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Showing posts from January, 2016

ये जिंदगी ऐसी ही है रूबी

प्रिय रूबी आज मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ. अपने रिश्ते के बारे में. तुम समझने का प्रयास जरूर करना. वक्त से ज्यादा और समय से पहले कुछ नहीं मिलता. हमारे बुजुर्गों ने काफी तजुर्बे के बाद ये लाइन कही होगी जो आज कहावत सी हो चली है. असल में तुम्हारी नाराजगी, गुस्सा इसलिए कि तुम इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती हो. तुम मुझ पर भरोसा भी नहीं करती हो. तुम्हारे पास जो है, उससे ख़ुशी तुम्हें मिलती नहीं जो नहीं है उसके पीछे भागती दिखती हो. बेहतर हो कि जो तुम्हारे पास है उससे खुश रहो. मुझे भरोसा है कि वह भी मिल जाएगा जो तुम चाहती हो. तुम एक बेहतरीन इंसान हो. पत्नी हो. दोस्त हो. माँ हो. मुझे लगता है कि तुम्हारे बिना हमारा जीवन चलेगा ही नहीं. तुमने हमें लाचार बना दिया है अपने प्यार से. खाने के स्वाद से. अपने प्रबंधन से. तुम इस बात पर तो भरोसा करोगी ही कि पंचतारा की पार्टियों में परोसे जाने वाले भोजन भी मुझे इसलिए पसंद नहीं आते क्योंकि तुम्हारे हाथों से बने खाने में जो स्वाद है, वह कहीं है ही नहीं. घर को जैसा तुम सहेज लेती हो, ऐसी मुझे कोई नारी दिखी ही नहीं. जब भी मैं संकट में आया, तुम समाधान बनकर सा

खतरे में ढेंका, चकिया, जांता, ओखरी

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सिल-बट्टा, जांता, चकिया, ओखरी, ढेंका. गाँव में हर घर की शोभा रही ये सभी चीजें भारी खतरे में हैं. इनकी रक्षा बहुत जरूरी है. ये हमें स्वस्थ तो रखती ही हैं, जेब में रखा पैसा भी बचाती हैं. इनके बचने से हमारे गाँव बचेंगे. हम सेहतमंद रहेंगे. खाने की चीजों के लिए कई बार हमें बाजार नहीं जाना होगा. ये सब हम तभी कर पाएंगे जब लोग क्या कहेंगे, के भय से बचेंगे. संभव है कि इनमें से कई नाम शहरी लोगों ने सुने भी न हों, पर इस बात में कोई शक नहीं कि गाँव के लोग इन सारी चीजों से भली-भांति परिचित हैं. ये सभी यन्त्र शहरी जिम के विकल्प बन सकते हैं. जिम में पैसा देकर मशीनों पर कसरत करते लोग देखे जा सकते हैं लेकिन इन देशी यंत्रों का इस्तेमाल कर हम न केवल अपने लिए खाने की चीजें तैयार कर सकते हैं बल्कि मुफ्त में अपनी सेहत भी ठीक रख सकते हैं. मेरे गाँव में रामरती काकी, इद्दीशी चच्ची, रामदरस काका, चनई महरा, जोखू जैसे कई नाम हैं जो इन्हीं के सहारे स्वस्थ भी रहे और अपनी जरूरत भी पूरी कर लेते. बुजुर्गों द्वारा तैयार की गई इन सभी चीजों की खासियत यह है कि अनेक शुभ मौकों पर इनकी पूजा का प्रावधान है. शायद इसलिए ऐस

घराट बचाने के उपाय क्यों नहीं

घराट. नाम कुछ लोगों ने सुना जरूर होगा. कई के लिए नया हो सकता है. मेरे लिए भी नया था चार साल पहले तक. फिर मैं इस नाम और इसकी कला से परिचित हो गया. घराट उत्तराखंड में बहुतायत पाए जाते हैं. पर इनकी संख्या अब कम होती जा रही है. एक अनुमान के मुताबिक 14-15 हजार घराट ही इस समय बचे हैं. लेकिन एक समय था कि इस राज्य में इनकी संख्या 70 हजार के आसपास थी. तब इसका इस्तेमाल केवल पिसाई के लिए किया जाता था. बाद में इनसे बिजली भी बनने लगी. मैंने पहली दफा घराट पर्यावरणविद पद्मश्री अनिल जोशी के आश्रम में देखा. यह देहरादून से सटे हेस्को गाँव में है. इस घराट को पानी आश्रम के बगल से बहने वाली एक छोटी सी नदी से मिलता है. यह पानी आश्रम में आकर बिजली बनाता है फिर वापस नदी में चला जाता है. यहाँ प्रतिदिन ढाई किलोवाट बिजली का उत्पादन होता है. इस आश्रम में पर्यावरण की रक्षा के लिए बहुत कुछ है लेकिन आज केवल घराट की बात. जोशी जी ने देहरादून शहर में जीएमएस रोड पर भी दो छोटी परियोजनाएं लगा रखी हैं. दोनों मिलाकर 3.5 किलोवाट बिजली उत्पादन करती हैं. यहाँ घराट का असली काम अनाज पिसाई का भी होता है. यहाँ पानी की आपूर्ति

