लखनऊ, अब तुम बदल गए हो मेरे दोस्त

अमां यार लखनऊ, तुम पुराने वाले तो रहे नहीं. बहुत बदल गए हो. तुम्हारे सामने ऐसी क्या मजबूरी आन पड़ी थी. जब मैं अमरीका जा रहा था तो तुमने वायदा किया था कि तुम ऊपर से चाहे जितने बदल जाओगे या फिर समय बदल देगा, लेकिन तुम्हारा दिल वैसे का वैसा ही रहेगा एकदम लखनवी. अदब, तहजीब, नजाकत, नफासत नहीं छोड़ोगे. पर, तुम वायदा खिलाफ निकले दोस्त. मुझे अफ़सोस है कि तुम पर गुंडे, लुच्चे, लफंगे सब हावी हो गए हैं.
अमेरिका में जब कभी हमारी भारत भूमि की बात जाति-धर्म के नाम पर बंटवारे को लेकर होती तो मैं गर्व से कहता कि देश में राजनीतिक कारणों से हालत जो भी बदल रहे हों पर हमारे लखनऊ में कुछ नहीं बदला. सब वैसा का वैसा ही है. पर अब लौटने के बाद मुझे ऐसा कहने के पहले आँखे चुरानी होंगी. क्योंकि नजर मिलाकर बात करने के लिए सच्चाई की जरूरत पड़ती है. दो दिन से तुम्हारी गलियों में हूँ. महोत्सव देखने पहुँच गया. धुल-गुबार, अव्यवस्था, चोरी, छेड़खानी, लूट सब देखने को मिला. पुलिस वाले भी जाने-अनजाने इसमें भागीदार दिखे. संभव है कि कुछ और सरकारी महकमे के लोग शामिल हों, पर वर्दी की वजह से पुलिस वालों का नाम ले रहा हूँ. महोत्सव की पार्किंग में घुसने में ही आधा घंटा से ज्यादा लग गया. वहाँ लिखा था साधारण पार्किंग. स्टैंड वाले ने जो परची दी उस पर कोई कीमत नहीं लिखी थी. निकलते वक्त एक मुस्टंडे ने 50 रुपये मांगे. मैंने दिया भी. कौन करता बखेड़ा, सब मिलकर एक-एक तमाचा भी रसीद करते तो मैं वहीँ का हो जाता. टिकट खिड़की पर अव्यवस्था का बोलबाला. अन्दर धूल-गुबार में लिपटी चाट-पकौड़ियाँ. फर्नीचर, दरियां, साड़ियाँ और भी न जाने क्या-क्या.साधारण पार्किंग से निकलते ही मुझे खास पार्किंग में जाने की मंशा हुई. सौ रुपये में पास का जुगाड़ किया. यह सीधे खास लोगों की पार्किंग तक ले गया. पैसा एक नहीं लगा. मेरे साथ चार लोग थे. टिकट का दाम वहाँ दिया 40 रूपया. यहाँ एक रुपये नहीं लगा. साधारण टिकट पर हम जहाँ नहीं पहुँच पाए, वहाँ रिश्वत के रूप में दिए सौ रुपये के इस खास पास से पहुँच गए. मुझे लगा कि ये तो अंधेरगर्दी है.
लखनऊ के गोमतीनगर में स्थित जनेश्वर मिश्र पार्क का एरिअल व्यू 
हमारे पुराने साथी वर्मा जी जनेश्वर मिश्र पार्क घुमाने ले गए. बड़ी सराहना की थी उन्होंने. पहुंचा तो गेट पर ही दोनों ओर भारी अव्यवस्था. फुटपाथ पर पुलिस चौकी के सामने ही ठेले लगे थे. सड़क किनारे भी उन्ही ठेले वालों का कब्ज़ा. उसके बाद दोनों ओर कार पार्क करके लोगबाग पार्क के अन्दर चले गए. ऐसे में जाम तो लगना ही था. किसी तरह से हम दोनों भी अन्दर पहुंचे तो लगा कि युवा सीएम ने शहर को एक बेहतरीन चीज दी है. पर घूमते-टहलते तुम्हारी असल पहचान गायब दिखी. जगह-जगह गन्दगी बिखरी दिखी. नई उम्र के लड़के जगह-जगह कुड़ियों को देखते रहे. फब्तियां भी सुनीं मैंने. सुबह अख़बार पढ़ते हुए एक खबर पर नजर पड़ी. हाकी खेलने दूसरे शहरों से आई बेटियों से शोहदों ने मैदान में ही बदसलूकी कर दी. एक लड़की ने केवल इसलिए ख़ुदकुशी कर ली कि उसे कोई छेड़ रहा था. तंग कर रहा था लेकिन न तो स्थानीय पुलिस सुन रही थी और न ही बहुप्रचारित 1090 वाली पुलिस. लूट, चोरी, सीनाजोरी, जमीन पर कब्जे, बलात्कार आम हो चले हैं. पुलिस का इकबाल भी नहीं दिख रहा. पहले एक सिपाही मोहल्ले में सीटी मारता तो हम सब घर के अन्दर घुस जाते. अब पूरी की पूरी पुलिस के घेरे को भी लोग तमाशबीन बने देखते दिख जाते हैं. नेताओं के इर्द-गिर्द घूमने वाली पुलिस से आम आदमी का भरोसा उठ गया है. सुना है कि कई छिछोरे भी विधान सभा में पहुँच गए है. शायद इसलिए तुम्हारी गलियों में चोर-लुटेरे बस गए हैं. चाहे नया लखनऊ हो या फिर पुराना. हर जगह पैसों की भूख तारी दिखी. सोचो जब दोस्त की सेहत खराब होने की खबर हमें मिलती और हम जाते थे उसे मिलने तो मुंह से यही निकलता-अमां सुना है कि दुश्मन की तबीयत नासाज है. मतलब हम दोस्त की तबीयत ख़राब सोच ही नहीं सकते थे. पर ये क्या, अब तो यहाँ शिया-सुन्नी, हिन्दू-मुस्लिम में बंट गया हमारा पुराना लखनऊ. सामने कोई कुछ कहे या न कहे, पर मन में अब वह उत्साह, उमंग नहीं. जिस किसी से मिला इन दिनों मैं, सबने की यही शिकायत. जीवनदायिनी गोमती का बुरा हाल करके रखा है सबने. अगर ऐसे ही रहा तो इस सदानीरा का तो अस्तित्व ही ख़त्म हो जाएगा.
मेरे प्यारे लखनऊ, कुछ करो. पहले समझाओ या निकाल भगाओ इन दुष्टों को, जो तुम्हारी साख पे बट्टा लगा रहे हैं. या फिर इन्हीं में से कुछ अच्छे लोगों से कहो कि वे आगे आयें और नजाकत, नफासत को बहाल करें. आमीन!
तुम्हारा बहुत पुराना दोस्त

पंडित 

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