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Showing posts from June, 2018

कन्फ्यूज न हों, बच्चे को उसके मन की सुनने दें

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दिनेश पाठक हाल ही में मेरी मुलाकात एक ऐसे परिवार से हुई जो इंटर पास अपने मेधावी बच्चे के आगे की पढाई को लेकर परेशान है| मैंने सभी पक्षों से बात की| मुझे जो समझ आया वह यह कि घर के सदस्य एक अनजाने भय से परेशान हैं. उन्हें आशंका है कि कहीं ऐसा न हो कि बाहर पढ़ने जाए और फिर वहीँ रह जाए| फिर स्वदेश लौटे ही नहीं| उच्च शिक्षित इस परिवार में बच्चे का गोल क्लीयर है| उसके मन में कोई कन्फ्यूजन नहीं है| उस बच्चे ने अपनी सारी तैयारी उसी हिसाब से कर रखी है| उसे विदेश जाना है| कालेज उसने तय कर रखा है| दो विदेशी विश्वविद्यालय उसे अपने यहाँ प्रवेश देने को तैयार हैं| पर, फिलवक्त घर में सहमति नहीं बन पा रही है| बच्चा परेशान है और घर के सभी सदस्य भी| पर दोनों ही पक्षों की परेशानी के कारण अलग-अलग हैं| उसके मम्मी-पापा और बाकी घर के सदस्य चाहते हैं कि देश में कहीं रहकर पढाई करे| ऐसा होने पर इस बात की संभावना बनी रहेगी कि बच्चा अपने पास ही रहेगा| बाहरी दुनिया से उसका संपर्क उस तरह नहीं बनेगा, जैसे बाहर पढ़ाई करने से| बच्चा अपने करियर को लेकर परेशान है| उसका अपना स्वार्थ है और मम्मी-पापा का अपना| दोन

प्रेरक है उदयपुर से वाया मुंबई लखनऊ पहुंचे इंजीनियर दीपक की कहानी

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दिनेश पाठक इस बार थोड़ी हटकर एक कहानी. बहानेबाजों के लिए एक कहानी. उनके लिए जो केवल कमियों का रोना रोते नहीं थकते, यह सबको प्रेरित करेगी. खिंचाई बिल्कुल नहीं करेगी. मेरे साथी हैं नवल कान्त सिन्हा. दो दिन पहले वे टैक्सी से सफर कर रहे थे. उस टैक्सी को जो नौजवान चला रहा था, नवल जी ने उसे फेसबुक पर लाइव किया. इस नौजवान का नाम है दीपक. रहने वाला है राजस्थान के उदयपुर का. मम्मी-पापा मुंबई में हैं. यह नौजवान भी मुंबई का ही पढ़ा-लिखा है. इंजीनियर है. वहाँ दीपक ने नौकरी भी की है. फिलवक्त दीपक लखनऊ में हैं और एक बड़ी कंपनी में काम भी कर रहे हैं. बकौल दीपक, उन्हें इतना पैसा मिलता है कि आराम से जीवन चल सकता है. उनके पास नौकरी भी है और अपनी कार भी. एक दिन माल के पास बने पार्क में दीपक ने देखा कि बड़े घरों के बच्चे पिज्जा, बर्गर जैसी चीजें लेकर कुछ खाए और कुछ फेंक दिए. वहीँ कुछ गरीब घरों के बच्चे उसे उठाकर खाते हुए भी मिले. यह बात इंजीनियर दीपक को खराब लगी. वे इनके लिए सोचने लगे. कुछ मदद करने का इरादा उनके मन में आया. पर, यह सब हो कैसे तो इसकी तोड़ उन्होंने यह निकाली कि अपनी कार ओला / उबर के साथ

सावधान! कहीं आपका बच्चा तो गुमशुम नहीं रहता?

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दिनेश पाठक पिछले सप्ताह मैं यूपी दूरदर्शन के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘नमस्ते यूपी’ का हिस्सा था. अभिभावक दिवस के बहाने घर-परिवार, पैरेंटिंग आदि पर खूब बातें हुईं. इस शो की खासियत यह है कि दर्शक फोन पर सवाल भी पूछ सकते हैं. इसी क्रम में कई सवाल आए. इन सभी का जवाब भी दिया गया. इन्हीं में से एक सवाल ऐसा था जिस पर समय की वजह से ज्यादा चर्चा नहीं हो पाई लेकिन है यह बहुत बड़ी समस्या. बस कुछ लोग इस समस्या को चिन्हित कर लेते हैं और कुछ ऊपर वाले के भरोसे छोड़ देते हैं. एक माँ ने सवाल पूछा कि उनका 10 वर्ष का बेटा बहुत गुमशुम रहता है. जल्दी से किसी से घुल-मिल नहीं पाता. बात भी नहीं करता. अब यह समस्या बहुत कॉमन होती जा रही है. इससे हमें अपने बच्चे को बचाना भी होगा. पहले के जमाने में बच्चों के पास घर के अंदर रुकने का कोई कारण नहीं होता था. वे स्कूल से आते, कुछ खाते-पीते और खेलने के लिए निकल जाते. आजकल देहात हो या शहर, घर के अंदर रुकने के बहुत से कारण मौजूद हैं. टीवी, मोबाइल, लैपटॉप, वीडियो गेम जैसे अनेक चीजें उपलब्ध हैं. बच्चा स्कूल से लौटकर इनमें उलझ जाता है तो फिर उसे घर से बाहर जाकर खेलने