स्मार्ट सिटी के फैसले से खफा हुए पंडित जी

मोदी भक्त पंडित जी का गुस्सा आज देखने लायक था. वे केंद्र सरकार के स्मार्ट सिटी के फैसले से खफा दिखे. मोहल्ले में नुक्कड़ वाली पान की दुकान से किमाम लगा पान चबाते हुए बोले-अरे भाई माना कि अभी 20 ही स्मार्ट सिटी बनानी थी. इन्हें हिसाब से बांटते. ये तो कहीं हनी-हना, कहीं मुठी चना, कहीं उहो मना, वाली कहावत चरितार्थ कर दी. पिद्दी भर का गुजरात दो शहर, राजस्थान दो शहर, मध्य प्रदेश तीन और उत्तर प्रदेश को लेमनचूस. अरे भाई, इस राज्य ने 80 में से 73 सांसद दिए आप को. गुजरात से आने के बावजूद आप को भी जिताकर भेजा. अगले साल विधान सभा चुनाव है. सरकार बनाने का सपना भाजपा देख रही है उत्तर प्रदेश में. एक नहीं, अनेक कारण है इस राज्य को स्मार्ट सिटी देने के. पान की गुमटी के सामने खड़े लोगों ने हाँ में हाँ मिलाई तो पंडित जी और उत्साहित हुए. बोले-लगता है मेरी पार्टी को शहरी मतदाता अपनी जेब में दिखता है. अन्यथा, कोई कारण नहीं था कि दो-चार शहर हमारे नहीं होते. ऐसा हो जाता तो कम से कम शहरी सीटों पर दावेदारी और मजबूत हो जाती. पर, कौन समझाए इन महानुभावों को. मेरी तो कोई सुनता भी नहीं. जब जनता जवाब देगी तो समझ

हम आसानी से बचा सकते हैं अपने गाँव के तालाब-पोखर

आज बुंदेलखंड के सभी जिलों से आई महिलाओं, नौजवानों, बुजुर्गों के साथ कुछ देर गुजारने का वक्त मिला. चर्चा का विषय गांवों में जल संकट था. बातें सिंचाई के साधनों पर हुईं तो गंभीर चर्चा पीने के पानी को लेकर हुई. इस मौके पर जल पुरुष राजेंद्र सिंह ने बुंदेलखंड के तालाबों, पोखरों को बचाने की बात की. जब माइक पर वे अपनी बात रख रहे थे तो मैं बरबस ही बचपन में खो गया. यह भी विश्वास जागा कि अगर हम अपने पुरखों की विरासत को संजो लें तो निश्चित तौर पर तालाब-पोखरों को हम बचा लेंगे. मेरे अपने गाँव के उत्तर एक छोटा सा तालाब (हम इसे गड़ही कहते थे) था. बारिश के दिनों में पूरे गाँव का पानी इसी में आता. हाँ, नाली-नाबदान का पानी पूरा गाँव रोक लेता था. वह नहीं आने पाता था इसमें. कई बार बड़ों को भी नहाते देखा है मैंने. इसमें केवल गर्मी में पानी की कमी होती थी. बाकी दिन पानी का संकट नहीं होता था. गाँव के जानवर यहाँ नहाते, आसपास के खेतों की सिंचाई होती. शौच के लिए भी इसके किनारों का इस्तेमाल लोग करते. हमारे स्कूलों में गर्मी की छुट्टियाँ होतीं तब तक इस गड़ही में पानी कम हो जाता. गाँव भर के बड़े बच्चे एक दिन एक राय

