खतरे में ढेंका, चकिया, जांता, ओखरी

सिल-बट्टा, जांता, चकिया, ओखरी, ढेंका. गाँव में हर घर की शोभा रही ये सभी चीजें भारी खतरे में हैं. इनकी रक्षा बहुत जरूरी है. ये हमें स्वस्थ तो रखती ही हैं, जेब में रखा पैसा भी बचाती हैं. इनके बचने से हमारे गाँव बचेंगे. हम सेहतमंद रहेंगे. खाने की चीजों के लिए कई बार हमें बाजार नहीं जाना होगा. ये सब हम तभी कर पाएंगे जब लोग क्या कहेंगे, के भय से बचेंगे. संभव है कि इनमें से कई नाम शहरी लोगों ने सुने भी न हों, पर इस बात में कोई शक नहीं कि गाँव के लोग इन सारी चीजों से भली-भांति परिचित हैं. ये सभी यन्त्र शहरी जिम के विकल्प बन सकते हैं. जिम में पैसा देकर मशीनों पर कसरत करते लोग देखे जा सकते हैं लेकिन इन देशी यंत्रों का इस्तेमाल कर हम न केवल अपने लिए खाने की चीजें तैयार कर सकते हैं बल्कि मुफ्त में अपनी सेहत भी ठीक रख सकते हैं.
मेरे गाँव में रामरती काकी, इद्दीशी चच्ची, रामदरस काका, चनई महरा, जोखू जैसे कई नाम हैं जो इन्हीं के सहारे स्वस्थ भी रहे और अपनी जरूरत भी पूरी कर लेते. बुजुर्गों द्वारा तैयार की गई इन सभी चीजों की खासियत यह है कि अनेक शुभ मौकों पर इनकी पूजा का प्रावधान है. शायद इसलिए ऐसा प्रावधान किया गया होगा क्योंकि ये हमें शुद्ध अन्न तो देते ही हैं, हमारी सेहत का भी ध्यान रखते हैं. इन सभी यंत्रों को एक साथ स्थापित करने के लिए एक कमरा ही पर्याप्त है. इनमें ढेंका और जनता एक जगह पर ही फिक्स किये जाते हैं और बाकी सभी उपकरण कहीं भी रखे जा सकते हैं या उपयोग में लाये जा सकते हैं. इन सारे उपकरणों को मैंने देखा है, महसूस किया है और चलाया भी है.
सिल-बट्टा 
सिल-बट्टा-पत्थरों से बने इस देशज यन्त्र से तो शहरी लोग भी वाकिफ हैं. क्योंकि अभी भी कई घरों में मिल जाता है. शायद इसलिए क्योंकि शुभ अवसरों पर होने वाली पूजा में भी इसकी जरूरत पड़ती है. इसका मूल काम दाल, सब्जी में पड़ने वाले मसालों की पिसाई करना है. गांवों में तो खैर इसे अभी रसोई से बाहर नहीं किया गया है. जिस घर में सिल बट्टे का इस्तेमाल होता है, वहां पिसे मसाले नहीं आते. खड़े मसाले खरीदकर आत हैं और उन्हें पीसकर ही दाल, सब्जी में डाला जाता है. तय है कि इसके बाद मिलावट की किसी भी आशंका से हम बच जाते हैं. क्योंकि बाजार में मिलावटखोरों की बाढ़ है, ऐसे में केवल सिल-बट्टा का इस्तेमाल कर हम अपने पूरे परिवार को मिलावटी मसालों से बचा सकते हैं. इसका सीधा असर हमारी सेहत पर सकारात्मक रूप से पड़ेगा. और जो इन मसलों की पिसाई करेगा, उसकी दोनों कलाई मजबूत रहेगी. 20 सदस्यों वाले परिवार के लिए मसाला पीसने में अधिकतम 20 मिनट ही लगेंगे.

ऊपर वाली फोटो जांता और नीचे ढेंका की प्रतिकृति है 

जांता- यह भी पत्थरों से ही बना यन्त्र है. लेकिन अब तो गांवों से भी गुम हो रहा है. तो शहरों में होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती. यह देशी आटा चक्की है, जिसे प्रायः हमारी माएं चलाती थी. यह देशी चक्की सुबह चला करती. अपनी जरूरत का शुद्ध आटा घर में ही बन जाता. मिलावट की कोई भी आशंका यहाँ भी ख़त्म हो जाती है. इससे ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि रामरती काकी या इद्दीशी चच्ची की सेहत इसलिए ठीक रही क्योंकि रोज इस देशी मशीन पर इनकी कसरत भी होती और घर के लिए शुद्ध आता भी मिल जाता. जांता चलने वाली किसी भी महिला की सेहत ख़राब होने की सम्भावना लगभग नहीं के बराबर होती. कमर, पेट, बांह और गर्दन की कसरत इसके जरिये बेहद आसान है. जांता दो लोग मिलकर भी चला सकते हैं.
चकिया- यह भी जांता का छोटा भाई है. दाल निकालने के काम में आता है. वह चाहे अरहर हो या फिर मूंग, मसूर हो या फिर चना, मटर. सभी की दाल बनाने में इस देशी यन्त्र को महारथ हासिल है. इसके इस्तेमाल से हमारी कलाइयों, आँखों और बांहों की कसरत हो जाती है.

ओखरी या ओखली 
ओखरी या ओखली- यह यन्त्र धान से चावल, चूड़ा, दाल की सफाई आदि के काम आता है. अगर दो-चार किलो धन से चावल बनाना हो तो इसे इस्तेमाल किया जा सकता है. यह कमर, कलाई, आँख आदि की कसरत में मददगार है. इसकी भी पूजा शादी-विवाह जैसे शुभ अवसरों पर की जाती है.

ढेंका चलाती महिलाएं 


ढेंका- यह भी ओखरी का बड़ा स्वरुप है. ओखरी जिस काम में आती है व सारे काम इससे भी हो सकते हैं. ढेंका का इस्तेमाल ज्यादा चावल बनाने के लिए काम आता है. इसके इस्तेमाल में कम से कम दो लोगों की जरूरत पड़ती है. गाँव में प्रायः महिला अनाज सहेज रही होती है. दूसरे छोर से पुरुष या महिला चलाते हैं. दूसरे छोर पर मौजूद पुरुष या महिला के पैरों की कसरत होती है. मांसपेशियां मजबूत होती हैं तथा अनाज सहेजने वाले पुरुष या महिला की आँख की कसरत हो जाती है. 

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