बहुत हुआ, अब बंद करो आरक्षण का ये खेल

मेरे दोस्तों में हिन्दू, मुस्लिम, क्षत्रिय, वैश्य सब हैं. लिखते हुए असहज महसूस कर रहा हूँ, लेकिन सन्दर्भवश लिखने की मजबूरी है-मेरी मित्र-मंडली में पिछड़ी जाति, दलित और अन्य बिरादरी के लोग भी हैं. पर, मैंने उन्हें कभी किसी जाति-धर्म के आधार पर देखा ही नहीं, शायद उन्होंने भी नहीं. हम साथ-साथ उठते-बैठते. काम करते. खाते-पीते चले आ रहे हैं. हाँ, इनमें से कुछ ऐसे जरूर हैं कि यदा-कदा आरक्षण जैसे संवेदनशील मुद्दों पर भावुक हो जाते हैं. अब जब सरकार ने एक और आरक्षण देने का फैसला कर लिया है, तो कुछ सवाल मेरे जेहन में बरबस उठ रहे हैं.
आखिर यह सिलसिला कब बंद होगा? सरकार कब तक वोटों के लिए ऐसी जाहिलियत करती रहेगी? अनारक्षित श्रेणी के नौजवानों के हक़ पर कब तक डाका पड़ता रहेगा? उनकी ऊर्जा को कब तक हम आन्दोलनों में जलाते रहेंगे? तय है कि एक आग बुझेगी तो दूसरी लगेगी, फिर इस सिलसिले को बंद हम कब करेंगे? आखिर सरकारें क्यों कोई ठोस रास्ता नहीं तलाशती? क्यों नहीं सभी तरह के आरक्षण ख़त्म करके आर्थिक आधार पर आरक्षण की पालिसी लागू करने के बारे में सरकारें सोचतीं? जानता हूँ कि यह काम उनके लिए बहुत कठिन है. क्योंकि वोटों की फसल को कोई अपने सामने तो नहीं जलने देना चाहेगा. हर दल का अपना वोट बैंक होने का दावा है. वह सच में भी दिखता है. उदाहरण के रूप में अगर हम केंद्र में सत्तारूढ़ दल भाजपा को देखें, तो वह मानती है कि सवर्ण, व्यापारी, कुछ पिछड़ी जातियां उनके वोट बैंक है. कांग्रेस आज इसलिए गमजदा दिखाई देती है क्योंकि उसका दलित और मुस्लिम वोट बैंक कहीं और शिफ्ट हो गया. इतिहास गवाह है कि कांग्रेस ने हमेशा से मुस्लिम, दलित और सवर्णों के वोट पर ही राज किया. यही दूर हुए तो उसकी सत्ता हिलने में देर नहीं लगी. और इन्हीं का एक हिस्सा मुस्लिम समाजवादी पार्टी के साथ जुड़ा तो उत्तर प्रदेश में उसकी सरकार बनने लगी. उसी कांग्रेस का दलित वोट छिटक कर बहुजन समाज पार्टी के पास पहुंचा तो वह भी उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में सरकार बनाने लगी. यद्यपि, सपा और बसपा, दोनों ने ही अपने वोट बैंक में कुछ और लोगों को जोड़ा, तभी सरकार बनाने की स्थिति बनी. ऐसे में किसी भी दल के लिए आरक्षण की मौजूदा व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए हामी भरना नामुमकिन है, तब तक, जब तक सभी दल मिलकर वोट बैंक की राजनीति छोड़ें और देश के बारे में एकसाथ सोचना शुरू करें.
ऐसा करने का फौरी नुकसान भले किसी का हो, लेकिन आर्थिक आधार पर आरक्षण लागू होने से देश का नौजवान नई ऊर्जा से लबरेज होगा. उसके मन में जातीयता का जो जहर हमने बो रखा है, उसका असर भी धीरे-धीरे कम हो जाएगा. और अगर देश का नौजवान सही रास्ते पर चल पड़ा तो तय मानिये कि तरक्की की रफ़्तार और तेज होने से कोई नहीं रोक सकता. मुझे लगता है कि शायद यह सही समय भी है, क्योंकि आरक्षण को लेकर सर्वोच्च अदालत का रुख भी ठीक दिखता है. सर्वोच्च अदालत ने कुछ सोचकर ही प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त किया है. इसी कारण उत्तर प्रदेश में कई हजार कर्मचारी-अधिकारी प्रभावित हुए. यद्यपि मैं उन सभी साथियों के साथ हूँ, जिन्हें पदावनत होना पड़ा, लेकिन अब नियम-कानून का पालन तो सबको करना ही है. बहुत पुरानी बात है. मेरे एक मित्र को अखिल भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में कुल 1152 नंबर मिले लेकिन उन्हें बहुत नीचे का पद मिला. और उसी साल एक दलित नौजवान लगभग 700 अंक पाकर आईएएस बन गया. बीसियों साल पहले हुए इस हादसे की चर्चा मेरे मित्र अक्सर करते ही रहते हैं. उन्हें इसका गम आज भी है. मेरे सुपुत्र ने पांच साल पहले आईआईटी की तैयारी की. परिणाम आये तो उन्हें 208 अंक मिले और उनका चयन नहीं हुआ लेकिन उनके एक दूसरे साथी का सिर्फ सौ के आसपास अंक पाने पर सिलेक्शन हो गया. मेरा बेटा आज इंजीनियर है. देश के सबसे प्रतिष्ठित निजी संस्थानों में से एक में काम कर रहा है, पर जब आरक्षण की बात आती है तो भड़क जाता है. मेरी इस मुद्दे पर कई बार उससे तीखी बहस भी हो चुकी है, पर नौजवान है. उसके कई सवालों पर मैं निरुत्तर हो जाता हूँ. इस समय 49 फ़ीसदी आरक्षण इतना कम भी तो नहीं. हालाँकि, अभी यह साफ होना शेष है कि कल जाट समुदाय के नेताओं से हुई बातचीत में सरकार ने क्या वायदा किया, लेकिन आन्दोलन का रुख अगर नरम पड़ा है तो इसके संकेत तो साफ ही हैं. आगे क्या होगा, यह केवल सरकार तय करेगी, पर देश और अपनी सरकारों से मुझे यह अपील तो करनी ही है कि अगर आप देश को बचाना चाहते हो तो आरक्षण-आरक्षण खेलना बंद करो. नौजवानों को मेरिट पर नौकरियां दो. आरक्षण का लाभ केवल एक बार ही दो. आप जिस किसी समुदाय की मदद करना चाहते हो, उसके लिए अलग से पढ़ने-लिखने की व्यवस्था करो. लेकिन जातीयता का बीज बोना बंद करो...मैं यह भी जानता हूँ कि आप करोगे नहीं, फिर भी लिख इसलिए रहा हूँ ताकि सनद रहे. और वक्त-जरूरत काम आये. आप आन्दोलनों से होने वाले नुकसान का आंकलन करिए तो साफ हो जाएगा कि देश को बचाने के लिए राष्ट्रीय संपत्ति का बचना भी जरूरी है. यह कोई बात नहीं हुई, जब जिसकी मर्जी हुई, दो-चार हजार लोगों को लिया और सड़क पर आ गया. जितना बड़ा आन्दोलन, जितना अधिक नुकसान, शायद उतना ही जल्दी सुनवाई का फ़ॉर्मूला सरकारों ने बना रखा है....









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