जी लेने दो इन्हें अपनी जिंदगी
चलो सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें सुनने का फैसला तो किया. बढ़िया
हुआ. सरकारों से मांग करते-करते तो ये लोग थक गए. अब अदालत इन्हें सुनेगी. समर्थकों
को पूरी उम्मीद है और होनी भी चाहिए कि फैसला इनके हक में ही होगा. इन्टरनेट और
अखबारों में धारा 377 से जुड़ी ख़बरें पढ़ते हुए पंडित जी बुदबुदाये. फिर बोले-पर
सुप्रीम कोर्ट के सामने भी चुनौतियाँ कम नहीं आने वाली. यह ठीक है कि अदालतें
फैसले जनदबाव में नहीं बल्कि कानून के दायरे में करती हैं, फिर भी....
दादा जी को बुदबुदाते देख पोते ने सवाल दाग दिया-ये धारा
377 का विवाद क्या है. क्यों बवाल मचा हुआ है. मुझे बताइए. पंडित जी ने पहले तो
किशोर पोते को टालने का प्रयास किया. फिर उसकी जिद के आगे झुके और बोले-समलैंगिक
सम्बन्ध अभी तक हमारे देश में अपराध है. इसमें सजा का प्रावधान है. पर समाज का एक
तबका चाहता है कि दुनिया के कई देशों की तरह भारत में भी इसे अपराध के दायरे से
बाहर किया जाये. यह मांग लम्बे समय से उठती आ रही है. सरकारें, हाईकोर्ट, सुप्रीम
कोर्ट तक. पर विरोध भी कम नहीं हुआ इस मुद्दे का. आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ,
चर्च ऑफ़ इंडिया तो खुले इसके विरोध में हैं. राजनीतिक दलों का नजरिया भी साफ नहीं
है. मौजूदा केंद्र सरकार कह रही है कि यह मानवीय मुद्दा है. हम तमाम पहलुओं पर
विचार करेंगे. तब अपना रुख साफ करेंगे. हालाँकि, पिछली केंद्र सरकार ने एक रिव्यू
पिटीशन दायर करके सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले का विरोध किया था जिसके तहत सर्वोच्च
अदालत ने दिल्ली हाईकोर्ट के एक फैसले को उलट दिया था. इस फैसले में दिल्ली
हाईकोर्ट ने दो बालिगों द्वारा आपसी सहमति के आधार पर बनाये गए समलैंगिक संबंधों
को अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था. अब देश की सबसे बड़ी अदालत ने तय कर दिया है
कि इस गंभीर मुद्दे पर पांच जजों की पीठ सुनवाई करेगी. अब देखो आगे, क्या होता है.
पोते के सवालों का जवाब देने वाले पंडित जी खुद के सवालों
से ही घिर गए. मन ही मन सोचने लगे कि समलैंगिक संबंधों को जायज करने की मांग करने
वाले सही हैं, हमारा कानून या समाज. फिर बोले-आखिर कानून नहीं साथ है तब भी तो ये
सम्बन्ध चल ही रहे है. कुछ मामले अब तक सामने आ चुके हैं जिसमें दो लड़कियां आपसी
सहमति से एक साथ रह रही हैं. लड़कों का भी यही हाल है. हजारों-लाखों सामने नहीं आये
हैं. हालाँकि, परिवार के लोग कतई नहीं सहमत होते. विरोध जारी है और कई मामलों में
सामाजिक बहिष्कार भी हुआ. परिवार का भी और समलैंगिक सम्बन्ध अपनाने वालों का भी. एक
बार फैसला इनके हक में आ जाएगा तो कुछ दिन बाद ऐसे भी इस विषय पर बातचीत बंद हो
जाएगी. हाँ, शुरूआती दिनों में कुछ सामाजिक संगठन शोर-शराबा करेंगे. टेलीविजन पर
बहस होगी. सारे पक्ष अपनी-अपनी बात रखेंगे. अखबारों में छपेगा. फिर सब कुछ सामान्य
हो जाएगा धीरे-धीरे. अपने देश में बड़ा से बड़ा गम और ख़ुशी भुलाने की क्षमता है. ऐसे
में बेहतर हो कि कानून इन्हें इजाजत दे दे. वैसे भी यह मामला केवल सेक्स तक का नहीं
है. इससे आगे तक भी है. सेक्स तो क्षणिक चीज है. अगर ये लोग तैयार हैं साथ
जीने-मरने को, तो समाज कानून को भला क्यों एतराज होना चाहिए. आखिर लोकतंत्र में इतनी आजादी तो होनी ही चाहिए. मैं तो यही कहूँगा,
जी लेने दो जिंदगी...
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