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Showing posts from April, 2016

चलो अच्छा हुआ, शहर अतिक्रमण मुक्त जो हुआ

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देर से ही सही. अपना शहर लखनऊ अतिक्रमण मुक्त हो गया. कितनी मुश्किलों से गिराया साहबों ने सत्ताधारी दल के विधायक का शहर में मौजूद एक मात्र अतिक्रमण. कितनी ताकत जुटानी पड़ी. अब आप शहर के किसी भी इलाके से गुजरिये, अतिक्रमण नहीं मिलेगा. रात हो या दिन, सुबह हो या शाम. फर्राटा भरिये चाहे जियामऊ या फिर पुराना लखनऊ. विधायक के इसी अतिक्रमण ने ही शहर को बदसूरती का तमगा दे दिया था. कलंक था यह अतिक्रमण व्यवस्था पर. सवालिया निशान लगाते नहीं थकते थे लोग, जब इस अतिक्रमण को देखते थे. गांधी जी के तीन बन्दर-हर बच्चे को पता है इनकी कहानी कम से कम मुझे तो शर्म आती है अपनी इस कु-व्यवस्था पर. अरे जाहिलों-काहिलों, इतनी बड़ी इमारत न तो एक दिन में बनी न ही एक महीने में. कई महीने या यूँ कहें कि बरसों लगे इसे बनने और आबाद होने में. तब तुम रतौंधी / दिन्हौधीं (माफ़ करिएगा, संभवतः यह रोग मेडिकल साइंस में दर्ज नहीं होगा) रोग के शिकार थे. क्यों नहीं दिखी, जब यह इमारत बन रही थी. सत्ता-प्रतिष्ठान के इशारे पर की गई इस कार्रवाई का मैं विरोध नहीं कर रहा. मेरी हैसियत ही क्या है या मैं क्यों विरोध करूँ या फिर मेरे विरोध

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 55 / हिन्दू विश्वविद्यालय

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गणेश शंकर विद्यार्थी  अपनी स्थिति को प्रकट करने, तथा सरकारी शर्तों के औचित्य और उनकी अनुकूलता दर्शाने के लिए हिन्दू विश्वविद्यालय की कमेटी ने वह व्यवस्था प्रकशित की है जिसके अनुसार आगे विश्वविद्यालय का काम होगा. व्यवस्था का प्रकाशन केवल उसी के लिए नहीं हुआ है, पग-पग पर इस बात के समझाने की कोशिश करना, कि प्रस्तावित विश्वविद्यालय सरकारी विश्वविद्यालयों से अच्छा होगा, एक ऐसा काम है, जो विश्वविद्यालय कमेटी की इस क्रियाशीलता का और ही मतलब प्रकट करता है, और साथ ही उसके उस अविश्वास को मुश्किल से छिपा सकता है, जो उसे अपनी ही बातों पर है. 'हिन्दू  विश्वविद्यालय निवासयुक्त शिक्षालय होगा. अध्यापक और छात्र विश्वविद्यालय के आसपास ही रहेंगे. वर्तमान विश्वविद्यालय ऐसे नहीं हैं, वे केवल परीक्षा लेने वाली संस्थाएं हैं. हिन्दू विश्वविद्यालय में धार्मिक शिक्षा होगी और लड़कों की धार्मिक और शारीरिक उन्नति की ओर ध्यान दिया जाएगा.' परन्तु अच्छा होता, यदि कमेटी कृपा करके यह भी बतला देती, कि धार्मिक शिक्षा में किस धर्म का आश्रय ढूढ़ा जाएगा? विश्वविद्यालय का शासन दो मण्डलियों के हाथ में रहेगा-एक का

