इतनी हाय-तौबा क्यों
अदालत ने एक आदेश क्या दिया, पूरी मीडिया जमात पड़ गई अफसरों-नेताओं के पीछे कि वे फ़ौरन अपने लाडले-लाडलियों को सरकारी स्कूल में दाखिल करा दें। कोई नहीं देख रहा कि ढेर सारा पैसा लगाकर बेचारों (माफ़ी चाहूंगा, ये भला कब से बेचारे हुए, ये तो शासक हैं शासक) ने अभी-अभी दाखिले कराये हैं नामी स्कूलों में।
आदेश आने के बाद बहुतेरे अधिकारी यह बताने से नहीं चूक रहे कि वे अमुक सरकारी स्कूल में पढ़कर ही अफसर बने हैं। तर्क यह भी कि जब समाज के हर तबके में गिरावट आई है तो सरकारी स्कूल और वहां के मास्टर भला कैसे बच सकते हैं। अब देखिये न, सरकारी तंत्र में काम लटकाने पर पीएचडी की जा सकती है। चाहे दफ्तर भारत सरकार का हो या फिर राज्य सरकार का। मेरे एक मिलने वाले हैं। बेचारे बड़ी मुश्किल से एक अदद घर का इंतजाम कर पाये। बेटे ने पासपोर्ट के लिए आवेदन किया। तय तारीख पर कागजात दे आया।
पुलिस जाँच के लिए थाने से फोन आया। मांगे गए कागज लेकर भी गया और सब दे आया। पर पासपोर्ट नहीं आया तो खोजबीन शुरू हुई। पता यह चला कि पुलिस रिपोर्ट में कहा गया है कि आवेदक दिए गए पते पर नहीं रहता। उसकी फोटो भी मैच नहीं कर रही। उपाय पूछते वक्त पासपोर्ट ऑफिस के एक सज्जन ने पूछा कि पैसे नहीं दिए थे क्या।
आवेदक ने कहा नहीं, उन्होंने माँगा भी नहीं। वे बोले अब दुबारा जाँच होगी। इस बार पैसे बिना मांगे ही दे देना। ठीक वैसा ही हुआ, पासपोर्ट आ गया। और वह नौजवान उड़ भी गया मामूली गिरावट के सहारे।
अब सामाजिक बीमारी के इलाज के लिए कोई डॉक्टर तो हैं नहीं। सबको मिलकर ही इलाज करना है। और हम सब एक विचार के तो हैं नहीं। तो अब तय यह करना जरूरी है कि गिरावट के मौसम में देश के भविष्य (लाडले-लाडलियों ) को ख़राब किया जाये या फिर उनके भविष्य को सुरक्षित करते हुए सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुधारने की दिशा में कदम उठाया जाये। सब लोग यही चाहेंगे कि नई पीढ़ी का भविष्य भी बचे और सरकारी स्कूल भी।
उसके लिए हम नेता-अफसर लगातार प्रयास कर रहे हैं। संसद से लेकर विधानसभा सदनों तक में कई बार मारपीट भी इन्हीं सुधारों के लिए किये जा रहे प्रयासों का नतीजा है। अब किसी भी बिगड़ी हुई व्यवस्था को ठीक करने में वक्त तो लगता ही है। ऐसा भी नहीं कि सरकारी स्कूलों का अतीत बेहतरीन न रहा हो। अब बीच में चीजें पटरी से उतर गई हैं तो फिर ठीक हो जाएँगी। इसके लिए इतनी हायतौबा तो नहीं मचाना चाहिए। आखिर हमारे लाडले भी इसी देश की सेवा करेंगे। पढाई वे कहीं से भी करें, क्या फर्क पड़ता है।
अब सामाजिक बीमारी के इलाज के लिए कोई डॉक्टर तो हैं नहीं। सबको मिलकर ही इलाज करना है। और हम सब एक विचार के तो हैं नहीं। तो अब तय यह करना जरूरी है कि गिरावट के मौसम में देश के भविष्य (लाडले-लाडलियों ) को ख़राब किया जाये या फिर उनके भविष्य को सुरक्षित करते हुए सरकारी स्कूलों की व्यवस्था सुधारने की दिशा में कदम उठाया जाये। सब लोग यही चाहेंगे कि नई पीढ़ी का भविष्य भी बचे और सरकारी स्कूल भी।
उसके लिए हम नेता-अफसर लगातार प्रयास कर रहे हैं। संसद से लेकर विधानसभा सदनों तक में कई बार मारपीट भी इन्हीं सुधारों के लिए किये जा रहे प्रयासों का नतीजा है। अब किसी भी बिगड़ी हुई व्यवस्था को ठीक करने में वक्त तो लगता ही है। ऐसा भी नहीं कि सरकारी स्कूलों का अतीत बेहतरीन न रहा हो। अब बीच में चीजें पटरी से उतर गई हैं तो फिर ठीक हो जाएँगी। इसके लिए इतनी हायतौबा तो नहीं मचाना चाहिए। आखिर हमारे लाडले भी इसी देश की सेवा करेंगे। पढाई वे कहीं से भी करें, क्या फर्क पड़ता है।
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