स्कूल, मदरसों को धर्म के नाम पर मत बांटों भाई

स्कूल, मदरसा, कालेज, विश्वविद्यालय. ये सब तालीम यानी शिक्षा हासिल करने के स्थान हैं. वह चाहे हिन्दू नौजवान हों या मुसलमान, सिख हों या ईसाई. सामान्य तौर पर ऐसे किसी भी संस्थान में हर जाति-धर्म का नौजवान प्रवेश ले सकता है. अपनी पढाई पूरी करने के बाद वह तरक्की के रास्ते पर चलते हुए देश का नाम रोशन करता है. फिर अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मस्जिद, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में मंदिर, मिशनरी संस्थाओं में प्रभु ईशु के लिए खास जगह क्यों? जबकि ये कण-कण में विराजमान बताये जाते हैं. यह बात तब और अहम् हो जाती है जब हर धर्म में व्यवस्था है कि बिना मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे या गिरिजाघर के हम अपने भगवान, अल्लाह, वाहे गुरु या फिर प्रभु ईशु को याद कर सकते हैं. पूज सकते हैं.   
अपनी बात को ठीक ढंग से कहने से पहले मैं साफ करना चाहता हूँ कि मैं हिन्दू हूँ और ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ हूँ, लेकिन किसी भी अन्य धर्म का विरोधी नहीं हूँ. बल्कि आदर करता हूँ सभी धर्मों का. हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है. ऐसे में किसी भी स्कूल, मदरसा, कालेज या विश्वविद्यालय में धार्मिक स्थल का होना मेरी नजर में उचित नहीं. यहाँ केवल और केवल पढाई की बात होनी चाहिए. शोध होना चाहिए. ईश्वर-अल्लाह के लिए हमें अलग से समय निकलना चाहिए. मेरे मन में सवाल उठता है कि बीएचयू कैम्पस बने मंदिर या एएमयू में स्थापित मस्जिद की ओर देखकर दूसरे धर्मों के छात्रों के मन में कुछ तो विचार आते ही होंगे. और वह निश्चित तौर पर नकारात्मक होंगे या फिर उन्हें लगता होगा कि यहाँ उनका धर्मस्थल क्यों नहीं. पर, यह भी तो उचित बात नहीं होगी स्कूल, कालेज को धर्मस्थल बना दिया जाये. नेताओं ने तो वैसे भी इन्हें राजनीति का अखाड़ा बना दिया है. शायद ही कोई राजनीतिक दल होगा जिसका छात्र संगठन न हो. यह सब तब, जब इन परिसरों में दाखिला लेने वाले सभी छात्रों का उद्देश्य केवल पढाई होनी चाहिए. यद्यपि, बीएचयू कैम्पस में स्थापित विश्वनाथ मंदिर सभी के लिए है. यहाँ किसी के आने-जाने पर रोक नहीं है. अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय स्थित जामा मस्जिद भी बहुत पुरानी है और उसका इतिहास भी. निश्चित तौर पर ये दोनों ही स्थान हमारे धरोहर हैं. यह सवाल मेरे मन में इसलिए उठ रहा क्योंकि हम धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र हैं. पूरी दुनिया में हम अपने धर्मनिरपेक्ष होने का ढिंढोरा भी पीटते हैं. फिर ऐसा क्यों करते हैं हम?
मुझे याद आता है अपना बचपन. मेरे गाँव में एक पुरवा पूरा का पूरा मुसलमानों का है. हम वहां कई बार खेलते हुए पहुँच जाते. जिसके घर के अन्दर-बाहर खेल रहे होते, खाने के टाइम पर खाना खिला देता. मिठाई खिला देता. हम आराम से खा लेते. और घर लौटकर हम बता भी देते. कई मुस्लिम महिलाएं (जिन्हें हम चच्ची पुकारा करते थे ) मुझे गोद में उठा लिया करती. जब हम थोड़े बड़े हुए और अयोध्या में रहने लगे, तो कालेज से लौटते वक्त किसी भी मंदिर में दोस्तों के साथ घुस जाते और भंडारा खाते. हमारे साथ कई मुस्लिम सहपाठी भी होते थे उस ज़माने में. किसी भी मंदिर के महंथ ने नहीं पूंछा कि हममें से कौन मुस्लिम और कौन हिन्दू है. सब प्यार से भोजन कराते. कई बार दक्षिणा भी देते थे वे लोग. मुहर्रम के समय हमारे दरवाजे पर जिस दिन ताजिया आना होता. पूरे दरवाजे को गोबर से लीपा जाता. तख़्त रखे जाते. उनकी धुलाई होती. फिर ताजिया जुलूस आता. वहां ताजिया रखी जाती. माई धूप-अगरबत्ती हाथ में लेकर परिक्रमा करती. फिर गुड़, चावल, आटा, दाल जैसे उपलब्ध अनाज दिए जाते और ताजियेदार उसे लेकर ख़ुशी-ख़ुशी जाते. यद्यपि मुहर्रम गमी का त्योहार है.
यह बताने की जरूरत नहीं है कि देश को जाति-धर्म के नाम पर जोड़ने-तोड़ने का प्रयास किसने किया. आजादी के बाद कांग्रेस ने मुसलमान, दलित और सवर्णों के सहारे राजनीति की. धीरे-धीरे उसका तिलिस्म कम हुआ. जब पूरे देश में दलितों और मुसलमानों के वोट के लिए कई पार्टियाँ मैदान में आ गई. देश को सबसे ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाले उत्तर प्रदेश में जब से मायावती-कांशीराम ने दलित कार्ड खेला, मुलायम सिंह यादव ने मुसलमान और पिछड़ा वर्ग का कार्ड खेला, कहने की जरूरत नहीं है कि कांग्रेस का कहीं अता-पता नहीं है देश के इस सबसे बड़े राज्य में. कांग्रेस की रही-सही कसर भाजपा ने सवर्णों को अपनी ओर खींच कर तोड़ दी. उसने सवर्णों को मंदिर के नाम पर तोड़ लिया. अपने बचपन से लेकर कालेज और देश के राजनीतिक परिदृश्य पर नजर डालने के पीछे मंशा यह थी कि हम असली मुजरिम को पकड़ सकें. आप खुद ही समझ चुके होंगे कि यह नासूर हो चुका रोग है अपने देश में. अपने-अपने समय में जब जिसे मौका मिला, उसने वोट के नजरिये से अपना हित साधा. और हम सधते चले गए. अब राजनीतिक दल नौजवानों को यह कहकर बरगला रहे कि देश चलने के लिए छात्र राजनीति जरूरी है. बड़ी-बड़ी गाड़ी और भारी भीड़ उनके आकर्षण का केंद्र बनी हुई है. ऐसे में छात्र आसानी से राजनीति की ओर खिंचे चले आ रहे.  

पर, सवाल अभी भी मेरे मन में कायम है कि शिक्षा के मंदिरों को धर्म के नाम पर, जाति के नाम पर, वोट के नाम पर क्यों बाँट रहे हो भाई. 

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