जो बात मेरे गाँव में है, वो तुम्हारे शहर में नहीं
बेटा, तुम मुझे गाँव छोड़ दो. ये तुम्हारा शहर
मुझे बिल्कुल अच्छा नहीं लग रहा. मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं. बहू से भी नहीं. सोनम, शिवम तो अपनी जान है.
बावजूद इसके मन नहीं लग रहा. फिर क्या हुआ बाबू जी? अफसर
बेटे ने पंडित जी से पूछा. बोले-क्या-क्या बताऊँ बेटा. एक पखवारा होने को है. रोज
मंडी जाता हूँ. सब्जियां लेकर आता हूँ. देखने में बेहद खूबसूरत गोभी बनने के बाद
बेस्वाद लगती है. छोटी-छोटी लौकी लाया था. एकदम बतिया लग रही थी देखने में. बहू ने
बनाया तो मैंने कहा आज दो ही रोटी खाऊंगा डिनर में. असल में लौकी की सब्जी जेहन
में थी. जब खाने बैठे. पहला निवाला डाला कि सपना चकनाचूर हो गया. क्योंकि स्वाद ही
नहीं था उसमें. मिठास गायब थी. दो-चार गड्डी धनिया भी तुम्हारे इस छोटे से घर में
अपनी महक नहीं बिखेर पाती. बस इसीलिए गाँव जाने की बात कर रहा हूँ.
अभी भी मेरे गाँव में कम से कम फूलगोभी, पातगोभी, मूली, बैगन, धनिया, लहसुन, कद्दू, पालक, मेथी, सोया, लौकी, तरोई में स्वाद तो है. खाकर मन भर जाता है. टमाटर के तो क्या कहने. आहा,
मुंह में पानी आ गया. जब अपने खेत के टमाटर, धनिया,
लहसुन, मिर्ची और अपने पेड़ की खटाई पीसकर चटनी
बनती है तो पूरी, पराठा या फिर रोटी के साथ किसी चीज की
जरूरत ही नहीं महसूस होती. तुम्हें पता है आने से पहले खूब सब्जियां लगी थीं घर के
पास वाले खेत में. आखिर उसे गाँव वाले ही खा रहे होंगे. तुम्हारे यहाँ आने वाले
दूध में भी तो वो स्वाद नहीं. अपनी गाय के दूध का स्वाद याद आते ही ये तुम्हारे
यहाँ का दूध बिलकुल नहीं समझ आता. अफसर बेटे ने कहा-बाबूजी आप रुकिए. अब से सब्जी
मैं लूँगा. पंडित जी हँसे. बोले-लो अब ये लायेंगे सब्जी. जब पढ़ रहे थे तब तक तो
सब्जी मंडी का रास्ता नहीं पता था. फिर दिल्ली भेजा तो हॉस्टल में रहे. फिर अफसर
बन गए. ये सब्जी खरीदेंगे. पंडित जी ने कहा-बेटा मैंने पता कर लिया है यहाँ सब्जी
क्यों ठीक-ठाक नहीं मिलती.
