और आजादी चाहती हैं हमारी बहू-बेटियां
पंचायतों
में महिलाओं की हिस्सेदारी बढ़ाकर 50 फ़ीसदी करने का फैसला केंद्र सरकार कर चुकी है.
इसी बजट सत्र में इसके लिए जरूरी प्रस्ताव आएगा. ऐसा हुआ तो महिलाओं का कद भी
बढेगा और पद तो बढेगा ही. सुनने में निश्चित तौर पर यह एक बेहतरीन पहल है. हर
दृष्टि से इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए. हालाँकि, कई राज्यों में यह व्यवस्था
पहले से ही लागू है. इस नए प्रस्ताव से देश भर की महिलाओं को यह लाभ समान रूप से
मिलने लगेगा.
उत्तर
प्रदेश समेत देश के कई राज्यों में अभी तक 33 फ़ीसदी ही आरक्षण की व्यवस्था महिलाओं
के लिए लागू है. पर, असल में इसका लाभ उन्हें नहीं मिल पा रहा है. महिलाओं का यह
हक भरोसे के नाम पर उनके पति, भाई, बेटे आदि उठा रहे हैं. ज्यादातर महिलाओं की
स्थिति मुहर से ज्यादा की नहीं है. हाल ही में उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव हुए
हैं. इसमें महिलाओं ने खूब बढ़-चढ़ कर हिस्सा भी लिया है. जीती भी हैं. लेकिन उनके
हिस्से की माला ज्यादातर पतियों ने पहनी. बधाई भी उन्होंने ही लीं. पत्नियों को
हमेशा की तरह चाय बनाने में लगा दिया गया. चुनाव प्रचार के दौरान महिला प्रत्याशी
की फोटो छोटी और पति की बड़ी फोटो पोस्टर में दिखना आम था. कुछ उत्साही महिला
प्रत्याशी पतियों ने अख़बारों में विज्ञापन भी निकलवाया. उसमें भी प्रत्याशी की
फोटो छोटी और उनकी बड़ी थी. प्रचार में भी वही आगे रहे. पत्नियाँ चाय पिलाती रहीं.
कुल मिलाकर अभी का सीन ठीक नहीं है. फिर भी केंद्र सरकार के इस प्रस्ताव का समर्थन
किया जाना चाहिए. क्योंकि धीरे-धीरे ही सही, परिवर्तन तो आएगा ही.
इतना
सब करने के बावजूद केंद्र एवं राज्य सरकारों की नीयत ठीक नहीं लगती. अगर उन्हें
वाकई महिलाओं की तरक्की देखनी है तो पहले वे लोकसभा, विधान सभा, राज्य सभा चुनावों
के टिकट वितरण में यही व्यवस्था लागू करते. इसके लिए न तो सांसद से मंजूरी लेनी
होती और न ही कोई बड़ा विरोध होने वाला है. हाँ, पार्टी के अन्दर जरूर विरोध के
स्वर उठेंगे, पर वह हाईकमान के आगे चलेगा नहीं. ऐसा होता तो सदन में विरोध और
समर्थन करने वालों के चहरे भी बेनकाब होंगे. पर, राजनीतिक दलों को साफ-सुथरी
व्यवस्था रास नहीं आती. वे तो बस ऐसा प्रस्ताव ही लाना चाहते हैं जिसके राजनीतिक
मायने हों. मैं तो कहता हूँ, महिलाओं को हर जगह वह चाहे नौकरी हो या फिर राजनीति,
आबादी के हिसाब से स्थान मिलना चाहिए. पर, हमारे देश का कानून और इसके रक्षकों को
यह बात रास नहीं आती. क्योंकि यह बात देश और दुनिया के ढेरों फ्रंट पर साबित हो
चुकी हैं कि महिलाएं कई मामलों में पुरुषों से बेहतर साबित हुई हैं. अगर तहे दिल
से उन्हें आगे किया जाये, उनका हक़ उन्हें समय से मिले तो कोई कारण नहीं कि
देश-दुनिया में परिवर्तन आएगा. बीते कई सालों से विश्वविद्यालयों के दीक्षांत
समारोह हों या फिर बोर्ड्स के परिणाम. सिविल सर्विसेज के परिणाम हों या फिर कोई और
प्रतियोगी परीक्षा. बेहतरीन परिणाम बच्चियों ने ही दिया. अव्वल वही आईं. ज्यादा
मैडल उन्हीं के नाम गए. आज देश की कई पंचायतों में ये महिलाएं बेहतरीन काम कर रही
हैं.
जब
हम सार्वजानिक मंचों से भाषण देते समय यह कहते हैं कि बेटी पढेगी तो दो घर
सुधरेंगे, तो यहाँ हमारी सोच पता चलती है. क्योंकि हम अपनी बेटी-बहू को घर से बाहर
देखने के आदती ही नहीं है. न ही हम चाहते हैं कि वे घर से बाहर निकलें. अगर ऐसा
होता तो शायद हम यह कहते कि बेटी का पढ़ना इसलिए जरूरी है क्योंकि उसे घर के ही साथ
देश भी चलाना है. महिलाओं ने बार-बार यह साबित भी किया है कि वे किसी भी मुकाम को
आसानी से पा सकती हैं. बस उन्हें थोड़ी सी आजादी घर से, थोड़ी सी समाज से चाहिए. आज
दुनिया के किसी कोने में सफल महिलाओं की कोई भी सूची बनती है तो हमारी आधी आबादी
के बिना पूरी नहीं हो पाती. फिर हम पुरुषवादी सोच के लोग कब जागेंगे? क्यों नहीं
हम महिलाओं पर भरोसा करते हैं? दूसरे की बेटी जब जिले की डीएम, एसपी, पायलट,
डॉक्टर होकर देश की सेवा करती है तो हम गर्व महसूस करते हैं और उसी में अपनी बहन,
बेटी-पत्नी देखने लगते हैं तो फिर उसी बहन, बेटी को घर में कैद करने के बारे में
क्यों सोचते हैं? उसके हक पर डाका क्यों डालते हैं? अगर पंचायतों में उसे हम
स्वतंत्र तरीके से काम करने का मौका नहीं देंगे तो भला वह कैसे आगे बढ़ेगी? मैं देश
की राजनीति की दिशा तय करने वालों से यही कहना चाहूँगा कि वे संसदीय चुनाव, विधानसभा
चुनावों से 50 फ़ीसदी टिकट देकर महिला सशक्तिकरण की शुरुआत करें और फिर उनके
घर-परिवार के लोग उन्हें स्वतंत्र तरीके से काम करने दें. उन्हें और आजादी चाहिए. आमीन. हमारी बहू-बेटियां खूब पढ़ें, तरक्की करें, इसी कामना के साथ सुनिए ये गीत-ओ रे चिरैया......
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