आप भी जानिए किसकी नजर लगी मेरे गाँव पर

मेरे गाँव में तीन भाइयों का एक बड़ा सा परिवार था. उतना ही बड़ा मकान भी. गाँव में और आसपास लोग बड़ी इज्जत देते थे पूरे परिवार को. बड़े भाई राजनीति में थे. देखा-देखी उनके एक और भाई राजनीति करने लगे और विरोधी पार्टी ज्वाइन कर ली. कुछ दिन तक तो गाँव और घर के लोग खुश थे. कारण एक घर में ही दो पार्टियों के नेता. सोच यह कि सरकार किसी की बनेगी, अपनी तो बल्ले-बल्ले. बस इसी ख़ुशी में पूरा गाँव मस्त था. अब थाना-पुलिस, लेखपाल-पटवारी का भी कोई चक्कर नहीं. सब खुश थे.
समय आगे बढ़ा और खुशियों को नजर लगने लगी. देखते-देखते आँगन में दीवारें खिंच गईं. जिस आँगन में एक साथ दो सौ से ज्यादा आदमी बैठकर भोजन कर लेते थे, अब वह वीरान लगने लगा. क्योंकि दो भाई राजनीति के चक्कर में एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए तो तीसरा संकट में खुद ही आ गया क्योंकि उसके लिए तो दोनों बड़े थे. उनके हर फैसले में वह साथ होता. नतीजा, अब बड़ा सा आँगन तीन हिस्सों में बंट चुका था. भाइयों के अलग होने के बाद गाँव वाले भी खण्ड-खण्ड हो गए. जिस गाँव में प्रधान निर्विरोध ही चुना जाता था, वहाँ अब कई नामांकन होने लगे. जिस गाँव में पुलिस को आने के  मौके ही नहीं मिलते थे, वहाँ अब बूट की आवाजें आम हो गईं. इसे जागरूकता कहें या फिर पिछड़ापन, जो लोग एक साथ बैठकर लाई-चना का नाश्ता (नहारी) करते थे अब मुंह छिपाने लगे. थाना-चौकी में थोड़ी जान-पहचान के बाद लगे इतराने. लगा कि पूरी सत्ता अब उनके हाथ लग गई. गाँव में जो लोग दूसरों के खेत के सहारे हंसी-ख़ुशी जीवन चलाते थे, वे फांके मस्त रहने लगे. क्योंकि उन्हें अब काम करना पसंद नहीं था. जो समय वे खेतों में गुजारते, चौराहे पर गुजारने लगे. जिनकी गोद में खेले थे, डांटने पर उनके खिलाफ मुकदमा दर्ज करवाने में देर नहीं लगते. नतीजा, पूरा गाँव थाने, लेखपाल से उठकर अब कचहरी के चक्कर लगाने लगा. वकील साहेबान को फीस जाने लगी. अब तो इस छोटे से गाँव में शायद ही कोई पार्टी हो, जिसके कार्यकर्ता न हों, हर कार्यकर्ता अब अपनों को छोड़ दूसरों पर भरोसा करने लगा. पराये तो पराये ठहरे. उन्हें तो पैसा चाहिए. हर काम की दरें तय हैं. आमदनी का जरिया नहीं. अब पहले खेत गिरवी रखने का सिलसिला शुरू हुआ फिर बिकने लगे. देखते-देखते गाँव में सबसे ज्यादा खेत का मालिक भिखारी हो गया. क्योंकि राजनीति के चक्कर में प्रधान तक नहीं बन पाया लेकिन जुआ, शराब की लत ने उसकी सेहत ख़राब कर दी.     

मैं तब स्कूल-कालेज में था. देखते-देखते पूरा का पूरा गाँव तबाह हो गया. आज भी गाँव में छप्पर, खपड़े के मकान बहुतायत हैं. इक्का-दुक्का मकान नए ज़माने के हिसाब से बने हैं. मतलब छत है उनके सर पर. कमरों में प्लास्टर इसलिए नहीं हो पा रहा क्योंकि इस तीन सौ की आबादी के गाँव से हर रोज चार-पांच आदमी कचहरी जाने को अभिशप्त है. अब वकील की फीस, आने-जाने का किराया-भाड़ा, कुल मिलाकर छह-सात सौ खर्च. थोड़ी समझ बढ़ी तो मैं भी गाँव आने-जाने लगा. भांति-भांति से लोग मुझे भी लुभाने लगे. कोई इस नाम पर अपनी पार्टी की बातें करता कि मैं लखनऊ में हूँ. कोई यह मानकर कि मैं पत्रकार हूँ. तो कोई यह मानकर कि यह गाँव का पढ़ा-लिखा नौजवान है. कभी न कभी तो काम आएगा ही. शुरूआती दिनों में खूब खातिरदारी होती थी मेरी. फिर धीरे-धीरे लोगों की मोहब्बत मुझसे कम होने लगी. क्योंकि मैं किसी के बहकावे में नहीं आया. अलबत्ता, कुछ मुकदमे ख़त्म करने का प्रयास किया. भाईचारे की बात की. मिल जुलकर रहने की बातें की. जो कम ही लोगों को पसंद आईं. क्योंकि बीते 25-30 सालों में कड़वाहट इतनी बढ़ गई कि अब लोग एक-दूसरे का मुंह भी देखने से परहेज करने लगे. इतनी मेहनत-मशक्कत के बाद गाँव भर की उपलब्धि यह रही कि शांति प्रिय गाँव में मुकदमो की भरमार हो गई. एक-दूसरे के सुख-दुःख मिल बाँट ख़त्म करने वाले दूसरों का दुःख बढ़ने में यकीन करने लगे. राजनीति के इस सफ़र में कोई भी व्यक्ति चाहे वह किसी भी दल का हो संसद सदस्य, विधायक बनना तो दूर टिकट भी नहीं पा सका. प्रधानी का चुनाव हारने का रिकार्ड भी मेरे गाँव में ही है. क्योंकि जाति-धर्म और बंटवारे का जो बीज लोगों ने मिलकर रोपा है, वह अब वट वृक्ष बन चुका है. उसके नीचे अब पूरा का पूरा गाँव बौना नजर आ रहा है.   

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