असल में शहर किनारे खेत कम हो गए हैं. उसी में ज्यादा से ज्यादा सब्जी उगाने की फ़िराक में किसान ढेरों खाद, कीटनाशक और भी न जाने क्या-क्या डाल रहे हैं. मंडी में कोई बता रहा था कि सब्जियों में सूई लगाकर जल्दी उन्हें बड़ा कर बाजार में पहुंचा दे रहे हैं ये ठग. एक दिन तो ऑरगेनिक सब्जी लेने गया. महंगी भी थी फिर भी ले आये. एक-दो दिन तो ठीक लगी. बाद में उसमें भी वो स्वाद नहीं मिला. तुम कहाँ से लाओगे. छोड़ो मुझे रोकने का चक्कर. सन्डे आने ही वाला है. मुझे भेज दो. और हाँ, बड़ी गाड़ी भेजना. जिससे सरसों का शुद्ध तेल, घर के पिसे मसाले, धुले गेहूं का आटा भेज दूंगा. तुम्हारे यहाँ तो पैकेट बंद आटा, मसाले आते हैं. राम जाने क्या-क्या मिलाते होंगे इसमें. तुम तो जानते ही हो कि आजकल बाबा रामदेव के कारखाने में बने माल में भी मिलावट की सूचनाएँ आम है. मैगी बड़ी मुश्किल से छूट पाई है. मैंने तय किया है कि अब से तुम घर का चावल, आटा, दाल, मसाले, सरसों तेल और देशी घी खाओगे. ये सारी चीजें ऐसी हैं जो एक बार आएँगी तो महीने-दो महीने चलेंगी. घर का अन्न खाओगे तो कम से कम बच्चे, बहू और तुम स्वस्थ रहोगे. सब्जी का इंतजाम तुम्हें खुद ही करना होगा. उसमें मैं तुम्हारी मदद नहीं कर पाऊंगा. यह व्यावहारिक भी नहीं है.
असल में शहर किनारे खेत कम हो गए हैं. उसी में ज्यादा से ज्यादा सब्जी उगाने की फ़िराक में किसान ढेरों खाद, कीटनाशक और भी न जाने क्या-क्या डाल रहे हैं. मंडी में कोई बता रहा था कि सब्जियों में सूई लगाकर जल्दी उन्हें बड़ा कर बाजार में पहुंचा दे रहे हैं ये ठग. एक दिन तो ऑरगेनिक सब्जी लेने गया. महंगी भी थी फिर भी ले आये. एक-दो दिन तो ठीक लगी. बाद में उसमें भी वो स्वाद नहीं मिला. तुम कहाँ से लाओगे. छोड़ो मुझे रोकने का चक्कर. सन्डे आने ही वाला है. मुझे भेज दो. और हाँ, बड़ी गाड़ी भेजना. जिससे सरसों का शुद्ध तेल, घर के पिसे मसाले, धुले गेहूं का आटा भेज दूंगा. तुम्हारे यहाँ तो पैकेट बंद आटा, मसाले आते हैं. राम जाने क्या-क्या मिलाते होंगे इसमें. तुम तो जानते ही हो कि आजकल बाबा रामदेव के कारखाने में बने माल में भी मिलावट की सूचनाएँ आम है. मैगी बड़ी मुश्किल से छूट पाई है. मैंने तय किया है कि अब से तुम घर का चावल, आटा, दाल, मसाले, सरसों तेल और देशी घी खाओगे. ये सारी चीजें ऐसी हैं जो एक बार आएँगी तो महीने-दो महीने चलेंगी. घर का अन्न खाओगे तो कम से कम बच्चे, बहू और तुम स्वस्थ रहोगे. सब्जी का इंतजाम तुम्हें खुद ही करना होगा. उसमें मैं तुम्हारी मदद नहीं कर पाऊंगा. यह व्यावहारिक भी नहीं है.
बोले-इस साल सर्दी नहीं पड़ी फिर भी दोनों बच्चों को
सर्दी खांसी हुई. दवाएं दिलानी पड़ी. जब तुम्हें ऐसी शिकायत होती थी तो हम रात में
हल्दी मिला गरम दूध देते. तुलसी का काढ़ा देते. उससे भी बात नहीं बनती तो लहटोरा के
पत्ते का काढ़ा पिला देते. दूर भाग जाती थी सर्दी. हल्की-फुल्की चोट में मदार का
पत्ता रात में गरम करते, उस पर
सरसों का तेल लगाकर बांध देते, सुबह बिलकुल फिट हो जाते थे.
मेरे दांत अभी तक केवल इसलिए ठीक हैं कि मैंने नीम का दातून करना नहीं छोड़ा. और
तुम अपने काका को देखो. 70 के होंगे. पर, आज भी साइकिल चलते
हैं. पूरे जाड़े सरसों के तेल की मालिश, धूप, घर की सब्जियां, आटा और जीवन बिल्कुल मस्त.
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