदर्श है-भारतवासियो

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-सात / वीरों की दृढ़ता

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गणेश शंकर विद्यार्थी जी  अंत में, आवाज उठी, और वहीं से, जहाँ से उठाने की आशा थी. जिन्होंने बड़ी बेरहमी से हमारे भाइयों की पीठों पर चाबुक चलाये थे, वही, हमारे घावों पर नमक छोड़ते हुए, हमारे भाइयों पर किये गए अत्याचारों की तहकीकात करने के लिए पवित्र न्यायासन पर बैठाये गए. शायद ही किसी और तरह एक न्यायासन की इससे ज्यादा हंसी उड़ाई जा सकती, और शायद ही किसी और तरह दुखी ह्रदय अससे अधिक कुधाये जा सकते. न्यायी संसार को आशा थी, कि अब भी इंगलैंड आगे बढेगा, और वह अपनी भारतीय प्रजा का अधिक अपमान न होने और अपनी शान में अधिक बट्टा न लगने देगा, लेकिन, बात वैसी ही हुई, जैसी होती आई है, और आशाएं हैं, वहाँ पानी-सा फिरता जा रहा है.  पर, संतोष की बात है, कि नैतिक भीरुता का राज्य सारे संसार पर उतना ही अधिक नहीं, जितना कि इस समय इंगलैंड पर मालूम होता है. गांधी जेल से छूटते हैं, पोलाक कैलनबाच और उसके संगी साथियों को रिहाई मिलती है, और हम देखते हैं, कि अत्याचारियों के कोड़े, जेलखाने और ज्यादतियां उनके नैतिक साहस, और दृढ़ता को अणु मात्र मंद नहीं कर सकी. वे जेल से निकले और ह्रदय, ह्रदय का स्वागत करने आगे बढ़ा.

क्या वाकई खतरे में है पत्रकारिता ?

सुबह फेसबुक खोला तो टेलीविजन समाचारों के कई चेहरों का एक गुलदस्ता नजर आया, जिन्हें भ्रष्ट, दलाल और भी न जाने क्या-क्या लिखा गया है. एक और पोस्ट देखी, जिसमें टेलीविजन पर जेएनयू विवाद के बाद उठे बवाल और उसकी कवरेज पर सवाल उठाया गया है. इस पोस्ट के मुताबिक, टेलीविजन पर इन दिनों शोर ज्यादा, समाचार-विचार कम है. पहली पोस्ट से मैं व्यक्तिगत तौर पर सहमत नहीं हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है लेकिन जिन साहब ने लिखा है, उनके पास निश्चित ही कुछ न कुछ ठोस होगा, तभी तो वे इतनी बड़ी बात कह गए. शोर वाली चर्चा से तो मैं भी सहमत नहीं हूँ, एक दर्शक के रूप में. संभव है कि टीआरपी (जिसके पीछे भागना टेलीविजन प्रबंधन की मजबूरी है) के लिए ये सब जरूरी हो. लेकिन दर्शक अगर खफा हो गया तो ये टीआरपी नहीं मिलने वाली, इस सच से भी इनकार करना नादानी होगी. पहले तो एक-दो एंकर ही चीखते-चिल्लाते थे, लेकिन अब तो चलन सा हो गया है. लेकिन एक सवाल मुझे जरूर परेशान कर रहा है, वह यह कि क्या वाकई पत्रकारिता खतरे में हैं? बड़ी संख्या में जवाब हाँ में ही मिलेगा. पर, क्यों हो रहा है ऐसा? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? कैसे रुकेगी

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-छः / अनुसंधान कमेटी या जले पर नमक !

