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Showing posts from July, 2018

ओढ़ी हुई समस्याओं का खतरनाक असर बच्चों पर, संभल जाएँ मम्मी-पापा

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दिनेश पाठक आजकल मैं एक अजब तरह की समस्या से जूझते हुए लोगों को देख रहा हूँ| बच्चों की अलग-अलग समस्याओं को लेकर मेरे पास आने वाले माता-पिता इस बात खुश नहीं हैं कि उनका अपना बच्चा बहुत अच्छे अंकों से पास हुआ है| वे इस बात से ज्यादा परेशान हैं कि पड़ोसी का बच्चा मेरे से एक फीसद ज्यादा कैसे पा गया| कहीं स्कूल शान में बट्टा लगा रहे हैं तो कहीं घर| कहीं गाड़ी को लेकर तनाव पसरा हुआ है तो कहीं इस बात की ही चिंता खाए जा रही है कि परसों वाली पार्टी में कौन सी साड़ी पहनूँगी? लगभग दर्जन भर मामलों की गहन समीक्षा के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि अगर सब लोग अपने सुख से सुखी और दुःख से दुखी हों तो न तो कोई व्यावहारिक दिक्कत आएगी और न ही कोई ख़ुदकुशी करेगा| गरीबी-अमीरी तो कभी भी कोई कारण हो ही नहीं सकते| इनमें से ज्यादातर की समस्या के मूल में अपना कोई ठोस कारण बिल्कुल नहीं मिला| कोई दूसरों के गम से खुश हो रहा है तो किसी को पड़ोसी की ख़ुशी ही गम में डाले हुए है| कुल मिलाकर अपनी इनकी जितनी समस्याएँ थीं, वे सुलट गईं पर तेरी कमीज मेरे से सफ़ेद कैसे? इसका तो जवाब साफ़ है भाई, बढ़िया कपड़ा खरीदा, साबुन, डि

बच्चे कोरे कागज तो कौन लिख रहा इन पर गन्दी बातें

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दिनेश पाठक आचार्य विनोवा भावे जी ने कहा है-बच्चे मन के सच्चे, बाकी सब कच्चे| अन्य विद्वतजन भी कहते हैं-बच्चे कोरे कागज की तरह होते हैं| जो चाहो लिख दो, वह अमिट होता है| कोई कहता है कि बच्चे गीली मिट्टी हैं, आप इन्हें जो आकृति देना चाहें, दे सकते हैं| इसका मतलब साफ़ है कि हमारे बच्चे जब इस दुनिया में आते हैं, बिल्कुल ठीक स्थिति में होते हैं| उनके दिमाग में कचरा हम यहीं भरते हैं| इस तरह हमारी भावी पीढ़ी का कुछ बच्चा रास्ते से भटक जाता है और उसके कदम गलत दिशा में चल देते हैं| कुछ बहुत अच्छा करते हैं और देश-दुनिया को तरक्की पर ले जाते हुए नाम रोशन करते हैं| स्वाभाविक है कि किसी भी बच्चे की पहली पाठशाला मम्मी-पापा की गोद ही है| फिर घर का आँगन, घर के अन्य सदस्य, पड़ोसी, मोहल्ले के लोग, नाते-रिश्तेदार आदि के बाद नंबर आता है स्कूल और टीचर्स का| तय है कि अगर यह कड़ियाँ आपस में बेहतरीन तरीके से जुड़ जाएँ या फिर जोड़ दी जाएँ तो हम एक बहुत बड़ी सामाजिक समस्या से निजात पा लेंगे| इस दिशा में सबको पहल करनी होगी| लगातार कोशिशों के बेहतर परिणाम हमेशा आते हैं, यहाँ भी आएंगे| पर, हमें इसे अपनी सोच में

एथलीट हिमा दास की कहानी बहुत रोचक है और प्रेरणादायी भी

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दिनेश पाठक नाम-हिमा दास| उम्र-सिर्फ 18 आल| काम-एथलीट| उपलब्धि-एक ही शॉट सभी धुरंधरों के रिकार्ड तोड़ देना, अपना नया रिकार्ड बनाना और पूरी दुनिया में छा जाना| अभी चार दिन पहले तक इस हिमा दास को उसके गाँव के लोग और कोच निपुण दास ही जानते थे| अब पूरी दुनिया जानती है| कापी लिखे जाने तक ट्विटर पर हिमा को फॉलो करने वालों की संख्या 53 हजार से ज्यादा थी और ट्विट की संख्या सिर्फ नौ लेकिन देश उस पर न्योछावर है| असम के नौगाँव जिले के एक गाँव में रहने वाली इस हिमा की कहानी बहुत रोचक और प्रेरणादायी है| यह कहानी बहानेबाजों के मुँह पर तमाचा है और कुछ कर गुजरने वालों के लिए प्रेरणा| ठीक डेढ़ साल पहले तक हिमा को केवल उसके अपने गाँव के लोग जानते थे| क्योंकि यह लड़की गाँव में अपने भाइयों के साथ फुटबाल खेलती थी| खेतों में तेज भागती थी| दौड़ना उसके जीवन से जुड़ा हुआ था| खेती-किसानी कर जीवन यापन करने वाले पिता के पास इतना पैसा भी नहीं था कि वे अपनी इस बहादुर बेटी को कहीं बाहर भेज सकें| वह एक कैम्प में हिस्सा लेने गुवाहाटी आई थी| वहीँ हिमा पर कोच निपुण दास की नजर पड़ी| उन्होंने इस बच्ची की प्रतिभा को प