आप भी जानिए किसकी नजर लगी मेरे गाँव पर

मेरे गाँव में तीन भाइयों का एक बड़ा सा परिवार था. उतना ही बड़ा मकान भी. गाँव में और आसपास लोग बड़ी इज्जत देते थे पूरे परिवार को. बड़े भाई राजनीति में थे. देखा-देखी उनके एक और भाई राजनीति करने लगे और विरोधी पार्टी ज्वाइन कर ली. कुछ दिन तक तो गाँव और घर के लोग खुश थे. कारण एक घर में ही दो पार्टियों के नेता. सोच यह कि सरकार किसी की बनेगी, अपनी तो बल्ले-बल्ले. बस इसी ख़ुशी में पूरा गाँव मस्त था. अब थाना-पुलिस, लेखपाल-पटवारी का भी कोई चक्कर नहीं. सब खुश थे. समय आगे बढ़ा और खुशियों को नजर लगने लगी. देखते-देखते आँगन में दीवारें खिंच गईं. जिस आँगन में एक साथ दो सौ से ज्यादा आदमी बैठकर भोजन कर लेते थे, अब वह वीरान लगने लगा. क्योंकि दो भाई राजनीति के चक्कर में एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए तो तीसरा संकट में खुद ही आ गया क्योंकि उसके लिए तो दोनों बड़े थे. उनके हर फैसले में वह साथ होता. नतीजा, अब बड़ा सा आँगन तीन हिस्सों में बंट चुका था. भाइयों के अलग होने के बाद गाँव वाले भी खण्ड-खण्ड हो गए. जिस गाँव में प्रधान निर्विरोध ही चुना जाता था, वहाँ अब कई नामांकन होने लगे. जिस गाँव में पुलिस को आने के  मौ

गणतंत्र से जुड़े पांच विडियो खास आप के लिए

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इस गणतंत्र दिवस मैं अपनी कोई बात नहीं रखूंगा. लेकिन आप के लिए कुछ खास विडियो पेश है. आप देखें और देशभक्ति से लबरेज हों. मैं यह भी चाहूँगा कि अपनी राय भी दें. मेरा उत्साह बर्धन होगा. मैं इंतजार करूंगा. फ़िलहाल आप ये विडियो देखिये. Video Courtesy- Raabta - Shortfilmwala Jana Gana Mana - The Sports Heroes Are We Patriotic - RJ Sukriti (Radio Mirchi) The Other Indian - Old Delhi Films Faqr Hai - Postpickle

जब पंडित जी मीडिया वालों पर भड़के

पंडित जी आज बहुत गुस्से में दिखे. वे मीडिया पर बरस रहे थे. बोले-बड़ी मुश्किल से जान छूटी थी असहिष्णुता-सहिष्णुता से. लोग फिर शुरू हो गए. ताजा विवाद करण जौहर, कजोल को लेकर उठा है. मेरे गाँव में तो रोज सुबह-शाम नहर पुलिया पर असहिष्णुता-सहिष्णुता की ऐसी-तैसी की जाती है. इस मुद्दे पर अपने गाँव में आजादी के बाद से लगातार बहस चल रही है. उम्मीद है कि आगे भी ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा. बोले - 90 बरस का हो गया हूँ. पिता जी ने उस ज़माने में दिल्ली भेजकर पढ़ाया-लिखाया. फिर नौकरी मिल गई. प्रोफ़ेसर बना. बीते 30 बरस से गाँव में रहकर जीवन का आनंद उठा रहा हूँ. कोई दिक्कत-परेशानी नहीं आई. जिस विषय पर बात करने का मन करता है, जी खोलकर करता हूँ. गाँव के लोग भी इस बहस में शामिल होते हैं. आनंद उठा रहे हैं. पर, सहिष्णुता-असहिष्णुता नाम की चीज हमारे यहाँ नहीं दिखाई देती. न ही कभी कोई मीडिया वाला आया, न ही कोई विवाद हुआ कभी. पर, जैसे ही कोई सेलिब्रेटी कहीं मिला, ये मीडिया वाले उसके मुंह में माइक डाल देंगे और वही सवाल पूछेंगे, जो उन्हें पूछना होगा. वह बेचारा चाहे जितनी बेहतरीन बातचीत कर ले, ये दिखाएंगे वही जो