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विद्यार्थी जी  जिस अनुसंधान कमेटी की चर्चा इतने दिनों से समाचार-पत्रों में हो रही थी, जिसकी आवश्यकता को विलायत और हिंदुस्तान के अंग्रेजी अख़बारों ने भी किस रूप में माना था, जिसके पक्ष में प्रजा वत्सल लार्ड हार्डिंग ने अपनी उदारता और न्याययुक्त वक्तृता देकर सारे देश को मोहित किया था, और जिसकी भावी नियुक्ति की आशा भारत-सचिव लार्ड क्रू महोदय ने लन्दन डेपुटेशन का उत्तर देते हुए दिखाई थी, जिसकी अनिवार्यता, प्रयोजनीयता और युक्ति युक्तता बम्बई, कलकत्ता, प्रयाग, कानपुर आदि नगरों की विराट सार्वजानिक सभाओं में प्रबल प्रमाणों और अखंडनीय हेतुओं से सिद्ध की गई थी, उसका जन्म हो गया. इस बात को हमारे पाठक जानते हैं. परन्तु यह कमेटी क्या बनी है, मानो पहाड़ खोदकर चूहा निकाला गया है.  बहुत शोर सुनते थे पहलू में दिल का जो चीरा तो क़तर-ए खून निकला... उक्त कमेटी में तीन मेंबर होंगे जिनको जनरल वोथा और उनकी गवर्नमेंट ने नियुक्त किया है. ये तीनों दक्षिण अफ्रीका की गवर्नमेंट के नमकख्वार और वफादार कर्मचारी हैं. मि. विली तो नेटाल गवर्नमेंट की शासन समिति के एक सदस्य हैं. अतएव आज नेटाल में हिन्दुस्तानियों के स

पंडित जी के गुस्से के शिकार हुए सांसद शेट्टी

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पंडित जी आज बेहतरीन मूड में थे. सुबह-सुबह नाती-पोतों को जलेबी खिलाई और कचौड़ियाँ भी. तभी उनकी नजर अख़बार पर पड़ी. भाजपा सांसद गोपाल शेट्टी के हवाले से एक खबर छपी थी, जिसमें कहा गया था-किसान आजकल भुखमरी या बेरोजगारी की वजह से नहीं बल्कि फैशन में ख़ुदकुशी कर रहा है. पंडित जी का माथा चकराया. नाम कुछ सुना-सुना लगा उन्हें गोपाल शेट्टी का. बोले-इसीलिए पढ़ाया-लिखाया था. मामूली आदमी था. परिवार की आर्थिक स्थितियां बिल्कुल ठीक नहीं थीं. परिवार के लोग मिल मजदूर थे. मेहनत किया तो सांसद बन गया लेकिन लगता है कि दिमाग उलटी दिशा में चलने लगा. तभी तो ऐसे फूहड़ और निंदनीय बयान जारी कर रहा है. सांसद जी के ट्विटर अकाउंट से ली गई फोटो-साभार   सारी दुनिया जानती है कि महाराष्ट्र के कई इलाकों में किसान बड़ी संख्या में खुद्कुशी कर रहे हैं. और ये बंदा वहीँ से सांसद है. बुंदेलखंड में किसान ख़ुदकुशी कर रहे हैं. सरकारी दस्तावेजों में भी यह बात साबित हो चुकी है. अब तो एनसीआरबी के आंकड़े भी इस बात की तस्दीक चीख-चीख कर कर रहे हैं. योजना आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि हमारा देश भुखमरी की चपेट में है. यह तब है जबकि

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-पांच / क्या संसार में हमारे लिए स्थान नहीं ?

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एक आफत से अभी छुटकारा नहीं हुआ था, कि हमें दूसरी आफत के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका के गोरे हमारे भाइयों पर जुल्म कर रहे हैं, और अब कनाडा वालों की बारी है. कनाडा में हमारे पांच-सात हजार भाई हैं. वे वहाँ मेहनत मजदूरी करके खुशहाल हो गए हैं. उनके पास धन है और जमीन भी. यह सुख है, लेकिन उनके दुःख का भी ठिकाना नहीं. उनके पास उनकी माताएं, बहिनें, स्त्रियाँ और पुत्रियाँ नहीं. वे वंचित हैं उस सुख से, उस शांति से, उस प्रेम से, जो स्त्रियाँ ही दे सकती हैं, और जिनका प्रभाव पुरुष के चरित्र को शुद्ध और उच्च बनाने में खास हिस्सा रखता है. विद्यार्थी जी  कनाडा में हिन्दुस्तानी स्त्रियाँ एक तरह से हैं ही नहीं. हिन्दुस्तानी पुरुषों के भी उस'पुण्य भूमि' पर पैर रखने में कितने ही अड़ंगे हैं. नए जाने वालों की तो बात दूर रही, जो हिन्दुस्तानी इस समय वहाँ हैं, उन्हें भी किसी तरह तंग करके निकल देने की चिंता में कनाडा के गोरे निवासी हैं. नए कानून की रचना की फिक्र हो रही है, लेकिन जब तक वह बने, तब तक भी कनाडा निवासियों ने चुपचाप बैठना उचित नहीं समझा है. कनाडा सरकार ने आज्ञा दे दी है कि मज

