राहुल बाबा से मुलाकात और सपने का टूटना

शनिवार शाम मेरी मुलाकात राहुल बाबा से हो गई. भड़के हुए थे. बोले-लोकतंत्र है. कहीं आने-जाने, बोलने पर पाबन्दी थोड़े है. हर आदमी अपना काम कर रहा है. मैं भी. आखिर पार्टी चलानी है. अपने वोट बैंक को सहेज कर रखना है. इसके लिए कुछ तो करना ही होगा. लोग समझते ही नहीं. न जाने क्यों इतनी गालियां सोशल मीडिया पर दी जा रही हैं मुझे. ये कोई बात नहीं हुई. मैंने किसी के काम में दखलंदाजी नहीं की, फिर मेरे काम में क्यों? मुझे क्या करना है, कैसे करना है, ये मैं ही तो तय करूंगा. और कोई थोड़े न तय करेगा. हाँ, माम जरूर मेरे काम में दखलंदाजी कर सकती हैं. क्योंकि वो मेरी माम भी हैं और पार्टी की भी सर्वेसर्वा. उनके अलावा किसी को यह हक़ भी नहीं है कि मेरे से सवाल पूछे या मेरे काम पर सवाल उठाये.
मैं तो डंके की चोट पर कहता हूँ कि मैं जेएनयू गया. इसमें क्या गलत किया. अब जो लोग देश विरोधी नारे लगा रहे हैं. पाकिस्तान के समर्थन में नारे लगा रहे हैं. हर घर में अफजल पैदा करने की बात कर रहे हैं. वे साधारण लोग तो हैं नहीं. आखिर जेएनयू परिसर में यह बात हुई है. जहाँ से ढेरों बुद्धिजीवी निकलते हैं. देश उनकी राय बड़े गौर से सुनता है. फिर मैं भला कैसे नहीं सुनता. उनके साथ कोई तो खड़ा होगा. लोकसभा में सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी होने के नाते मेरी जिम्मेदारी बनती है कि मैं इस मुद्दे पर कुछ बोलूं. नहीं बोलता हूँ तब मीडिया कहती है कि राहुल बाबा अमुक अहम् मुद्दे पर कुछ भी नहीं बोल रहे. अरे भाई, जरूरी नहीं है कि हर बात पर मैं बोलूं. पार्टी में इतने वरिष्ठ नेतागण हैं, वे भी कुछ न कुछ बोलते ही रहते हैं. प्रवक्ताओं की फ़ौज इसलिए थोड़े उतारी है कि हर छोटे-बड़े मुद्दे पर मैं ही बोलूं. मेरे बोलने के बाद एक लाइन खिंच जाती है. ऐसे लोग कुछ न कुछ अपने हिसाब से भी बोल देते हैं. हमें तो सबका ध्यान रखना है. चाहे पार्टी हो, देश हो या पार्टी के वरिष्ठ-कनिष्ठ नेतागण व् कार्यकर्ता. मुझे तो खास मुद्दों पर ही बोलना चाहिए, सो मैं वही करता हूँ. जेएनयू का मुद्दा साधारण नहीं है. बड़ी बात है. पर, न जाने लोगों को मेरी बात ख़राब क्यों लग रही है. अब देखिये न मरी हुई पार्टी के नेता येचुरी साहब भी तो इन लोगों के समर्थन में खड़े दिख रहे हैं. उन्होंने कहा है कि इस समय देश में इमरजेंसी से भी बदतर हालात हैं.
आखिर विपक्ष के कुछ धर्म हैं. यहाँ तो मैंने एक साथ दो काम कर लिए. विपक्ष धर्म की रक्षा की और अपने वोट बैंक की भी. असल में ये कोई विदेशी लोग तो हैं नहीं. अपने लोग हैं. इनके साथ देश को खड़ा होना चाहिए. सरकार ने भी तो अपना काम ठीक से नहीं किया. बड़ी मुश्किल से कुछ गिरफ्तारियां हुई. अब कानून के मुताबिक ठीक-ठाक कार्रवाई हो गई होती. पुलिस ने अपना काम ठीक से कर दिया होता तो कम से मुझे जेएनयू जाना नहीं पड़ता. फिर मैं पुलिस की बर्बरता पर बात करता. अब कार्रवाई में इतनी देर हुई तो मुझे जाना ही था. आखिर अपने ही लोग हैं. अपना बच्चा कोई गलत काम करता है तो उसे हम समझाते-बुझाते हैं. मेरी माम भी मेरे साथ ऐसा ही करती हैं. अभी भी जब-तब डांटती रहती हैं. नहीं मानने पर माता-पिता कई बार बच्चों की पिटाई भी करते हैं. यही सब करने तो मैं गया था.
कौन सा जुर्म कर दिया वहाँ जाकर. आप ही बताओ. आप तो पत्रकार हो? देश, समाज की समझ तो आप को भी है. मैंने कहा-आप अपनी जगह पर ठीक हो सकते हैं लेकिन देश के खिलाफ देश के अन्दर अपने लोग अगर नारे लगा रहे हैं तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की मांग आप को भी करनी थी. आप के पास मौका भी था. क्योंकि पुलिस ने कार्रवाई में काफी देर की. यह मामला आम नहीं था. देश के खिलाफ नारे, पाकिस्तान के समर्थन में नारे और घर-घर में अफजल पैदा करने के नारे लगाना साधारण घटना नहीं है. बोले-आप भी आम लोगों की तरह सोच रहे हो. फिर आप कहोगे कि इन लोगों को सीधे फांसी पर लटका देना चाहिए. नहीं-नहीं, मैंने ऐसा कब कहा. फांसी पर लटकाना या छोड़ देना इसके लिए तो हमारी न्यायपालिका है ही. वह अपना  काम ठीक से कर भी रही है. आप को भी तो याद होगा. आप के राज में कितनों को सलाखों के पीछे भेजा था हमारी न्यायपालिका ने. बड़ा भरोसा है लोगों का अदालतों पर. अब पब्लिक राजनीति और राजनेताओं पर भरोसा कम करती है और अदालतों पर ज्यादा. पहली बार मैं राहुल बाबा से मिला था. बातचीत बहुत बढ़िया चल रही थी. मन कर रहा था कि कुछ देर बातचीत और चले. राहुल बाबा की संगत कोई साधारण बात तो थी नहीं.  पर क्या करूँ. बेगम चीखीं और मेरी आँख खुल गई. तब इस मुलाकात को मैंने अपनी याददाश्त के आधार पर कलमबद्ध कर लिया. हाँ, लंतरानी बिलकुल नहीं है इसमें. बावजूद, अगर किसी का मन दुखी हो जाये तो अग्रिम माफ़ी चाहूँगा.  

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