गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-पांच / क्या संसार में हमारे लिए स्थान नहीं ?

एक आफत से अभी छुटकारा नहीं हुआ था, कि हमें दूसरी आफत के लक्षण दिखाई पड़ रहे हैं. दक्षिण अफ्रीका
के गोरे हमारे भाइयों पर जुल्म कर रहे हैं, और अब कनाडा वालों की बारी है. कनाडा में हमारे पांच-सात हजार भाई हैं. वे वहाँ मेहनत मजदूरी करके खुशहाल हो गए हैं. उनके पास धन है और जमीन भी. यह सुख है, लेकिन उनके दुःख का भी ठिकाना नहीं. उनके पास उनकी माताएं, बहिनें, स्त्रियाँ और पुत्रियाँ नहीं. वे वंचित हैं उस सुख से, उस शांति से, उस प्रेम से, जो स्त्रियाँ ही दे सकती हैं, और जिनका प्रभाव पुरुष के चरित्र को शुद्ध और उच्च बनाने में खास हिस्सा रखता है.
विद्यार्थी जी 

कनाडा में हिन्दुस्तानी स्त्रियाँ एक तरह से हैं ही नहीं. हिन्दुस्तानी पुरुषों के भी उस'पुण्य भूमि' पर पैर रखने में कितने ही अड़ंगे हैं. नए जाने वालों की तो बात दूर रही, जो हिन्दुस्तानी इस समय वहाँ हैं, उन्हें भी किसी तरह तंग करके निकल देने की चिंता में कनाडा के गोरे निवासी हैं. नए कानून की रचना की फिक्र हो रही है, लेकिन जब तक वह बने, तब तक भी कनाडा निवासियों ने चुपचाप बैठना उचित नहीं समझा है. कनाडा सरकार ने आज्ञा दे दी है कि मजदूर काफी तादाद में मौजूद हैं, आगामी मार्च तक कोई मजदूर इस देश में न आने पावे और मार्च तक ये लोग कोई न कोई कानून रच ही डालेंगे. मजदूरों की यह रोकथाम खास हिन्दुस्तानियों के लिए की गई है. चीनी और जापानी मजदूर तो कनाडा में इस आज्ञा के होते हुए भी जरूर जाएंगे, क्योंकि जापान सरकार और कनाडा सरकार में शर्त है कि जापानियों की एक नियत संख्या हर साल बिना रोक-टोक जाया करेगी, और चीनियों को एक खास कर देकर कनाडा प्रवेश की आज्ञा मिल जाने का बहुत दिनों से नियम चला आ रहा है. रहे बेचारे हिन्दुस्तानी, वे ही बट्टे-खाते में गए. प्रत्येक आदमी जानता  है  कि कनाडा  भी उसी छत्र के नीचे है, जिस छत्र के नीचे हम. और जब उन्हीं देशों में, जहाँ अंग्रेजी झंडा फहराता है, हिंद्स्तानियों का इतना घोर अपमान हो सकता है, तब फिर एक हिन्दुस्तानी अन्य देशों में किसी तरह के मान की आशा ही क्या कर सकता है?
हमारे कितने ही बड़े गहरे मित्र हमें सलाह देते हैं कि विदेशों से हिन्दुस्तानियों को वापस बुला लेने का प्रयत्न करो. हमारी मातृभूमि कितनी ही गई गुजरी  क्यों न हो, लेकिन निःसंदेह अकाल, महामारी, और अगणित व्याधियों से पीड़ित होते हुए भी उसमें इतना दम है कि वह उन सबको पेट भर रोटी दे सके, जो उसके हैं. हमारी भुजाएं अपने भाइयों के लिए ख़ुशी से फैली हुई हैं, लेकिन, इसके पहले कि हम उन्हें बुलाएं, हम पूछना चाहते हैं-अपने उन मित्रों से और अपने उन प्रभुओं से, जिनके हाथों में संसार की परम शक्ति ने भारत की शासन डोर सौंपी है, कि क्या संसार में हमारे लिए स्थान नहीं? क्या हमारे मित्र इसे न्याय समझते हैं कि हम तो दूसरे देशों में ठोकरें खाएं, लेकिन दूसरे देश वाले हमारे देश में आकर