काश! ऐसे दिन आ जाएँ

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रात हो चली थी. मैं बिस्तर में पड़े सोच रहा था कि काश! चरित्र प्रमाण पत्र, जाति प्रमाण पत्र, आय प्रमाण पत्र, राशन कार्ड, आयु प्रमाणपत्र, जन्म प्रमाण पत्र, खसरा-खतौनी, चिकित्सा प्रमाण पत्र आदि सरकारी जरूरी दस्तावेज बिना रिश्वत मिल जाए. सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स, सर्विस टैक्स, गृहकर, जलकर बिना रिश्वत दिए ठीक-ठीक तय हो जाए. पुलिस बिना बदसलूकी किये मुकदमा दर्ज करते हुए पीड़ित की मदद कर दे. सड़क पर चलते हुए परिवहन विभाग अधिकारी-कर्मचारी कागज देखकर ड्राइवर को जाने दें. बिजली महकमे के लोग सहज सुलभ बिना रिश्वत कनेक्शन दे दिया करें. मौरंग-गिट्टी  की ट्रक हमीरपुर-महोबा से बिना रिश्वत मंजिल तक पहुँच जाए..तो जीवन कितना आसान हो जाये. महंगाई खुद-ब-खुद ही काबू में आ जाएगी. इसी झाले में उलझे हुए नींद आ गई, पता नहीं चला. साभार  फिर राजा भेष धारी सज्जन से मुलाकात हुई. उनके आसपास ढेरों लोग काले कपड़ों में जमा थे. मैं डरा हुआ था. तभी वे आए. बोले-बहुत चिंतित हो वत्स. मैंने कहा, जी. बोले-तुम्हें चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. अब मैं आ गया हूँ. सब ठीक हो जाएगा. मुझे सब पता है. कहाँ-कहाँ गड़बड़ है. अच्छे दिन आ

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-चार / प्रायश्चित की आशा

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विद्यार्थी जी  अंत में, इंगलैंड का आसन भी डोलता सा मालूम पड़ता है. हमारे प्रवासी भाई अभी तक उसी तरह सख्तियाँ झेल, और अत्याचार सह रहे हैं. यद्यपि दक्षिण अफ्रीका की निरंकुश सरकार के पापों का प्याला मुंह तक भर गया है और वह मन ही मन अपनी नादिरशाही के नतीजे पर डर रही है, लेकिन, संसार के साथ वह अभी तक बड़ी ही बेशर्मी से आँखे मिलाने में बाज नहीं आती. जो लोग चुपचाप अत्याचार सह लेना अपना कर्तव्य समझते हैं, वे मनुष्य नहीं, मनुष्य के रूप में निरा पशु हैं. जो लोग शक्तिमान हैं, यदि वे अत्याचार का होता रहना पसंद करते हैं, यदि वे अपने अधीन निर्बल आदमियों को दूसरों के पैरों तले रौंदा जाना चुपचाप देखते हैं, तो समझ लीजिये कि वे अत्याचारी से ज्यादा पापी और तिरस्करणीय हैं, क्योंकि वे ही संसार में अत्याचार होने देते हैं और अपनी इस मूर्खता और गफलत से वे उन प्राकृतिक महाशक्तियों को जो व्यक्तियों और जातियों को जन्म देती, और नाश करती है, अपनी जड़ रेत देने का मौका देते हैं. हमारे प्रवासी भाइयों पर जो घोर अत्याचार हो रहा है, उसका दोष दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर भले ही मढ़ा जाए, लेकिन किसी भी सत्य-प्रेमी के नजर