स्कूल, मदरसों को धर्म के नाम पर मत बांटों भाई

स्कूल, मदरसा, कालेज, विश्वविद्यालय. ये सब तालीम यानी शिक्षा हासिल करने के स्थान हैं. वह चाहे हिन्दू नौजवान हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई. सामान्य तौर पर ऐसे किसी भी संस्थान में हर जाति-धर्म का नौजवान प्रवेश ले सकता है. अपनी पढाई पूरी करने के बाद वह तरक्की के रास्ते पर चलते हुए देश का नाम रोशन करता है. फिर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मस्जिद, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मंदिर, मिशनरी संस्थाओं में प्रभु ईशु के लिए खास जगह क्यों? जबकि ये कण-कण में विराजमान बताये जाते हैं. यह बात तब और अहम् हो जाती है जब हर धर्म में व्यवस्था है कि बिना मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या गिरिजाघर के हम अपने भगवान, अल्लाह, वाहे गुरु या फिर प्रभु ईशु को याद कर सकते हैं. पूज सकते हैं.    अपनी बात को ठीक ढंग से कहने से पहले मैं साफ करना चाहता हूँ कि मैं हिन्दू हूँ और ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ हूँ, लेकिन किसी भी अन्य धर्म का विरोधी नहीं हूँ. बल्कि आदर करता हूँ सभी धर्मों का. हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है. ऐसे में किसी भी स्कूल, मदरसा, कालेज या विश्वविद्यालय में धार्मिक स्थल का होना मेरी नजर में उचित नहीं. य

क्या देश वाकई तरक्की कर रहा

आबादी बढती गई. खेत घटते गए. किसान भी घटे. शहरीकरण बढ़ा. और हम मुगालते में जी रहे हैं कि देश तरक्की कर रहा. आज का सच यह है कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में खेती-किसानी की भूमिका कम हो गई. वर्ष 1950-51 में जीडीपी में कृषि का योगदान जहाँ 55 फ़ीसदी था, आज सिर्फ 15 फ़ीसदी ही रह गया है. तब कृषि पर निर्भर लोगों की आबादी सिर्फ 24 करोड़ थी आज लगभग 70-75 करोड़ हो गई है. सरकारी दस्तावेजों में भले ही खेती की तरक्की हुई हो लेकिन लगातार किसानों की आत्महत्याएं गवाह हैं कि खेती अब इनके लिए फायदे का सौदा नहीं रहा. अगर होता तो वर्ष 1995-2011 के बीच 7.50 लाख किसान ख़ुदकुशी नहीं करते. ये आंकड़े सरकारी दस्तावेजों में दर्ज हैं. जानकारों का मानना है कि असल तादाद इससे कहीं ज्यादा है. खेती पर निर्भर लोगों की आमदनी में लगातार कमी की वजह से शहरों की ओर पलायन तेज हो चला है. वर्ष 2011 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि बीते एक दशक में 90 लाख किसान कम हुए हैं. बड़ी संख्या में छोटे किसान अब मजदूर बन गए हैं. असल में राजनीतिक पार्टियों ने किसानों को केवल वोट की मशीन समझा. इस वजह से ये भयावह हालत बने हैं. हमारे देश में बिना ख

इस ऑनलाइन सिस्टम से तो ऑफ लाइन ही बेहतर

स्टार्ट अप इंडिया के शोर के बीच मैं पूरी विनम्रता से अपने एक मित्र की भोगी हुई कहानी बयाँ कर रहा हूँ. इस कहानी का सच 24 कैरट सोने जैसा है. उन्हें सेल्स टैक्स विभाग में अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान का पंजीकरण कराना था. वे अपने दोस्त के जरिये विभाग के एक बड़े अधिकारी के पास पहुंचे. अधिकारी ने दो मातहत अफसरों को बुलाया और पंजीकरण के लिए जरूरी सभी कागजात की जानकारी देने को कहा. मातहतों ने अपने हाथ से लिखकर कागज का एक टुकड़ा दिया. तय समय पर वे सारे कागज लेकर पहुँच गए उन्हीं अधिकारी के पास जिन्होंने कागज की सूची सौंपी थी. उन्होंने पूंछा-सारे कागज लाये हैं. हाँ में सर हिलाने के बाद इस अफसर ने कहा लेकिन चालान नहीं लाये होंगे. मित्र ने जोर देकर कहा कि आप का कहा सारा कागज है. फिर इस अफसर ने किसी दूसरे कर्मचारी के पास भेजा. उसे ही सारे कागजात ऑनलाइन अपलोड करने थे. व्यवहार से बेहद विनम्र वे सज्जन बोले-सर, बिना चालान तो कंप्यूटर आगे ही नहीं बढ़ेगा. चालान कहाँ मिलेगा? पूछने पर उन्होंने बताया कि विभाग में तो फार्म ख़त्म हो गया है लेकिन आप को बाहर किसी भी दुकान पर मिल जाएगा. उसे भर कर बैंक में जमा कर दीज

