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Showing posts from August, 2018

अगर आपकी कहानी कोलकता की पारुल से मिलती है तो ये रहा समाधान

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दिनेश पाठक कोलकता से हैं पारुल| इस हफ्ते इन्हीं की चर्चा| उनकी समस्याओं और समाधान की बात| गरज यह कि आप भी पढ़ें और अगर ऐसा लगता है कि पारुल की कहानी आपसे मिलती-जुलती है तो आपके लिए यह एक रास्ता भी हो सकता है| पारुल विज्ञानं की स्टूडेंट हैं| उनके पास पोस्ट ग्रेजुएशन की दो डिग्री है| उन्होंने कम्प्यूटर सेंटर खोला, नहीं चला| कुछ इम्तहान दिए, सफलता नहीं मिली| शादी-शुदा पारुल को लगता है कि उन्होंने पति का पैसा खराब कर दिया| अब वे हर हाल में सब भरपाई करने के इरादे से केन्द्रीय लोक सेवा आयोग की परीक्षा देने का मन बना चुकी हैं| किताबें खरीद कर घर आ चुकी हैं| लेकिन पारुल फिर से दोराहे पर खड़ी हैं| पूछती है कि यह मेरे लिए अच्छा है या बुरा, मैं समझ नहीं पा रही हूँ| पारुल को हर हाल में एक अदद सरकारी नौकरी चाहिए, जिससे वे परिवार की मदद भी कर सकें और अपना खोया हुआ आत्मविश्वास भी वापस पा सकें| अपनी समस्या पारुल ने मुझे व्हाट्सएप पर लिखी है| उनकी टाइम लाइन बताती है कि पारुल मेहनत भी कर रही हैं क्योंकि देर रात तक जागकर पढ़ाई करना उनकी आदत में शुमार है| मैंने पारुल से यही कहा कि आप काबिल हैं| पढ़ा

इच्छा और जरूरत के बीच से ही निकलेगा खुशी का रास्ता

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दिनेश पाठक इच्छा और जरूरत के बीच से ही खुशी और गम का रास्ता निकलता है। ऐसा मैं नहीं, हमारे मनीषियों ने कहा है। इस बात को जब बच्चों की दृष्टि से देखें तो यह और महत्वपूर्ण हो जाती है। अगर हम अपने बच्चों में इच्छा और जरूरत को समझने की समझ पैदा करने की कोशिश शुरू से करें तो आगे का उनका जीवन बहुत आसान और खुशहाल हो जाएगा, ऐसा मैं बहुत भरोसे से कह पा रहा हूँ। अब आपके मन में यह सवाल उठ सकता है कि इच्छा और जरूरत के बीच के फर्क को बच्चों को समझाएं कैसे? आपके पास चाहे जितना पैसा हो या फिर आप कितने भी गरीब हों, बच्चों की जरूरतों का ध्यान हर हाल में रखा जाना चाहिए और दुनिया का हर माँ-बाप ऐसा करते भी हैं। इच्छाओं की पूर्ति जो माता-पिता करते हैं, वे आगे पश्चाताप करते हैं लेकिन तब चीजें उनके हाथ से निकल चुकी होती हैं। क्योंकि इच्छाएँ असीमित हैं और जरूरतें बहुत सीमित। अगर हमारे बच्चे को यह महसूस होता है कि थोड़ी सी जिद के बाद मम्मी-पापा उसकी कोई भी इच्छा पूरी कर देंगे और आपने ऐसा कर दिया तो तय मान लीजिए कि आप अपने बच्चे से आगे की खुशी छीन रहे हैं। वह आए दिन आपसे जिद करके अपनी हर इच्छा पूरी कर लेगा।

देश की मौजूदा शिक्षा व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की जरूरत

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दिनेश पाठक महँगी शिक्षा और गुणवत्तापरक शिक्षा में क्या फर्क है? लोग क्यों महँगी शिक्षा को ही गुणवत्तापरक शिक्षा मान रहे हैं? यह सवाल मेरे सामने एक नौजवान ने उछाला है| जो देश के लिए, समाज के लिए कुछ करना चाहता है| इन्हीं दो सवालों के बीच में उलझा यह नौजवान समझना चाहता है कि आखिर सच क्या है? और वह किसे सच माने? सवाल बहुत वाजिब है और मौजू भी| मेरा मानना है कि हर महंगा संस्थान जरुरी नहीं है कि वह गुणवत्तापरक शिक्षा दे पा रहा हो| लेकिन इससे पहले समझना जरुरी है कि आखिर गुणवत्तापरक शिक्षा है क्या? क्या स्कूल की बड़ी वाली वातानुकूलित बिल्डिंग, नित नए बदलते ड्रेस, जूते-मोज़े, रोज बदलते कापी-पेस्ट कोर्स के माध्यम से हम अपने बच्चों को गुणवत्तापरक शिक्षा दे सकते हैं या गुणवत्तापरक कोर्स से? मेरा जवाब होगा, गुणवत्तापरक कोर्स| बिल्डिंग कैसी भी हो| ड्रेस कैसा भी हो लेकिन अगर कोर्स अच्छा है, व्यावहारिक है, उन्हें पढ़ाने वाले शिक्षक अच्छे हैं तो बच्चों में गुणवत्तापरक कोर्स की समझ भी विकसित होगी और वे देश को चलाने की क्षमता भी रख सकेंगे| यह तभी हो पाएगा जब हम एक बड़े दायरे में सोचेंगे| बच्चों क

स्तन पान के लिए सप्ताह, दिवस या विज्ञापन की जरूरत क्यों?

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दिनेश पाठक आज स्तनपान की बात| विश्व स्वास्थ्य संगठन से लेकर सरकारें और ढेरों समाजसेवी संगठन इस मसले पर बात करते आ रहे हैं| अख़बारों में विज्ञापन, टीवी पर भी स्तनपान का प्रचार होते देखा जा रहा है| मैं प्रचार का विरोधी नहीं हूँ लेकिन समझने का प्रयास जरुर करता हूँ कि आखिर, इसके प्रचार की जरूरत क्यों पड़ी? निश्चित तौर पर कोई न कोई फीडबैक ऐसा होगा प्रचार करने, कराने वाली एजेंसियों के पास, तभी तो करोड़ों रुपए केवल इस मद में खर्च हो रहे हैं| आदि काल से यह स्थापित सच है और सर्वविदित है कि माँ का दूध बच्चे के लिए सर्वोत्तम उपहार है| मैं डॉक्टर नहीं हूँ लेकिन तजुर्बे के आधार पर कुछ तथ्य शेयर कर रहा हूँ| 1980 तक जो बच्चे पैदा हुए उनकी सेहत और उसके बाद पैदा हुए बच्चों की सेहत में जमीन-आसमान का अंतर है| गाँव और शहर के बच्चों में अक्सर फर्क देखा जा सकता है| पहले माँ बच्चे को दूध तब तक पिलाती थीं जब तक दूध बनता था| माँ को दूध बने, इसके लिए अतिरिक्त प्रयास किए जाते थे| खान-पान ठीक किया जाता था| नवजात बच्चे की माँ का ध्यान ससुराल से लेकर मायके तक रखे जाने की व्यवस्था थी| व्यवस्था अभी भी है लेकिन अ