आरक्षण का खेल उन्हें खेलने दीजिए, आप तो अव्वल की तैयारी करिए

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दिनेश पाठक पिछले सप्ताह एक कार्यक्रम में कुछ ऐसे बच्चों से मुलाकात हुई, जिन्होंनें इंजीनियरिंग की परीक्षा दी और उन्हें मनमुताबिक रैंक नहीं मिली| परिणाम स्वरुप कॉलेज भी नहीं मिले मन के अनुरूप| किसी को तकलीफ इस बात की है कि उन्हें आरक्षण ने मारा तो किसी के पास बहाना कि इम्तहान के दिन ही उनकी तबीयत ख़राब हो गई| मैंने इन सभी स्टूडेंट्स को एक ही बात कही, कि आपकी तैयारी में कोई कमी रह गई थी| न तो समय को कोसें और न ही संक्षिप्त सी बीमारी को| इसे समझने के लिए कुछ और बातें हुईं|  मसलन, आरक्षण| जब आप ने फॉर्म भरा तब भी आपको पता था कि आरक्षण लागू है अपने देश और प्रदेश में| जब पता है तो निश्चित आपको तैयारी ऐसी करनी होगी, जिससे आपका परिणाम आरक्षण की भेंट न चढ़े| आरक्षण है तो है| उसे सहज स्वीकार करना होगा| तभी आप कुछ ठोस कर पाएंगे| अन्यथा करते रहिए खुद से गिला| ध्यान रखिए, काम करने के सैकड़ों तरीके हैं और न कर पाने के हजार बहाने| ये जो नौजवान परीक्षा के दिन बीमार होने की बात कह रहा था, वह आरक्षण का हक़दार है| फिलाक्त उसे जीवन भर आरक्षण मिलेगा| उसे रोकने की स्थिति किसी की नहीं है| जरा सोचिए, अगर

कोई नहीं चाहता, बस्तों का बोझ कम हो

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दिनेश पाठक बस्तों का बढ़ता बोझ...यह एक ऐसा विषय है, जिस पर जितनी भी चर्चा हो, कम है| कारण साफ़ है| बोझ और उम्र का आपस में गहरा रिश्ता है| कम उम्र के बच्चे के सिर पर जब भी उससे ज्यादा वजन रख देंगे, वह किसी न किसी बहाने गिरा देगा या उस बोझ से कुछ सामान निकाल कर अपना बोझ खुद हल्का कर लेगा| ज्यादा बोझ लेकर सौ में एक-दो बच्चा ही चलेगा| वह भी लम्बे समय तक नहीं| बोझ का मतलब और करीब से समझना हो तो उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी जिलों की यात्रा करिए और देखिए कि कैसे माँ-बहनें पीठ पर लकड़ी, घास के बड़े बड़े बोझ लेकर चलती हैं और 30 की उम्र की महिला 60 की लगती है| वजह यह है कि पहाड़ी पर चढना-उतरना और भारी बोझ| खान-पान उस स्तर का है नहीं| शरीर पर ज्यादातर समय बोझ ही होता है| यह कोई मामूली बात नहीं| यही बात बच्चों पर लागू होती है| बस्तों का यह बोझ बच्चों को कहीं कहीं परेशान कर रहा है और हम समझ नहीं पा रहे हैं... हम कोर्स की बात करें तो कोई भी बच्चा नर्सरी, केजी या कुछ और भी नाम हो सकता है, वह क्या सीखता है| हिंदी, अंग्रेजी की वर्णमाला, सौ तक की गिनती, कुछ पहाड़ा, शहरों के नाम, न

म्हारी छोरियाँ छोरों से कम हैं के...रोको मत, उड़ने दो

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दिनेश पाठक मैं एक बच्ची से मिला, जो दिल्ली विश्वविद्यालय से इंग्लिश आनर्स कर रही है लेकिन कन्फ्यूज है कि आगे का करियर पाथ क्या चुने वह? कैसे आगे बढ़े? मैंने समझने का प्रयास किया तो पता यह चला कि यह बेटी शुरू से ही मेधावी है| कहीं कोई दिक्कत नहीं उसके जीवन में| घंटे भर बातचीत करने के बाद यह जरुर पता चला कि यह छात्रा आगे की पढ़ाई कहीं बाहर से करना चाहती है और उसके पिताजी चाहते हैं कि वह पढ़े जितना चाहे लेकिन देश में ही रहकर| विदेश न जाए| असल में बेटी माँ के साथ आई थी| लेकिन वह माँ के सामने बात नहीं करना चाहती थी| उसका मन रखने के लिए माँ को थोड़ी दूर बैठाने के बाद बातचीत शुरू की| तय हुआ कि यह बेटी इंग्लिश से ही मास्टर्स करेगी और फिर पीएचडी भी| किसी कॉलेज, विश्वविद्यालय में प्रोफ़ेसर बनेगी लेकिन उसकी मंजिल प्रोफ़ेसर बनना नहीं है| उसके मन में काउंसिलिंग को लेकर जद्दोजहद चल रहा है| मैंने अपनी समझ से उसे यह कहा कि सब कुछ दो चरण में करे| पहले चरण में प्रोफ़ेसर बनने का रास्ता साफ़ करे और फिर काउंसलिंग के बारे में सोचे| यह सब होने के बावजूद उसके चेहरे पर मैं ख़ुशी नहीं देख प् रहा था| उसने कहा भी