बनाओ, तोड़ो, फिर बनाओ..बंद करो यह सिलसिला

दो दिन पहले दिल्ली में बीआरटी कारीडोर तोड़ने का शुभारम्भ एक समारोह में उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने किया। अब अगले दो महीने में पांच किलो मीटर इस बहुप्रचारित सड़क का नामोंनिशां मिटा दिया जाएगा। लगभग 150 करोड़ की लागत से डीटीसी की बसों के लिए खास तौर से बनी इस सड़क को तोड़ने में भी तीन करोड़ रुपये की लागत आने की सम्भावना है। आप नेताओं के मुताबिक 2008 में शुरू हुई इस सड़क पर हर साल 12-15 करोड़ रुपये मरम्मत में भी खर्च हुए हैं। मतलब, जनता की गाढ़ी कमाई का लगभग 250 करोड़ स्वाहा हो गया और नतीजा सिफर। ऐ सा कई बार हमने-आपने देखा है कि सरकारें पहले कुछ बनाती हैं फिर उसे तोड़ देती हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ भी इसका जबरदस्त नमूना है। मौजूदा सरकार हो या फिर पुरानी। सबने खूब बनाया और फिर पसंद नहीं आया तो तोड़ा भी। दो दिन पहले लखनऊ के लोहिया पार्क के बगल से गुजरना हुआ। वहां बड़े अरमानों से बने फुटपाथ को तोड़कर अब साइकिल ट्रैक बन रहा है। पूरे गोमतीनगर में इन दिनों सड़क के बीचोबीच बने नालों के ऊपर का हिस्सा तोड़कर उसकी दीवारें ऊँची की जा रही हैं। इन पर छत डालकर साइकिल ट्रैक बनेगा। इसी इलाके में पत्रकारपु

ख़ुदकुशी पर बंद हो राजनीति

ख़ुदकुशी पर राजनीति नहीं होनी चाहिए। वह चाहे दलित करे या फिर सवर्ण।  ख़ुदकुशी हमेशा तकलीफदेह होती है।  माता-पिता के लिए।  पति-पत्नी के लिए। भाई के लिए। दोस्तों के लिए।  नाते-रिश्तेदारों के लिए। गली-मोहल्ले वालों के लिए। पूरे समाज के लिए। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय में रोहित की ख़ुदकुशी के बाद जिस तरह देश भर की राजनीतिक पार्टियों ने बवाल मचाकर रखा है, उससे रोहित की वापसी नहीं होनी है।  उसके माता-पिता को बिना रोहित के ही आगे की जिंदगी काटनी होगी।   हालात भी गवाही दे रहे हैं कि रोहित मेधावी था। एक मेधावी का जाना देश के लिए भी दुर्भाग्यपूर्ण है और परिवार के लिए भी। ऐसे में जाँच उन हालातों की होनी चाहिए जिनकी वजह से रोहित ने ख़ुदकुशी की। विश्वविद्यालय प्रशासन की जिम्मेदारी है कि वह पुनरावृत्ति रोकने के लिए हर संभव कदम उठाये। उन लोगों को चिन्हित करे जिनकी वजह से एक मेधावी छात्र इस दुनिया से चला गया।  रोहित को इस हालत में पहुँचाने वालों को सजा जरूर मिलनी चाहिए।  अब जाँच चाहे पुलिस करे या फिर विश्वविद्यालय। भारत सरकार करे या फिर राज्य सरकार।  सबका प्रयास यही होना चाहिए कि दोषी या दोषियो