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 54 / नए टैक्स

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गणेश शंकर विद्यार्थी  युद्ध के कारण सभी कामों की गति रुकी हुई है. अधिकांश कामों में घाटा हो रहा है, इसीलिए सरकार की आमदनी में भी घाटा होगा. अभी से कहा जा रहा है कि केवल रेलों की आमदनी ही में सरकार को लगभग दो करोड़ का घाटा हो चुका है, और मार्च तक जितना हो जाए. व्यापार भी मंदा है. अच्छे व्यापार से सरकार को अच्छा लाभ होता था, मंदे व्यापार से घाटा होने की सम्भावना है. इसी सम्भावना के कारण इधर-उधर कहा-सुनी होने लगी है कि घाटे की पूर्ति के लिए सरकार नए टैक्सों की रचना करेगी. सबसे पहिले गोरे पत्रों के दिल्ली-संवाददाताओं ने अपने पत्रों में इस बात को छेड़ा है. सरकार को अपना घाटा पूरा करना ही पड़ेगा, इसलिए यह बहुत संभव है कि नए टैक्सों की रचना का प्रश्न अधिकारियों के सामने घूमता हो. कहा जा सकता है कि सरकार अपना खर्च कम करे. परन्तु ऐसा होता नहीं देख पड़ता. बढ़े हुए पैरों को छोटी चादर के भीतर सिकोड़ना कठिन है. फौजी खर्च तो जो सबसे बड़ा है, और जो भारत के लिए सबसे बड़ा बोझा है, ऐसा है कि इस समय अधिक न बढ़ जाए, तो सौभाग्य की बात समझिए. परन्तु इस समय किन टैक्सों की रचना होगी? जिन्होंने बात उठाई है, वे शं

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 53 / टेढ़ी चालें

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गणेश शंकर विद्यार्थी  कांग्रेस संयुक्त भारत की आवाज है-ये मद्रासी कांग्रेस के सभापति बसु बाबू के शब्द थे. कैसी 'आवाज'? जो राष्ट्रीय भावों, राष्ट्रीय आशाओं और राष्ट्रीय आकांक्षाओं के साक्षात् स्वरुप होने के कारण, और राष्ट्रीय शिक्षा के एक बड़े हथियार के होने की हैसियत से किसी जात-पांत, धर्म या रंग के विभेद को नहीं मानती. परन्तु कांग्रेस में जिस प्रकार की धांधली देखी जा रही है, उस पर विचार करते हुए कौन कह सकता है कि इन शब्दों की प्रतिध्वनि अपना ही मखौल नहीं उड़ाती? जात-पांत, रंग रूप के भेद को नहीं मानते, अच्छी बात है, परन्तु वर्तमान कांग्रेस और उसके ठीकेदार 'संयुक्त भारत' की आवाज के नाम पर काम करने के अधिकारी उस समय तक नहीं हैं जब तक वे अपनी हठधर्मी को छोड़कर देश के एक बड़े दल की आवाज सुनने के लिए तैयार नहीं होते. हम 'हठधर्मी' शब्द पर जोर देते हैं. हम जानते हैं कि यह भाव अब पग-पग पर फूटा पड़ता है. कांग्रेस के ठीकेदार अपने हाथों से अधिकारों का जाना नहीं देख सकते. स्वेच्छाचारिता मनुष्य के ह्रदय को सख्त बना देती है. उसका अंधकार ह्रदय की उज्जवलता और उच्चता के प्रकाश

