क्या वाकई खतरे में है पत्रकारिता ?

सुबह फेसबुक खोला तो टेलीविजन समाचारों के कई चेहरों का एक गुलदस्ता नजर आया, जिन्हें भ्रष्ट, दलाल और भी न जाने क्या-क्या लिखा गया है. एक और पोस्ट देखी, जिसमें टेलीविजन पर जेएनयू विवाद के बाद उठे बवाल और उसकी कवरेज पर सवाल उठाया गया है. इस पोस्ट के मुताबिक, टेलीविजन पर इन दिनों शोर ज्यादा, समाचार-विचार कम है. पहली पोस्ट से मैं व्यक्तिगत तौर पर सहमत नहीं हूँ, क्योंकि मेरे पास कोई प्रमाण नहीं है लेकिन जिन साहब ने लिखा है, उनके पास निश्चित ही कुछ न कुछ ठोस होगा, तभी तो वे इतनी बड़ी बात कह गए. शोर वाली चर्चा से तो मैं भी सहमत नहीं हूँ, एक दर्शक के रूप में. संभव है कि टीआरपी (जिसके पीछे भागना टेलीविजन प्रबंधन की मजबूरी है) के लिए ये सब जरूरी हो. लेकिन दर्शक अगर खफा हो गया तो ये टीआरपी नहीं मिलने वाली, इस सच से भी इनकार करना नादानी होगी. पहले तो एक-दो एंकर ही चीखते-चिल्लाते थे, लेकिन अब तो चलन सा हो गया है.
लेकिन एक सवाल मुझे जरूर परेशान कर रहा है, वह यह कि क्या वाकई पत्रकारिता खतरे में हैं? बड़ी संख्या में जवाब हाँ में ही मिलेगा. पर, क्यों हो रहा है ऐसा? कौन है इसके लिए जिम्मेदार? कैसे रुकेगी यह गिरावट? क्या वाकई पत्रकारिता से अब इस देश को कोई फायदा नहीं मिल रहा है? आदि-आदि..हमारे बुजुर्गों ने कहा है-आग होती है तभी धूंआ उठता है. इस कहावत में तनिक भी दम है तो कुछ न कुछ गड़बड़ जरूर है हमारे अन्दर. अगर कोई इनकार करेगा तो निश्चित ही यह सबसे बड़ा झूठ कहा जाएगा. ऐसे में ढेरों बेहतरीन चीजें करने वाली पत्रकारिता और पत्रकारों को नए सिरे से तो सोचना ही पड़ेगा. इसके लिए जरूरी कदम भी उठाने होंगे. लेकिन कई सच और भी हैं, जिसकी वजह से पत्रकारिता कठघरे में खड़ी नजर आती है. फिल्मों की भूमिका और पत्रकारों की पुरानी छवि भी इसके कारण हो सकते हैं. अभी भी पत्रकार नाम लेने के साथ ही पैर में टूटी-फटी चप्पल, बदरंग कुर्ता-पाजामा, गांधी झोला टांगे एक आकृति सामने आती है. जबकि यह अब गुजरे ज़माने की बात है. संपादक के रूप में सामान्य छवि बढ़ी दाढ़ी, कुर्ता-धोती, मोटे लेंस का चश्मा लगाये कोई अधेड़ दिखता है. जबकि सच का इससे कोई लेना-देना नहीं है. अब न तो कोई संपादक ऐसा दिखता है और न ही पत्रकारिता के अन्य साथी. मेरी तो फ़िल्मी दुनिया से गुजारिश है कि वे पत्रकारों की मौजूदा छवि को पेश करना शुरू करें. अन्यथा दिक्कतें और आने वाली हैं पत्रकारों के सामने.
अपने 23 वर्ष के पत्रकारीय जीवन के तजुर्बे के आधार पर मैं इतना कह सकता हूँ कि देश के सभी बड़े अख़बारों ने संपादक के रूप में 35-40 वर्ष के लोगों का चयन शुरू कर दिया है. वे स्मार्ट भी हैं और उनकी समझ भी ठीक-ठाक है. उन्हें पैसे भी इतने मिल जाते हैं कि आसानी से एक छोटा सा घर, एक गाड़ी और अपने बच्चों की स्कूल फीस का प्रबंध कर सकें. कुर्ता-पाजामा या कुर्ता-धोती वाले संपादक मैंने तो देखे नहीं अपने पत्रकारिता के अब तक के कार्यकाल में. आज भी ढेरों मामले समाज के सामने ऐसे हैं, जिसमें पत्रकारिता की बड़ी भूमिका है. बात चाहे निर्भया कांड की हो, तंदूर कांड हो, नितीश कटारा कांड या फिर मधुमिता हत्याकांड. सबमें मीडिया और पत्रकारों की भूमिका सराही गई है. इसके अलावा इलाकाई स्तर पर अखबारों की भूमिका कई बार सराही गई है. मेरे अपने जीवन में भी कई ऐसी घटनाएँ सामने आईं, जिसमें मुझे खुद के इस पेशे में होने पर गर्व हुआ. क्योंकि कहीं व्यक्ति की मदद में मैंने अपनी भूमिका तलाशी तो कहीं समाज की मदद से ही समाज की मदद कर पाया.
