हम आसानी से बचा सकते हैं अपने गाँव के तालाब-पोखर

आज बुंदेलखंड के सभी जिलों से आई महिलाओं, नौजवानों, बुजुर्गों के साथ कुछ देर गुजारने का वक्त मिला. चर्चा का विषय गांवों में जल संकट था. बातें सिंचाई के साधनों पर हुईं तो गंभीर चर्चा पीने के पानी को लेकर हुई. इस मौके पर जल पुरुष राजेंद्र सिंह ने बुंदेलखंड के तालाबों, पोखरों को बचाने की बात की. जब माइक पर वे अपनी बात रख रहे थे तो मैं बरबस ही बचपन में खो गया. यह भी विश्वास जागा कि अगर हम अपने पुरखों की विरासत को संजो लें तो निश्चित तौर पर तालाब-पोखरों को हम बचा लेंगे.
मेरे अपने गाँव के उत्तर एक छोटा सा तालाब (हम इसे गड़ही कहते थे) था. बारिश के दिनों में पूरे गाँव का पानी इसी में आता. हाँ, नाली-नाबदान का पानी पूरा गाँव रोक लेता था. वह नहीं आने पाता था इसमें. कई बार बड़ों को भी नहाते देखा है मैंने. इसमें केवल गर्मी में पानी की कमी होती थी. बाकी दिन पानी का संकट नहीं होता था. गाँव के जानवर यहाँ नहाते, आसपास के खेतों की सिंचाई होती. शौच के लिए भी इसके किनारों का इस्तेमाल लोग करते. हमारे स्कूलों में गर्मी की छुट्टियाँ होतीं तब तक इस गड़ही में पानी कम हो जाता. गाँव भर के बड़े बच्चे एक दिन एक राय से इसमें धावा बोलते और मछली मारते. इसमें वे लोग भी हाथ आजमाते, जो मछली नहीं खाते थे. हम बच्चा पार्टी भी इनमें शामिल होते. इस मछली मारने की प्रक्रिया के दौरान बचा-खुचा पानी भी ख़त्म हो जाता.
दो-चार दिन बाद फिर शुरू होती यहाँ से मिटटी निकालने की प्रक्रिया. घर के बड़े फावड़ा लेकर मिटटी निकालते. छोटे उसे लेकर अपने दरवाजे पर डालते. इसके कई फायदे होते थे. एक-बारिश के पहले दरवाजे पर नई मिटटी डाल दी जाती. इस तरह दरवाजा साफ-सुथरा दिखने लगता. दूसरा फायदा यह होता कि बारिश के दिनों में दरवाजे पर पानी नहीं ज़मने पाता. पूरा गाँव दरवाजे का ढाल ऐसा बनाता कि पानी लौटकर इसी गड़ही में पहुँच जाता. दरवाजा मतलब कोई छोटी-मोटी जगह नहीं. किसी भी संपन्न आदमी के दरवाजे पर 50-60 चारपाई बिछ जाना आम बात होती थी. तीसरा-मिटटी निकालने के बाद गड़ही फिर से गहरी हो जाती. उसमें ज्यादा पानी अपने पेट में रखने की क्षमता विकसित हो जाती. उस ज़माने में तो यह बात समझ नहीं आती थी लेकिन आज अगर वही प्रक्रिया अपना ली जाये तो कोई भी छोटा-मोटा तालाब रिचार्ज होने लगेगा. शायद हमारे बुजुर्गों ने इसीलिए यह व्यवस्था बनाई रही होगी. हमें सीखना होगा. बुंदेलखंड के सन्दर्भ में यह बात और मौजू हो जाती है. क्योंकि यहाँ राजाओं के बनाये ढेरों पक्के तालाब खंडहर में तब्दील हो गए हैं. अगर हम उन्हें संजो पायें तो काफी हद तक जल संकट से बचा जा सकता है. बुंदेलखंड के इस कार्यक्रम में शिरकत करते हुए जब जल पुरुष नाम से विख्यात राजेन्द्र सिंह जी ने तालाबों-पोखरों को बचाने की बात की तो मुझे बरबस बचपन याद आ गया और तालाबों-पोखरों को बचाने की अपने बुजुर्गों की जुगत भी याद आ गई.

इस जन सुनवाई के कार्यक्रम में जितने टेस्ट केस पढ़े गए, उनमें बड़ी संख्या में तालाबों-पोखरों की बर्बादी का जिक्र है. लगभग हर गाँव में तालाब-पोखरे हैं, जो आज प्रदूषित हो गए हैं. यहाँ सोचना जरूरी हो चला है कि इसमें प्रदूषण किसने फैलाया? जवाब साफ है कि सरकारों ने नहीं. इन तालाबों को ग्रामीण खुद ही बचा सकते हैं. बस गाँव का गन्दा पानी इसमें न जाने दें. जब पानी कम हो तो इसके पेट में मौजूद गाद निकलकर फेंक दें. बारिश के पानी को वापस इसमें आने का रास्ता दे दें. यह पानी संभव है की पीने लायक न हो पाए लेकिन पशुओं के लिए ये मददगार हो सकता है. अगर ग्राम प्रधान राजनीतिक रंजिशों से इतर कुछ धन भी लगा दें तो कोई बुराई नहीं. ऐसा करके हम अपने गाँव की पानी की समस्या से काफी हद तक निजात पा लेंगे. अगर गाँव का तालाब रिचार्ज होता रहेगा तो यह भी तय है कि जलस्तर भी सुधरेगा. और गाँव में हैंडपंप लगाना आसान होगा. यह फार्मूला तो पूरे प्रदेश में ही नहीं, देश के किसी भी कोने में आजमाया जाये तो कम कर जाएगा. तो बुंदेलखंड के लोगों, अपने गाँव के पोखरे को तो बचा लो. फिर आसपास के लोगों को सीख मिलेगी. और वे भी अपने गाँव में यही प्रक्रिया अपना सकते हैं. तो शुरुआत कौन करेगा?

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