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 52 / कांग्रेस-लीला

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गणेश शंकर विद्यार्थी  दिसंबर के महीने में देश भर में कांग्रेस की धूम थी-धूम कुछ अधिक आकर्षण और उत्सुकता के साथ, और ऐसी, जो आज कुछ वर्षों से देखने में नहीं आई थी. समय आया, कांग्रेस की बैठकें हो गईं, और अब हम समझते हैं, कि जिस रीति से काम हुआ, उसे देखते हुए इस बात में किसी प्रकार का संशय नहीं किया जा सकता कि जिनमें उत्सुकता थी और जिन्हें आकर्षण था, उनके इन भावों को बड़ी ही अधीरता और निराशा के साथ दबकर रह जाना पड़ा. कल्पना की जाती थी कि देश में जो दो राजनीतिक दल अलग-अलग रास्तों पर खड़े अपनी शक्तियों को बिखेरे हुए हैं, वे कम से कम अपनी उद्देश्य सिद्धि के लिए एक दूसरे का हाथ थाम आगे बढ़ेंगे. आज इस कल्पना का मूल्य शेखचिल्ली के किसी भी विचार से कम नहीं है. कांग्रेस के बड़े-बड़े महारथियों ने जोर लगाया, और जोर लगाया उन्होंने भी, जो देश की हित चिन्तना के विचार से या सुनसान मैदान में अपने अकेले निष्क्रिय पड़े रहने से बचने के लिए अपने मान और गौरव को मेल के इस दांव पर अड़ने को तैयार हो गए थे. न्याय की लगती पूछिए, तो इसमें संदेह नहीं कि उस दल के कुछ लोग, जो 'नरम' के नाम से मशहूर हैं, जी जान से

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 51 / देश का व्यवसाय

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गणेश शंकर विद्यार्थी  आज फिर हम देश के व्यवसाय विषय पर पलटते हैं. हम सुन रहे हैं कि देशी व्यवसाय की जागृति के लिए मद्रास सरकार ने मद्रास प्रान्त के पेंसिल के एक कारखाने को अपने हाथ में ले लिया है. हमने सुना कि उसने इसी प्रकार दियासलाई के एक कारखाने को सहायता देने का विचार किया है. कलकत्ते में देशी चीजों की प्रदर्शिनी का समाचार अब पुराना पड़ चुका है. अब शायद उसका समाचार हमें बम्बई से मिले. हम यह भी सुन चुके हैं कि बंगाल में मि. स्वेन देशी व्यवसाय की उन्नति के प्रश्न पर विचार करने के लिए नियत किये गए. क्या इस बात के कहने की आवश्यकता है कि सरकार की यह गति देखने और सुनने में भली और बहुत भली है. परन्तु इन सारी बातों पर पूरी तरह विचार करने के पश्चात देश के व्यवसाय की अधोगति और देश की आवश्यकता और उपज पर नजर डालते हुए हम इस बात को समझने में असमर्थ हैं कि बस, जो कुछ होना चाहिए सो होने लगा, और सरकार को जितना ध्यान देना चाहिए था उतना ध्यान वह देती है. सरकार की यह गति तो चींटी की चल है, और भविष्यवक्ता की हैसियत से नहीं, किन्तु उस साधारण आदमी की तरह, जो साधारण दृष्टि से ही साधारण प्रश्नों को द

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 50 / संयुक्त कांग्रेस

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गणेश शंकर विद्यार्थी  यद्यपि समय बहुत ही थोड़ा रह गया है, तो भी प्रयत्न हो रहा है कि इस वर्ष की कांग्रेस के दोनों पक्ष भाग लें. प्रयत्न करने वालों की यह सदइच्छा सराहनीय है. बड़ी रुकावटें दो ही थीं, जिनमें से एक का तो निपटारा सा हो चुका है. 1906 की कांग्रेस में वह प्रस्ताव पास हो चुका था, जिसके आधार पर कांग्रेस का पहिला नियम-ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज्य के नियम-की रचना पीछे से हुई. उस प्रस्ताव को दोनों पक्षों ने एक स्वर से स्वीकार किया था. उस नियम पर हस्ताक्षर करने का झगड़ा भी अब नहीं रहा है. गरम कहलाने वाले दल ने नरम कहलाने वाले दल की बात मान ली है, और अब उस पक्ष के लोग उस नियम पर हस्ताक्षर करने को भी तैयार हैं. मत-भेद की दूसरी बात है प्रतिनिधियों के चुनने की प्रणाली. नरम दल कहता है कि बस, वहीं संस्थाएं कांग्रेस के प्रतिनिधियों का चुनाव कर सकें, जो कांग्रेस से सम्बन्ध रखती हैं, और गरम दल चाहता है कि सार्वजनिक सभाओं को भी प्रतिनिधि चुनने का अधिकार हो, जैसा कि पहिले था. नरम दल कहता है कि गरम दल वाले इस वर्ष तो कांग्रेस का वर्तमान नियमों के अनुसार ही कांग्रेस में आवें और उसमें

