बनाओ, तोड़ो, फिर बनाओ..बंद करो यह सिलसिला

दो दिन पहले दिल्ली में बीआरटी कारीडोर तोड़ने का शुभारम्भ एक समारोह में उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया ने किया। अब अगले दो महीने में पांच किलो मीटर इस बहुप्रचारित सड़क का नामोंनिशां मिटा दिया जाएगा। लगभग 150 करोड़ की लागत से डीटीसी की बसों के लिए खास तौर से बनी इस सड़क को तोड़ने में भी तीन करोड़ रुपये की लागत आने की सम्भावना है। आप नेताओं के मुताबिक 2008 में शुरू हुई इस सड़क पर हर साल 12-15 करोड़ रुपये मरम्मत में भी खर्च हुए हैं। मतलब, जनता की गाढ़ी कमाई का लगभग 250 करोड़ स्वाहा हो गया और नतीजा सिफर।
सा कई बार हमने-आपने देखा है कि सरकारें पहले कुछ बनाती हैं फिर उसे तोड़ देती हैं। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ भी इसका जबरदस्त नमूना है। मौजूदा सरकार हो या फिर पुरानी। सबने खूब बनाया और फिर पसंद नहीं आया तो तोड़ा भी। दो दिन पहले लखनऊ के लोहिया पार्क के बगल से गुजरना हुआ। वहां बड़े अरमानों से बने फुटपाथ को तोड़कर अब साइकिल ट्रैक बन रहा है। पूरे गोमतीनगर में इन दिनों सड़क के बीचोबीच बने नालों के ऊपर का हिस्सा तोड़कर उसकी दीवारें ऊँची की जा रही हैं। इन पर छत डालकर साइकिल ट्रैक बनेगा। इसी इलाके में पत्रकारपुरम चौराहे पर पार्किंग की जगह भी साइकिल ट्रैक बन गए। अब इस नए बने ट्रैक पर न तो साइकिल चल रही है और न ही पार्किंग हो पा रही। नतीजा, बड़ी-बड़ी गाड़ियाँ सड़क पर खड़ी हो रही है। शाम को ट्रैफिक का बुरा हाल हो रहा है। अम्बेडकर स्मारक के बगल बना विपुल खण्ड का स्टेडियम, लखनऊ जेल, जेल के बगल का  मैदान (जहाँ लखनऊ महोत्सव लगा करता था) याद ही है सबको। मतलब बनाने-तोड़ने का यह सिलसिला क्या दिल्ली, क्या लखनऊ, लगभग हर शहर में जनता की गाढ़ी कमाई के पैसे का दुरुपयोग देखने को मिलता है। बीते महीने देहरादून में था। वहां एक फुट ओवरब्रिज देखा लेकिन चलने वाला कोई नहीं था। फिर लखनऊ में चारबाग, फैजाबाद रोड पर पालीटेक्निक चौराहे का फुट ओवरब्रिज याद आया, जिसे कोई इस्तेमाल करने को राजी नहीं है।सवाल यह है कि जिन निर्माणों का ये नेतानागरी विरोध करती है सत्ता में आने के साथ ही उसी तरह की गलतियाँ (माफ़ी चाहूँगा, राजा कभी गलती करते ही नहीं) करते दीखते हैं। चाहे केजरीवाल हों, हरीश रावत हों, अखिलेश यादव हों या मायावती। इस मामले में सब एक ही नाव पर सवार दिखते हैं। जनता के पैसे को अपना मानकर खर्च करने वाले ये भूल जाते हैं, कि जनता सब देख रही है। बीटीआर कारीडोर इसलिए तोड़ दिया जा रहा है क्योंकि चुनावी वायदा था। ऐसा आप नेता कह रहे हैं। अफसर हर शहर में साइकिल ट्रैक इसलिए बनवाये जा रहे हैं क्योंकि मुख्यमंत्री जी को ख़ुशी मिलेगी और उन्हें भी आर्थिक लाभ मिलना ही है। शायद इसी को कहते हैं आम के आम, गुठलियों के दाम। जितना बनेगा, टूटेगा फिर बनेगा, फायदा ठेकेदारों को होगा, इंजीनियरों को होगा, निर्माण से जुड़े अफसर भी किसी न किसी रूप से फायदे में ही रहेंगे। केंद्र सरकारें, पर्यावरणविद नदियों को निर्मल बनाने की वकालत करते आ रहे हैं। पैसा भी काफी खर्च हो रहा है। सिलसिला बरसों से कायम है। पर, गोमती नदी की गोद में इन दिनों चल रहे विकास कार्य से हो सकता है, खूबसूरती बढ़ जाये, पर गोमती तो नहीं बचने वाली। एक तो वैसे ही पानी का अकाल है इस नदी में। दूसरे एसटीपी काम नहीं कर हैं। नतीजा, जो पानी है वह भी गन्दा और बदबूदार। कितना बेहतर होता कि पहली लड़ाई नदी को नदी बनाने की होती, फिर किनारों के सुन्दरीकरण की। मुझे याद आता है, कई साल पहले नदी से गाद निकालने को मशीनें लगी थीं। पर, अभी सीमेंट, कंकरीट की जो गाद इस दुबली-पतली नदी में जा रही है, उसे निकलना किसी मशीन के बूते में भी नहीं रहेगा क्योंकि ये तब तक जमकर पत्थर हो चुके होंगे। बचे-खुचे पानी के स्रोत बंद हो जायेंगे। ऐसे में पूरी आशंका इस बात की है कि किनारे तो संभवतः बच जाएँ लेकिन नदी के मर जाने की पूरी-पूरी आशंका है। संभव है कि मेरी इस बात से अफसर सहमत न हों क्योंकि उन्होंने योजना बनाई है। पर, उन्हें या हम सबको यह नहीं भूलना होगा कि हर सिक्के के दो पहलू होते हैं। जो हमें शूट करता है वही देखते हैं। सरकारें, बड़े अफसरान का मूड भांप कर नीचे के अधिकारी योजनायें भी तैयार करने से नहीं चूकते।
असल सवाल यह है कि जनता के पैसे से जनता के लिए जुटाई जाने वाली ये सुविधाएं कितनी कारगर होंगी, इस पर जनता के मन में भी ढेरों सवाल है। पर वे उठायें कहाँ। कहें किससे। चारों ओर सन्नाटा है। आम जनता को चाहिए बिजली, पानी, सड़क, स्कूल-कालेज, अस्पताल, जनता के पैसे से जनता के लिए पहले ये बनें तो राजा की जय-जय ही होगी। ऐसा मुझे लगता है। जिस देश में भुखमरी, कुपोषण जैसे रोग कायम हैं, वहां बनाना, तोड़ना, फिर बनाना वाली प्रवृत्ति रोकनी चाहिए। पर ये वोटों के सौदागर जागें तब तो। क्योंकि हम-आप तो सो ही रहे हैं।    

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