अब दिन-रात पीने-पिलाने के मौके ही मौके

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अति पिछड़े राज्य में शुमार बिहार में 1 अप्रैल से शराब नहीं मिलेगी और ठीक इसी तारीख से उत्तर प्रदेश में सस्ती हो जाएगी. सरकार ने अंग्रेजी शराब 25 फ़ीसदी तो देशी दारू भी एक रुपये प्रति लीटर सस्ती करने का फैसला किया है. कुछ दुकानें भी बढ़ जाएँगी इसी अप्रैल से. अब सस्ती भी और घर के पास भी. खूब पियो. जी भर के पियो. कोई रोक-टोक नहीं. केवल घर वाली के बेलन से बचने की अगर जरूरत है, तो ही है. आप के घर में घुसते ही सन्नाटा छा जाता है तो यह भी करने की जरूरत नहीं है. इसका दूसरा मतलब यह भी है कि घर में आप की ही चलती है. तो मस्त होकर खूब पीजिये और सरकारी खजाने को भरिये. सरकार को पैसों की बहुत जरूरत है. प्रतीकात्मक फोटो (साभार)  खबरों के अनुसार अकेले लखनऊ में 1.5 करोड़ की शराब रोज यानी 45 करोड़ की हर महीने पी जाती है. 540 करोड़ साल. इतने पैसे में तो कई स्कूल, अस्पताल, अनाथालय बन जाएंगे. कई हजार बेटियों के हाथ पीले हो जाएंगे. हजारों बच्चे स्कूल पहुँच जाएंगे, बेघर लोगों के सिर पर अपनी छत होगी. कई गाँव एक साथ रोशन हो जाएंगे, कुछ गांवों तक सड़कें पहुँच जाएंगी आदि-आदि..अपने देश में हर साल लगभग छह करोड़ लोग भ

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-तीन / कर्तव्य या प्रायश्चित?

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श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी  "इस घोर संग्राम में उनके साथ सारे भारत की गहरी, और हार्दिक सहानुभूति है. केवल भारत ही की नहीं, उन सबकी भी, जो मेरी तरह भारत के निवासी न होते हुए भी, भारतवासियों से सहानुभूति रखते हैं." ये शब्द उस उदार व्यक्ति के हैं जिसके हाथ में, सौभाग्य से, आज हमारे देश की शासन-डोर है. आगे चलकर, उस अत्याचार का जिक्र करते हुए, जो दक्षिणी अफ्रीका के 'सुसभ्य' और 'दयालु' शासक हमारे भाइयों पर कर रहे हैं, उदार लार्ड हार्डिंज ने कहा, "यदि दक्षिण अफ्रीका की सरकार अपने को भारत और संसार की नजर में निर्दोष सिद्ध करना चाहती है, तो उसके लिए केवल एक ही रास्ता है, और वह यह है कि अंग्रेजी साम्राज्य की ओर से एक कमेटी बनाई जाय, और वह क्रूरता की सत्यता और असत्यता की जाँच करे. ....मुझे विश्वास है कि अफ्रीकी सरकार इस बात की आवश्यकता अनुभव करेगी, कि वह उन लोगों के साथ, जो उसी की तरह अंग्रेजी झंडे की प्रजा हैं, बराबरी का बर्ताव करें, और उनके हकों का, जो उन्हें अंग्रेजी राज्य के नागरिक होने की हैसियत से प्राप्त है, पूरा ख्याल रखे." लार्ड हार्डिंज ने ये ब

लेफ्ट-राइट के बीच फंसा देश

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लेफ्ट-राइट-लेफ्ट. इन शब्दों से मेरा सामना या यूं कहें कि किसी भी नौजवान का सामना पहली दफा एनसीसी कैडेट के रूप में होता आया है. लेकिन इस दफा जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के सन्दर्भ में मैं इसे महसूस कर रहा हूँ. जिस तरह परेड के दौरान हमारी हरकतें छिप जाती थीं ठीक उसी तरह एक मुद्दे को ढकने-तोपने के चौतरफा प्रयास होते दिख रहे हैं. इसके पहले मैं कुछ भी लिखूं, साफ करना चाहूँगा कि मेरा किसी भी दल, विचारधारा से कोई ताल्लुक नहीं है. मैं केवल और केवल हिन्दुस्तानी नागरिक हूँ और खुद को पढ़ा-लिखा होने का दावा भी करता हूँ. इसलिए जो कुछ भी चल रहा है, उस पर अपनी राय रखने का दुस्साहस कर रहा हूँ. इसे ठीक वैसे ही समझा जाए, जैसा मैं लिख रहा हूँ.बाकी,  इधर-उधर समझने वालों का अपना विवेक है. जो चाहें समझें. उसमें मैं कुछ कर भी नहीं सकता. बस अखबार, टीवी चैनल्स पढ़-देखकर केवल कन्फ्यूजन की स्थिति है. इस नाचीज को एक बात यह नहीं समझ आ रही कि जब देश में कानून है. अदालतें हैं. हम यह दावा करने से नहीं चूकते कि हमारा भारत के संविधान और न्यायपालिका में पूरा भरोसा है. फिर जेएनयू मसले पर इतनी चिल्ल-पों क्यों मची हुई