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 49 / स्वदेशी आन्दोलन का वर्तमान रूप

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गणेश शंकर विद्यार्थी  1901 की कलकतिया कांग्रेस के सभापति, देश के आर्थिक प्रश्नों की नस-नस की अच्छी जानकारी रखने वाले, व्यापर कुशल मि. डी. ई. बाचा ने अपने विद्वतापूर्ण भाषण में कहा था कि आज आधी शताब्दी से अधिक का समय बीत गया कि 30 करोड़ रुपये की रकम से लेकर 40 करोड़ की रकम तक भारत से हर साल बाहर चली जाती है. आज इस बात को कहे हुए 13 वर्ष हो चुके. तब से व्यापर बढ़ गया है. इसमें संदेह नहीं, कि यदि भारत के व्यापार के सारे अंको  को इकठ्ठा करके हिसाब लगाया जाय, तो हमें वह रकम भी बढ़ी हुई मिलेगी, जो आज लगभग 60-70 वर्ष से हर साल हमारे देश से बाहर निकल कर हमें राष्ट्रीय दरिद्रता का शिकार बनाती जाती है. इस दरिद्रता का उपाय केवल यही है कि हम अपनी रक्षा करें, हम पूरा ख्याल रखें कि कोई हमारा खून चूसने न पावे. स्वदेशी आन्दोलन इस रोग का इलाज है. आज से कुछ वर्ष पहिले लोगों ने इसी अस्त्र को ग्रहण किया था, और आज फिर वही बाना धारण किया जा रहा है. हम स्वदेशी आन्दोलन के सिद्धांत का ह्रदय से आदर करते हैं. हम उसे देश की उन्नति का मूलमंत्र समझते हैं. परन्तु, दुर्भाग्य से या सौभाग्य से, हमें स्वदेशी आन्दोलन क

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 48 / स्वदेशी आन्दोलन का पुनर्विकास

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गणेश शंकर विद्यार्थी  कुछ वर्ष हुए, देश की दृष्टि अपने व्यवसायियों पर पड़ी थी. विचारशील लोगों ने अपनी दशा की जाँच-पड़ताल की. उन्हें पता लगा कि ढोल के भीतर पोल है और यदि कुछ दिन और हालत ऐसी ही रही, तो ढोल की भी खैर नहीं. चेतावनी का स्वर ऊँचा किया गया. जिनके हृदयों में देश का दर्द था, और जिन्होनें अपनी भयंकर अवस्था को तनिक भी समझा, वे चुपचाप बैठे न रह सके. तूफ़ान का सा आन्दोलन उठा, देश में, एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक धूम मच गई. विदेशी वस्तुओं का वहिष्कार हुआ, और स्वदेशी का ग्रहण. आशा की लहरें हिलोरें मरने लगीं. समझा गया कि अब दिन फिरेंगे. पर, तूफ़ान में जोर होता है, और जोर में प्रतिक्रिया. झूले की पेंग उलट पड़ी. रोकने पर भी न रुकी. बीच में भी न ठहरी. जितना बढ़ी थी, उतना ही पीछे भी हटी. लोग स्वदेशी आन्दोलन को भूल गए. भूलना ही नहीं, बहुतों ने उसका नाम तक लेना पाप समझा. किसी प्रकार देश में एक सर्वव्यापी उपयोगी आन्दोलन उठा, परन्तु जिस प्रकार वह उठा उसी प्रकार वह उठ भी गया और देश के दुर्भाग्य से, उसकी समाप्ति पर बहुत ही थोड़े नेत्रों ने आंसू गिराए. यह असफलता क्यों? या सारा बना बनाया खेल क्य