आनंद करें? हम इंगलैंड की प्रजा हैं, कनाडा या दक्षिण अफ्रीका की नहीं. क्या इंगलैंड उचित समझता है कि कनाडा और दक्षिण अफ्रीका के उद्दंड निवासी उसकी अशक्त हिन्दुस्तानी प्रजा पर मनमाना अत्याचार करते रहें? यदि अपने इन दुलार से बिगड़े हुए छोकडों की मुरव्वत उसे उनके खिलाफ कुछ भी नहीं करने देती, तो फिर, यदि उसके ह्रदय का न्याय रक्त ठंडा नहीं पड़ गया, वह भारत सरकार को हिंद्स्तानियों की स्वत्व-रक्षा के लिए स्वतंत्रता से आगे बढ़ने की आज्ञा क्यों नहीं देती?
हम उन लोगों के साथ स्वर नहीं मिला सकते, जिनके ये ख्याल हैं कि संसार में हिन्दुस्तानियों के लिए कोई स्थान नहीं. हमारा अतुल विश्वास है, कि भारत-वासियों की जो दुर्गति होनी थी, सो हो चुकी. अब उससे  अधिक कदापि न होगी. भयंकर काल-चक्र उन्ही जातियों को संसार में टिकने देता है, जो संसार की उन्नति की पवित्र ड्योढ़ी पर अपना पुजापा चढ़ाने में नहीं चूकती. शताब्दियों से हम ठोंके-पीटे जा रहे हैं. शताब्दियों से हमारे अस्तित्व पर इतने जोर-जोर से भारी हथौड़े पर हथौड़े पड़ रहे हैं कि और कोई होता, तो अब तक उसका पता भी न चलता. लेकिन, तो भी काल-चक्र की भयंकरता की हमारे सामने कुछ भी न चली. हम विश्व की उन्नति की ड्योढ़ी पर कुछ न कुछ सदा चढाते ही रहे, इसलिए मुसीबतें हमारा कुछ न बिगड़ सकीं. अब हमें विशेष चिंता नहीं. जो देश ऐसी गिरी हुई अवस्था में भी रत्न पैदा कर सकता है-ऐसे रत्न जिनका तेज संसार के बड़े से बड़े रत्नों के तेज से कम न हो-उसे निराश होने की आवश्यकता नहीं. संसार भले ही उससे मुख मोड़े, और उसके पुत्रों में भले ही जातीय त्रुटियाँ हों, लेकिन काल-चक्र उसे उदासी और निराशा से सिर नीचा कर लेने का सन्देश नहीं भेजता. वह सन्देश भेजता है कि समय आवेगा, और शीघ्र ही, जब काले और गोरे रंग, और पाश्चात्य और पूर्वीय देश के भेद-भाव से भरे हुए ह्रदय नहीं, बल्कि, मनुष्यता की देवी उसकी मनुष्यता और आत्मशक्ति के कारण उसे हाथ पसार कर अपनी गोद में लेगी.
नोट-प्रख्यात पत्रकार गणेश शंकर विद्यार्थी जी की कलम से निकली यह सम्पादकीय प्रताप के 14 दिसंबर 1913 के अंक में प्रकाशित हुई थी.(साभार)

मेरी बात-इस लेख को पढ़ते और यहाँ लिखते हुए मेरे मन में सिर्फ एक ही ख्याल आ रहा है कि उस ज़माने में भी, जब इंटरनेट था नहीं. संचार के बाकी साधन भी नहीं थे. केवल पत्राचार ही सबसे बड़ा माध्यम हुआ करता था. उसके बावजूद विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता के उच्च मानदंड किस तरह स्थापित किये होंगे. कनाडा और अफ्रीका से सूचनाएँ लाना छोटा काम नहीं था. फिर भी उन्होंने कनाडा में रह रहे कुछ हजार मजदूर अपने भाइयों की सुध ली और उनके साथ खड़े हुए. सूचनाएँ देश से साझा कीं. एक और बात, इतनी तकलीफें झेलने के बावजूद वे भारतीयों के सन्दर्भ में जब भी बात करते, तो एक सकारात्मक भाव होता, जो इस लेख में भी साफ-साफ पढ़ा जा सकता है. नमन, शत-शत नमन आप को.


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