मेरा गाँव और खुशहाली

10वीं पास करने के बाद अपना गाँव छोड़ा था मैंने लेकिन आज 33 साल बाद भी गाँव की सारी यादें ताजा हैं. अभी भी गाँव मुझे खींचता है अपनी ओर और जब भी मौका मिलता है मैं पहुँच भी जाता हूँ. लोग डराते हैं कि गाँव में अब वह बात नहीं रही. राजनीति होने लगी है. अब वह प्यार भी नहीं है. सुनकर बहुत अजीब लगता है कि देश तरक्की कर रहा है और गाँव पिछड़ते जा रहे हैं. मुझे याद है अपना बचपन. मेरी माई कई बार नमक, आटा, चीनी जैसी छोटी-छोटी जरूरत की चीजें किसी के घर से मंगवा लिया करतीं या दे दिया करतीं. फिर ये चीजें वापस करने की परम्परा भी थी. इसका सबसे बड़ा फायदा यह था कि आधी रात अगर कोई मेहमान आ भी गया और घर में कोई सामान नहीं है तो चिंता किसी को नहीं होती. आज शहरों में कोई सोच भी नहीं सकता इस सामाजिक समरसता के बारे में. यहाँ तो लोगों की शान में बट्टा लग जाएगा. घर में नमक नहीं है तो या तो लेने जाना पड़ेगा या फिर बिना नमक भोज करना होगा. शादी-विवाह या अन्य अवसरों पर बिस्तर, चारपाई गाँव और आसपास से आता. भोजन बनाने के बर्तन भी आसानी से मिल जाते. खाना बनाने के लिए किसी हलवाई की जरूरत नहीं पड़ती. वह केवल मिठाई बनाने आत

मिशन 2017 : खुशहाली या खुशफहमियां

वर्ष 2016 उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के आमजन के लिए खुशियाँ लेकर आने वाला है। ये खुशियाँ असल में होंगी या खुशफहमी, यह आने वाला समय बताएगा। सच जो भी हो, राज्य सरकारें तत्पर दिखाई दे रही हैं क्योंकि उन्हें मिशन 2017 के तहत अगले साल सत्ता वापसी चाहिए और केंद्र सरकार इसलिए जोर लगा रही है क्योंकि वह दोनों ही राज्यों में सत्ता पाने को बेक़रार है। उत्तर प्रदेश की सत्ता भाजपा से लम्बे समय से रूठी हुई है, इसलिए उन्हें यह चाहिए और उत्तराखंड में उम्मीद इसलिए है कि राज्य बनने के बाद से ही दोनों दलों को बारी-बारी से   जनता चुनती आई है और फिर पछताती भी है। तीसरा विकल्प फ़िलहाल वहां है नहीं। ऐसे में यह रोचक साल है, जिसमें घोषणाएं तो खूब होंगी, पर पूरी कितनी होंगी, यह कोई नहीं जानता। न सरकारें और न ही जनता। उत्तर प्रदेश के सन्दर्भ में बसपा सबसे अहम है, क्योंकि वह हर हाल में मिशन 2017 फतह कर सत्ता में वापसी का जोर लगाये हुए है। हाँ, कांग्रेस की स्थिति जरूर साफ है-वह सत्ता की दौड़ में उत्तर प्रदेश में शामिल नहीं है।   अगर आज के अख़बारों पर ही नजर डालें तो उत्तर प्रदेश सरकार ने मिशन 2017 को ध्यान में रखते ह

विकास, चिट्ठी-पत्री, सच या झूठ

समाजवादी पार्टी से राज्यसभा सदस्य  प्रो. रामगोपाल यादव  ने फिरोजाबाद में चल रहे विकास कार्यों की गुणवत्ता पर सवाल उठाया है। उन्होंने पूरे मामले की जाँच के लिए अफसरों को लिखा भी है। अब वहां तैनात लोक निर्माण विभाग के अवर अभियंताओं ने सामूहिक तबादले मांगे हैं। उनका कहना है कि ठेकेदार इतने प्रभावशाली हैं कि वे विकास कार्यों की गुणवत्ता पर टोकाटाकी करने पर निपट लेने की धमकी देते हैं। कई ठेकेदारों ने तो बदसलूकी भी की है। इस लिखा-पढ़ी का जो होगा, वह तो बाद में पता चलेगा। पर सर्वविदित है कि यह फिरोजाबाद की अकेली कहानी नहीं है। हाल तो पूरे राज्य का कुछ ऐसा ही है। यह मामला इसलिए अहम् हो चला कि सत्ताधारी दल के कर्ता-धर्ताओं में से एक प्रोफ़ेसर साहब ने पत्र लिख दिया। वह भी शायद इसलिए क्योंकि उनका बेटा वहीँ से सांसद है। अभी उसकी जमीन तैयार होनी शेष है। और इसमें कोई बुरी बात भी नहीं। आखिर पिता बेटे की मदद नहीं करेंगे तो भला कौन करेगा। फिरोजाबाद के मतदाताओं ने उन्हें शायद जिताया भी इसलिए होगा कि वे सैफई का विकास देख रहे हैं। और यह एक ऐसी जगह है, जिसे देख किसी का मन ललचा जाये। स्वाभाविक है कि फिरोज