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 47 / चिराग तले अँधेरा

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गणेश शंकर विद्यार्थी  राजधानी को देश की सार्वजनिक स्फूर्ति का केंद्र होना चाहिए. देहात में पुलिस वाला लोगों को सता सकता है, पर शहर में उसकी नादिरशाही कम चलती है, और राजधानी में नादिरशाही के लिए स्थान ही नहीं रहता. न्याय का सबसे बड़ा घर राजधानी है. फरियाद की सबसे अधिक सुनवाई कहीं हो सकती है तो राजधानी में. सताए हुए आदमी की आवाज का राजधानी में दबाव कठिन, और महा कठिन है. पर, जब राजधानी में ही सताए हुए लोगों की गुहार नक्कारखाने में तूती की आवाज बन जाय, जब बड़े न्यायालय के स्थान में बड़ी से बड़ी निरंकुशता सहज में की जाय, और किसी का भी आसन न डोले, तो यह कहना अनुचित नहीं है कि 'चिराग के तले अँधेरा' है. यह अँधेरा या अंधेर आज हमारे देश की राजधानी पुण्य नगरी देहली में खूब देखने में आ रहा है. राजधानी के परिवर्तन पर गोरों, गोरी प्रजा और बंगाल वालों ने अपने शोर से आकाश और पृथ्वी एक कर दिया है और वायसराय को खूब कोसा था. लोगों ने समझा था कि यह सब ढोंग संकीर्ण स्वार्थ के कारण है, पर आजकल की राजधानी की कीर्ति-चन्द्र के दर्शन करते हुए कहना पड़ता है कि गोरों और बंगालियों की चिल्लाहट कम से कम बिल

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 46 / टर्की के भाग्य का निपटारा

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गणेश शंकर विद्यार्थी  लन्दन के गिल्डहाल के भोज के भाषणों ने संसार का चित्त अपनी ओर खींच लिया. लार्ड किचनर बोले, मिस्टर चर्चिल बोले, और अन्य लोगों ने भी कुछ कहा और सुना, परन्तु महामंत्री मिस्टर एसकुइथ  ने जो कुछ कहा, वह इस समय सारे संसार के कानों में गूँज रहा है. शुभ है उनकी यह आंकाक्षा कि तलवार उसी समय म्यान में रखी जाएगी, जब बेल्जियम को उससे अधिक मिल जाए, जो उसने खोया है, फ्रांस आक्रमणों से सुरक्षित हो जाय, और योरप को छोटे-छोटे राष्ट्रों के अस्तित्व में धक्का लगने का भय न रहे. हम उनकी इस इच्छा को भी बुरी नहीं कह सकते कि वे निर्माण के इस काम के साथ उसके महल को सुदृढ़ बनाये रखने के लिए जर्मनी की उद्दंडता का उखाड़-पछाड़ भी चाहते हैं. महामंत्री ने अपने भाषण में टर्की की म्रत्यु का सन्देश संसार को सुनाया है. टर्की ने ऐसी गलती की है, जिसका दंड उसे भोगना ही पड़ेगा. परन्तु, ऐसी भी बातें संसार के सामने हैं जिनसे उसका दोष उतना भारी नहीं रह जाता. हमें समाचार मिले हैं, जो कहते हैं कि टर्की में इस समय डंडे के बल का राज्य है, सुल्तान की एक नहीं चलती, युवराज की एक बात काम नहीं करती. कितने ही राज्य

