गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-चार / प्रायश्चित की आशा


विद्यार्थी जी 
अंत में, इंगलैंड का आसन भी डोलता सा मालूम पड़ता है. हमारे प्रवासी भाई अभी तक उसी तरह सख्तियाँ झेल, और अत्याचार सह रहे हैं. यद्यपि दक्षिण अफ्रीका की निरंकुश सरकार के पापों का प्याला मुंह तक भर गया है और वह मन ही मन अपनी नादिरशाही के नतीजे पर डर रही है, लेकिन, संसार के साथ वह अभी तक बड़ी ही बेशर्मी से आँखे मिलाने में बाज नहीं आती. जो लोग चुपचाप अत्याचार सह लेना अपना कर्तव्य समझते हैं, वे मनुष्य नहीं, मनुष्य के रूप में निरा पशु हैं. जो लोग शक्तिमान हैं, यदि वे अत्याचार का होता रहना पसंद करते हैं, यदि वे अपने अधीन निर्बल आदमियों को दूसरों के पैरों तले रौंदा जाना चुपचाप देखते हैं, तो समझ लीजिये कि वे अत्याचारी से ज्यादा पापी और तिरस्करणीय हैं, क्योंकि वे ही संसार में अत्याचार होने देते हैं और अपनी इस मूर्खता और गफलत से वे उन प्राकृतिक महाशक्तियों को जो व्यक्तियों और जातियों को जन्म देती, और नाश करती है, अपनी जड़ रेत देने का मौका देते हैं.
हमारे प्रवासी भाइयों पर जो घोर अत्याचार हो रहा है, उसका दोष दक्षिण अफ्रीका की सरकार पर भले ही मढ़ा जाए, लेकिन किसी भी सत्य-प्रेमी के नजर में इंगलैंड का इस दोष से भी छुटकारा नहीं. इंगलैंड का इस समय परम कर्तव्य है कि वह आगे बढ़कर हमारे प्रवासी भाइयों के सिर पर हाथ रखे. अभी तक, मालूम पड़ता था, कि वह गहरी नींद में हैं. लेकिन, भारत-सचिव लार्ड कू की उन बातों से, जो उन्होंने उस डेपुटेशन से कहीं जो इसी विषय पर उससे मिलने गया था. (यद्यपि वे बातें अधिक संतोषजनक नहीं) और उस पत्र-व्यवहार के प्रकाशित किये जाने से, जो 3 जुलाई से 29 नवम्बर तक प्रवासी भाइयों के सम्बन्ध में भारत-सचिव और उपनिवेश सचिव में हुआ, पता चलता है कि इंगलैंड को अब कुछ चेत हुआ है. यह ख़ुशी की बात है. पर पूरी ख़ुशी उस समय होगी, जब हम देखेंगे कि इंगलैंड अपने पापों का प्रायश्चित करेगा और हमारे देश का अपमान होना रुकेगा. इसके लिए हम इंगलैंड के कृतज्ञ नहीं, किन्तु इसके लिए हमारे ह्रदय उस महा-पुरुष की कृतज्ञता से पूर्ण है, जो सौभाग्य से आज भारत वासियों के सिर पर है, और जिसने अपनी राजनीतिज्ञता, दूरदर्शिता, कार्यचतुरता, साहस, दृढ़ता और सहानुभूति से दर्शा दिया, कि उसका काम आदमियों पर ही नहीं, किन्तु उनके ह्रदय तक पर शासन करना है, और प्रजा का काम अपनी प्रजा को केवल चिकनी-चुपड़ी बातों में बहलाना ही नहीं, लेकिन समय पर आगे बढ़कर उसके स्वत्व और नाम तक की रक्षा करना भी है. साथ ही इसके लिए हमारा ह्रदय उन वीर पुरुषों और वीरा देवियों के प्रेम और आदर से भी भरा है जो अपने देश-वासियों के नाम और नैसर्गिक स्वत्व के लिए इस बेजोड़ घोर-संग्राम में अपूर्व साहस, दृढ़ता और शांति से काम ले रहे हैं.
नोट-श्री गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह सम्पादकीय लेख प्रताप में 7 दिसंबर, 1913 को प्रकाशित हुआ. (साभार)

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