डाकू ददुआ की ख़ुशी का ठिकाना नहीं

डाकू ददुआ आज बहुत खुश था. बोला-चलो हमारे बच्चों ने वह कर दिखाया जो मैं अपने माता-पिता के लिए नहीं कर सका. इसका मुझे अफ़सोस है. पर कोई नहीं, मेरे माता-पिता भी तो खुश ही होंगे. उनके बेटे-बहू की मूर्ति पूजी जाने लगी. अब मैं सीना ठोककर एक जगह बैठ गया. न ही पुलिस का झंझट न ही किसी और से छिपने-छिपाने का. अब जिसकी मर्जी हो आये. मेरे मंदिर में. शादी-विवाह करे. मुंडन करे. पहले अपनों के इस तरह के कार्यक्रमों में जाने पर मुझे दिक्कत बहुत होती थी. रात-बिरात जाना पड़ता था. उन्हें भी दिक्कत होती थी, जो बुलाते थे. कभी भी पुलिस के पहुँचने के डर से सारा कार्यक्रम जल्दी-जल्दी निपटाना पड़ता था. अब सारे झंझट से मुक्ति मिल गई. यहीं मेरे आँगन में, मेरे सामने अब सारे कार्यक्रम हो पाएंगे और कोई कुछ नहीं कह पाएगा.
फतेहपुर जिले में मंदिर में स्थापित ददुआ और उनकी पत्नी की मूर्ति 

मैंने पूछा...अरे आपको तो पुलिस ने मार दिया था. शव मैंने भी देखा था. बोले-क्या बकते हो. मेरी शरीर को उन्होंने गोली मारी थी. असल में मैं बहुत थक गया था. भाग-भाग कर. चीजों का प्रबंधन मुश्किल हो रहा था. इसलिए शरीर को ख़त्म करने का फैसला मैंने किया. पुलिस तो केवल माध्यम थी. घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारों और गाँव, पडोसी गाँव वालों की मदद करने के लिए मैं पहले भी जाना जाता था और आज भी मेरी छवि वैसी ही है. वैसे मेरी आत्मा तो आज भी चित्रकूट-बाँदा-फतेहपुर में है. मैं सब देख रहा हूँ. मुझसे कुछ छिपा नहीं है. आज भी मैं अपनों की मदद कर रहा हूँ और करता रहूँगा. पहले भी मैं बहुतेरी मदद दूसरों के जरिये करता था, अब भी कर रहा हूँ. बस बुढ़ापा अब कुछ ज्यादा ही सर चढ़ कर बोल रहा है. इसलिए एक जगह रुकने का फैसला किया. ज़माने के लिए तो मैं मर चुका हूँ न. ऐसे में समाज में रहने, भलाई करने का एक ही जरिया था कि मैं एक स्थान पर रुकूं. अब यह सारा काम आसानी से हो पायेगा.
मैंने पूछा-बड़ा विरोध हो रहा है आप की मूर्ति लगाने का. कौन कर रहा है विरोध? तुम पत्रकार लोग? कुछ नेता लोग? और तो कोई विरोधी है नहीं. अफसर मेरे साथ. सरकार मेरे साथ. जनता मेरे साथ. अब देखो. क्या नहीं हुआ. एक मूर्ति की स्थापना के लिए भीड़ होनी चाहिए. वो थी. थी कि नहीं थी. भंडारा बढ़िया होना चाहिए था. वो हुआ कि नहीं. हुआ न. अरे भाई ये जमाना बहुत स्वार्थी है. बिना काम की चीज को निकाल फेंकता है. अगर मैं इतना बेकार होता तो कौन लगाता मेरी मूर्ति और कौन पूजता. कोई नहीं, मेरे घर वाले भी नहीं. जिले के पुलिस अधीक्षक कह रहे थे, कि उन्हें प्रतिमा लगाने की कोई जानकारी नहीं है-मैंने सवाल किया. बोले-ये भाई, क्या चाहते हो. वो नौकरी न करे. पुलिस अफसर के रूप में उन्होंने बिल्कुल ठीक बयान दिया है. इसमें गलत क्या है. जैसे वे कहेंगे, उन्हें पता था, तो तुम्हारी बिरादरी पड़ जाती पीछे. अब तो टीवी वाले सीधे लग जाते. लाइव चलाते. मनाकर उन्होंने अपना काम किया. बोले-इतने बड़े पत्रकार हो. ये तो तुम्हें भी पता है कि पुलिस से कुछ छिपा नहीं होता. वह चाहती है तो सब पता कर लेती है. इस मामले में भी सब पता है उसे, लेकिन वह नहीं चाहती कि इसे लेकर कोई बवाल हो. सरकार भी नहीं चाहती किसी तरह का बवाल. चुनाव आने वाला है. फिर सरकार बनाने के लिए हम प्रयासरत हैं. जनता हमारे साथ है. सरकारी तंत्र हमारे साथ है. मेरी भूमिका चुनावों में पहले भी मजबूत हुआ करती थी. आज भी है और आगे भी रहने वाली है. अगर सब कुछ ठीक रहा तो कुछ दिनों बाद मुझे स्कूली पाठ्यक्रम का हिस्सा भी बनाया जाएगा. कितना काम किया है मैंने जिले के विकास के लिए. अभी तलाश है ऐसे किसी बन्दे की जो मेरे काम को लिखकर एक किताब का स्वरूप दे दे. तुम पत्रकारों ने तो केवल मेरी ख़राब छवि ही उकेरी है समाज के सामने. सही तस्वीर तो अब पेश होगी. तब देखना. तुम तो रहोगे नहीं देखने के लिए शायद तुम्हारे बच्चे मुझे देवता के रूप में जानेंगे. अब वह दिन दूर नहीं जब मेरी गिनती 33 करोड़ हिन्दू देवी-देवताओं की श्रेणी में होगी. क्या बात करते हैं-मैंने कहा. बोले क्या गलत कह रहा हूँ. जब अमिताभ, सचिन और भी न जाने कौन-कौन लोगों की प्रतिमाएं देश-विदेश में लगी हैं तो किसी के पेट में दर्द नहीं उठा, अब मेरी बारी आई तो बहुतों को डायरिया हो रहा है. चल हट. और इसी फटकार के साथ मेरी आँख खुल गई. पता चला कि सब सपना था. 

Comments

  1. मान गए लेखनी को शत-शत नमन !

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  2. आभार सुधीर जी..आप जैसे पाठक होंगे तो मेरे जैसे लेखक की तो बल्ले-बल्ले

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