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 45 / सभ्यता और युद्ध

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गणेश शंकर विद्यार्थी  संसार के एक हिस्से में बड़ी मार काट हो रही है. लाखों परिवार तबाह हो रहे हैं. नगर और गाँव धूल में मिल रहे हैं. लोग परेशान हैं. उन्हें चिंता है, चिंता लड़ने की, आत्म-रक्षा की, और भभकती हुई अग्नि के शांत करने की, जिनका युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है, वे भी व्यथित हैं. उनका काम बंद है. वे मानते हैं, युद्ध बंद हो. दयार्द्र हृदयों में, विचारशील दिमागों में भी युद्ध के अंत के लिए विचारों की बाढ़ चक्कर मार रही है. सभी लोग वर्तमान अवस्था पर विचार कर रहे हैं. वे उसके कारण भी ढूढते हैं, और हथियार बंदी, वयापार की प्रतिद्वंदिता, लागडांट, उद्दंडता, और अहम्मन्यता की नीति आदि तक पहुंचकर संतुष्ट हो जाते हैं, परन्तु यह दशा उनकी है, जिनके सिर पर युद्ध का डंका बज रहा है. जो अपना युद्ध से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध समझते हैं, और जिन्हें सांसारिक प्रश्नों पर संसार के हित और अहित ही की दृष्टि से देखने की बुरी या भली आदत है. एक दूसरे प्रकार के भी आदमी हैं. अधिकतर हमारे देश ही को इनकी जन्मभूमि होने का गर्व और गौरव प्राप्त है. युद्ध की भीषणता की छींट तक यहाँ नहीं पड़ती. सुख निद्रा

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 44 / टर्की की गति

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गणेश शंकर विद्यार्थी  इस समय संसार के सामने एक प्रश्न है. इस महायुद्ध में टर्की चुप रहेगा, या वह भी मैदान में कूद पड़ेगा? जर्मनी से उसे सहानुभूति है. इस सहानुभूति के एक नहीं, अनेक चिन्ह मिल चुके हैं, जिनसे पता लगता है कि रंग बुरा है, और शीघ्र ही कोई नया गुल खिलने वाला है. 1898 में जर्मन कैसर टर्की गए. मित्रता बढ़ी. तुर्कों ने समझा कि कैसर ही हमारा हितू है और संसार के मुसलमानों ने समझा कि "इस लाभ का मुहाफिज और हामी अगर कोई गैर मजहब का बादशाह है, तो वह कैसर ही है. आम लोगों को तो यहाँ तक ख्याल है, कि वह दिल से मुसलमान हैं, मगर जाहिर इगराज सल्तनत पर नजर करके वह अपने को दीन मसीही का पेरू जाहिर करता है. " इसी मित्रता की नींव पर टर्की में जर्मनी का प्रभाव बढ़ा. जर्मन व्यापारियों ने टर्की में अपने अड्डे बनाये. जर्मनों ने सार्वजानिक कामों में हाथ लगाया. स्कूल और कालेजों का निर्माण हुआ. रेल और गिरिजों का स्वांग किया. पत्र निकले. जर्मनी तुर्क सिपाहियों का शिक्षालय बना. पैर से लेकर सिर तक टर्की पर जर्मन चादर तान देने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. इटली ने ट्रपली पर आक्रमण किया. जर्मनी इटली

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 43 / योरप के नक़्शे में परिवर्तन

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गनेश शंकर विद्यार्थी  योरप में इस समय जो युद्ध हो रहा है, वह आज न सही, तो कल अवश्य होता. उसे सदा के लिए किसी प्रकार भी नहीं टाला जा सकता था. योरप के राष्ट्र केवल दिखाने को शांति-शांति रटा करते थे, भीतर ह्रदय में उनके खूब ही गुबार भरे हुए थे और एक दूसरे पर झपटने के लिए वे दिन ब दिन अपना फौजी खर्च बढ़ाते जाते थे. लोग समझ चुके थे कि शांति देवी के ये उपासक एक बार एक दूसरे का रक्त बहाकर अपने दिल का हौसला पूरा करेंगे. इंगलैंड के सुप्रसिद्ध समाचार पत्र लेखक मिस्टर स्टेड सदा शांति का स्वप्न देखा करते थे. उन्होंने संसार से लड़ाई की भीषणता के दूर कर देने के लिए बहुत प्रयत्न भी किया था, पर वे भी समझते थे कि योरप की शांति का जन्म रक्त से भीगे हुए रण-क्षेत्र में होगा, सादे कागजों पर नहीं. लेकिन, सैनिक आडम्बर ही एक ऐसी चीज नहीं, जिससे हमें इस युद्ध का सन्देश मिला. और भी कितनी ही बातें हैं और उनमें से एक यह भी है कि योरप की अब तक की गति संसार को पीछे घसीट रही थी. सभ्यता और जनता की महिमा के गले में फांसी का फंदा पड़ चुका था और वे स्वेच्छाचारियों की ठोकरों का निशाना बन रही थी. जिन्होंने सूक्ष्म दृ