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-दो / भीषण अत्याचार

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ह्रदय काँप उठता है, और रोंये खड़े हो जाते हैं, जब हम उस भयंकर अत्याचार के समाचारों को सुनते हैं, जो हमारे भाइयों पर दक्षिण अफ्रीका में इस समय हो रहा है. दक्षिण अफ्रीका की सरकार ने सभ्यता, और मनुष्यता से नमस्कार कर लिया है. संसार के सभ्य राष्ट्रों के उन सारे साधारण भावों से, जिनसे एक सभ्य राष्ट्र, सभ्य कहला सकता है, अब उसे कोई सरोकार नहीं. उदारता, सज्जनता और सत्यता से उसने आँखे फेर ली हैं. अत्यंत नीचता और पशुता पर वह उतर आई है. अनाथों की बेबसी और स्त्रियों की लाचारी उसके ह्रदय को जरा भी नहीं हिलाती. मनुष्य-और वे भी इतने सदाचारी, वीर, और सत्यप्रतिज्ञ, कि जिनके ऊपर संसार का कोई सभ्य से सभ्य देश गर्व कर सकता, और जिनके पैरों की धूल तक माथे पर चढ़ने के योग्य दक्षिण अफ्रीका के मनुष्य-शरीर पाने वाले, लेकिन पशु ह्रदय रखने वाले आदमी नहीं है, कैदखाने में ठूंसे जाते हैं. उन पर बेहिसाब कोड़े लगाये जाते हैं. गणेश शंकर विद्यार्थी जी  आज्ञा है कि गोली तक मार दो. और यह किस लिए? इसलिए नहीं, कि इन भले आदमियों ने कोई जुर्म किया है, इसलिए नहीं, कि उन्होंने दक्षिण अफ्रीका के गोर निवासियों की गठरी काटी है

डाकू ददुआ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं

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डाकू ददुआ आज बहुत खुश था. बोला-चलो हमारे बच्चों ने वह कर दिखाया जो मैं अपने माता-पिता के लिए नहीं कर सका. इसका मुझे अफ़सोस है. पर कोई नहीं, मेरे माता-पिता भी तो खुश ही होंगे. उनके बेटे-बहू की मूर्ति पूजी जाने लगी. अब मैं सीना ठोककर एक जगह बैठ गया. न ही पुलिस का झंझट न ही किसी और से छिपने-छिपाने का. अब जिसकी मर्जी हो आये. मेरे मंदिर में. शादी-विवाह करे. मुंडन करे. पहले अपनों के इस तरह के कार्यक्रमों में जाने पर मुझे दिक्कत बहुत होती थी. रात-बिरात जाना पड़ता था. उन्हें भी दिक्कत होती थी, जो बुलाते थे. कभी भी पुलिस के पहुँचने के डर से सारा कार्यक्रम जल्दी-जल्दी निपटाना पड़ता था. अब सारे झंझट से मुक्ति मिल गई. यहीं मेरे आँगन में, मेरे सामने अब सारे कार्यक्रम हो पाएंगे और कोई कुछ नहीं कह पाएगा. फतेहपुर जिले में मंदिर में स्थापित ददुआ और उनकी पत्नी की मूर्ति  मैंने पूछा...अरे आपको तो पुलिस ने मार दिया था. शव मैंने भी देखा था. बोले-क्या बकते हो. मेरी शरीर को उन्होंने गोली मारी थी. असल में मैं बहुत थक गया था. भाग-भाग कर. चीजों का प्रबंधन मुश्किल हो रहा था. इसलिए शरीर को ख़त्म करने का फैसल