अभी यह जरूर कहना चाहूँगा कि जब पत्रकारिता कठघरे में खड़ी दिखती है तो तकलीफ मुझे भी कम नहीं होती. जबकि कुछ बातों के लिए तो मैं शपथ पत्र देने की स्थिति में हूँ. एक संपादक के रूप में मैंने हिंदुस्तान अखबार के लिए गोरखपुर. कानपुर, देहरादून, आगरा और इलाहाबाद जैसे शहरों में काम किया. बाकी छोटे और मझोले पदों पर लखनऊ में. लेकिन कभी भी मेरे किसी भी वरिष्ठ ने मुझे किसी भी काम को करने से नहीं रोका. हाँ, कई बार ऐसा जरूर हुआ कि जब मैं काफी तेज भागने की कोशिश करता तो आगे के खतरों की जानकारी वरिष्ठों ने जरूर दी. और वहाँ वे ठीक निकले. इतने लम्बे करियर में मुझे किसी ने रिश्वत भी नहीं ऑफर की. अगर मेरे पीछे भी कोई ऐसा दावा करता है तो वह निश्चित झूठ बोल रहा है.
मुझे लगता है कि पत्रकारिता इसलिए भी कठघरे में है क्योंकि हमारे बुजुर्गों ने इतने बड़े-ऊँचे मानदंड बना दिए हैं कि हमें उसी के अनुरूप परखा जाता है. उसी कसौटी पर कसा जाता है, जबकि हम भी इसी समाज के अंग हैं. यहीं की धूल, हवा खाकर पल-बढ़ रहे हैं. अगर गिरावट चहुंओर दिख रही है तो भला पत्रकारिता कैसे बचाएगी खुद को? राजनीति, नौकरशाही, व्यापार, क्या सबमें वही पुरानी बात है, शायद नहीं. यह कहते हुए मैं किसी भी तरह से पत्रकारिता में गिरावट की वकालत नहीं कर रहा हूँ. निश्चित तौर पर ऐसे पत्रकारों को कठघरे में खड़ा किया जाना चाहिए, चाहे वो कोई हो. किसी भी पद पर बैठा हो. लेकिन टेलीविजन पर ढेरों शोर, अख़बारों में विज्ञापन के दबाव के बावजूद मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं होता कि पत्रकारिता में अब भी बहुत कुछ बचा हुआ है. एक-दो-चार मछलियाँ अब पूरे तालाब को गन्दा नहीं कर सकती. पत्रकारों की संख्या का अनुमान लगाना इस समय बहुत मुश्किल है, क्योंकि दायरा बढ़ गया है. प्रिंट, रेडियो के बाद आये टेलीविजन ने तो तस्वीर बदली ही थी, अब वेब पत्रकारिता भी नए आयाम जोड़ेगी, ऐसा मेरा विश्वास है.
पत्रकारिता पर सवाल उठते हैं तो एक मजबूत संकेत यह भी मिलता है कि लोग जागरूक हैं. आप पर नजर लगाये हुए हैं, इसका दूसरा अर्थ यह भी हुआ कि पत्रकार जनसामान्य के जीवन में अभी भी स्थान रखते हैं. ढेरों कमियों, दुश्वारियों के बावजूद मुझे लगता है कि पत्रकारिता का जीवंत रहना जरूरी है. और इसके कठघरे में रहने से, सवाल-जवाब होने से, विचार-विमर्श से, पेशा निखरेगा ही, इसलिए पत्रकारों को अपने आचरण में सुधार तो लाना ही होगा..आमजन को भी सही को सही और गलत को ही गलत कहना होगा. विश्वास करना होगा कि अभी भी बड़ी संख्या में पत्रकार ऐसे हैं जो सुबह-शाम को ठीक से महसूस भी नहीं कर पाते. वे जब सो रहे होते हैं तो बच्चे स्कूल चले जाते हैं और जब वे आते हैं तो बच्चे सो चुके होते हैं. सुबह का अंदाजा उन्हें इसलिए नहीं होता क्योंकि वे नींद के आगोश में होते हैं और शाम वे इसलिए नहीं महसूस कर पाते क्योंकि दफ्तर में उस समय काम चरम पर होता है. ऐसे में मैं उन लोगों पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता जिनकी नजर में यह पेशा कठघरे में है लेकिन उनसे अनुरोध जरूर करना चाहूँगा, जो इस कठघरे को तोड़ सकें. पत्रकरिता की वही उज्जवल छवि पेश करने में मददगार साबित हों, जो हमारे वरिष्ठों-बुजुर्गों ने स्थापित की थी. आमीन...



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