ईमान गिरता गया, सड़क, पुल ढहते गए

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कोलकाता में गुरुवार को निर्माणाधीन फ्लाई ओवर अचानक गिरने से 24 लोगों की मौत हो गई. सौ के आसपास घायल हो गए. अपने देश में ऐसी ख़बरें आम हैं, क्योंकि अब सीमेंट, बालू, मौरंग, गिट्टी, कम और भ्रष्टाचार का मटीरियल ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करने की होड़ इंजीनियरों, ठेकेदारों और इन महकमे से जुड़े अफसरों में मची हुई है. यह एक ऐसा सच है जिससे, हर आम व खास वाकिफ है लेकिन कोई बोलना नहीं चाहता. और जो बोलता है, उसकी कोई सुनवाई नहीं होती. अलबत्ता, जान पर जरूर बन आती है. ऐसे ढेरों किस्से आम हो चुके हैं. जिसने भी भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज उठाई, वह कम हो गया. शोर जितना भी हुआ हो, मृतक के परिवारीजनों को पैसे कितने भी मिले हों, लेकिन अंतिम खबर यही है कि आवाज उठाने वालों को ही दबाने की परम्परा सी चल पड़ी है अपने देश में. इंजीनियर-ठेकेदार-अफसरों के गठजोड़ का नतीजा है कोलकाता में निर्माणाधीन पुल का गिरना  कोलकाता का यह पुल 2009 में बनना शुरू हुआ था. 2012 में इसे पूरा हो जाना था, पर ऐसा हुआ नहीं. अभी 2016 के तीन महीने गुजरने के बाद भी काम 70 फ़ीसदी ही पूरा हुआ था. इसमें से भी एक बड़ा हिस्सा गिर गया. अब इस पर जाँ

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 42 / युद्ध

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गणेश शंकर विद्यार्थी  इन तीन सप्ताहों के भीतर युद्ध की गति में बहुत ही कम अंतर पड़ा. शत्रु और मित्र दोनों ऐन नदी के किनारे डेरे डाले पड़े हैं. जितनी खबरें आती हैं, उन सबसे यही नतीजा निकाला जा सकता है कि लड़ाई होती है, भयंकर मारकाट जारी है, जर्मन बहुत मारे जाते हैं और मित्र सेना का पल्ला ही भारी है. इधर जर्मन बेल्जियम में बेतरह कदम अड़ा रहे हैं. वे ब्रुशेल्स की किला-बंदी करा रहे हैं. मालूम होता है कि यदि उन्हें पीछे हटना पड़ा, तो वे एक बार बेल्जियम में बड़े जोर के साथ किस्मत आजमाइश करेंगे. साथ ही उन्होंने एंटवर्प के किले का मुहासरा भी आरम्भ कर दिया है. जर्मन तोपें इस नगर पर आग उगल रही हैं. बेल्जियम वाले अपनी राजधानी ब्रुशेल्स से उठाकर इस नगर में लाये थे, यहाँ भी मुसीबत ने उन्हें आ घेरा. अब वे आस्टेन्ड नगर को अपनी राजधानी बना रहे हैं. जर्मनी में फौजी तैयारी इस दर्जे तक बढ़ गई है कि 15 वर्ष के लड़के तक सिपाहियों का बाना धारण कर रहे हैं. इस बात से जर्मनों में पुरुषत्व के गुण का अच्छा परिचय मिलता है. परन्तु दुःख की बात है कि पुरुषत्व के साथ-साथ उनमें स्वेच्छाचारिता की गाथा बहुत अधिक है. उनकी