गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 26 / जातीय सुधार - 1
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गणेश शंकर विद्यार्थी |
जिस देश में सुधार की आवश्यकता नहीं, वह इस परिवर्तनशील संसार का भाग नहीं हो सकता. यहाँ तो सदा पुरानी इमारतों को नमस्कार किया जाता है और नए महल खड़े होते हैं. स्थिति के अनुसार रूप में परिवर्तन करना पड़ता है. जिनमें परिस्थिति के अनुसार बनने का गुण नहीं रहा, वे बिगड़ गए. उनका नामोनिशां मिट गया, और इतिहास के पन्ने, या उनकी शानदार इमारत की बची-खुची ठीकरी संसार को कभी-कभी उनके अस्तित्व की याद दिला देती है.
हमारे देश में सुधार की बड़ी भारी आवश्यकता है, केवल इसलिए नहीं कि वह संसार का एक भाग है, किन्तु इसलिए भी कि उसे आगे बढ़ने वाले संसार का भाग बना रहना है. यद्यपि हमारा देश संसार के उन देशों में से है, जो पुरानी लीक ही पीटते रहना अधिक अच्छा समझते हैं, तो भी परिस्थिति के अनुसार अपनी करवट बदलने के भाव का यह कुछ अस्तित्व अवश्य है. जातीय सुधार का कोई प्रश्न उठाइए. देश में भिक्षुओं की संख्या कैसे घटाई जाए, बालकों को किस तरह साधु न बनने दिया जाए, देहात में सफाई का भाव किस तरह उत्पन्न कराया जाए, किसानों की दशा किस तरह सुधारी जाए, स्त्रियों को किस भांति उठाया जाए? छोटे से छोटे प्रश्न से लेकर बड़े से बड़े प्रश्न उठाइए और उस देश के सुधारक दल के अर्ध शिक्षित आदमी से लेकर कुर्सी तोड़ सुशिक्षित नेता तक घूम फिर कर एक ही ठिकाने पहुँच जाएंगे. वे कहेंगे कि एक कानून बना दिया जाए, यह बात इस कानून से दूर हो जाएगी. इन बातों पर विचार करने का वे तनिक भी कष्ट नहीं उठाते कि पहले तो कानून बनवाने में कठिनाइयाँ हैं, फिर क्या उस कानून से वह बुराई दूर हो ही जाएगी और क्या उस कानून में दूसरी बुराई न उठ खड़ी होगी? रोग के ऊपर इलाज का फल यह होता है कि रोग तो दब जाता है, परन्तु उसका विष दूसरे रूप में प्रकट होकर मनुष्य को तंग करता है.
हमारे सुधारक अधिक गलती पर न भी हों, तो भी देश की स्थिति और उसके शासकों की अवस्था पर विचार करते हुए इसमें संदेह भी नहीं कि उनका हर बात में 'कानून' की शरण ढूढ़ना अच्छा तो नहीं है. यह कठिन ही नहीं किन्तु असंभव तक है कि, हम इस बात को भूल जाएँ कि हमारे शासक देशी नहीं हैं और वे हमारी बातों को अच्छी तरह नहीं समझ सकते. उस समय तक, जब तक देश का शासन देश वालों के हाथ में नहीं आ जाता या वर्तमान शासन का रूप इतना मृदुल नहीं हो जाता कि उसे हम जातीय शासन के नाम से पुकार सकें, तब तक जातीय सुधार के काम में कानून का सब रूपों में हस्तक्षेप अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जा सकता. हमारे इन शब्दों से यह मतलब नहीं कि जातीय सुधार में कानून की सहायता की बिलकुल आवश्यकता नहीं है. आवश्यकता है, परन्तु बहुत सोच-विचार का पश्चात्. जातीय सुधार के काम में शासकों के हस्तक्षेप की प्रायः उस समय तक आवश्यकता नहीं, जब तक उनका और जाती का स्वार्थ एक नहीं हो जाता.
सुधारकों की दूसरी भूल इससे भी भयंकर है. वे सुधार नहीं कर रहे, नकल कर रहे हैं. उनके कामों और बातों से कुछ भी पता नहीं चलता कि वे नकल करना भी कभी छोड़ेंगे या नहीं? पराधीनता की घटा देश पर छाई है. ह्रदय के प्रकाश तक पर उसने अँधेरा कर दिया है. सुशिक्षित सुधारक दल इस मानसिक अंधकार या मानसिक पराधीनता का प्रकाशमान उदहारण है. कोई यह नहीं कहता कि तुम आधुनिक सभ्यता के उत्तम फलों को न चखो. परंती आधुनिक सभ्यता के केन्द्रों में आग लग रही है. और उस पर विचार करना, और उसके बुरे असर से अपनी रक्षा करना तुम्हारा कर्तव्य है. जबरदस्त लहर के सामने कमजोर पौधों की क्या हकीकत, जो अपने पैरों पर खड़े रहें. भयंकर तूफ़ान ने बड़े-बड़े वृक्षों के सिर नीचे कर दिए, तो पराधीनता के वायु-मंडल में पलने वाले वृक्षों की क्या मजाल जो सीधे तने रहें? जिन सुधारकों में इतना भी चरित्र बल नहीं कि वे उसकी उज्ज्वलता का सिक्का अपने देश वालों के हृदयों पर जमा सकें, जिनमे सत्य के लिए लोगों का अत्याचार सहने की शक्ति नहीं, जिनमें इतना प्रेम का भाव नहीं, कि वे उसके बल से अपने कट्टर से कट्टर शत्रु को जीत लें, वे एक क्षण भी इस बढती हुई लहर के सामने कैसे टिक सकते हैं? जिसने विलासिता में न बहकर संसार की सेवा का दृढ़ प्रण किया हो, वह आत्मा आधुनिक सभ्यता के उस बुरे प्रभाव का मुकाबला कर सकेगी. प्रेम और उपकार, कर्तव्यता और उदारता के उच्च भावों को सख्त धक्का पहुंचाकर, बात-बात में कानून की शरण ढूढने तथा हर बात में बिना सोचे-विचारे नकल करने वाले लोगों से संसार का विशेष उपकार नहीं हो सकता. भले ही वे अपने को सुधारक कहें, परन्तु यथार्थ में वे केवल स्वरचित सुधार के ठीकेदार हैं, और उनमें सबसे पहले सुधार होने की आवश्यकता है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप के 14 जून, 1914 के अंक में प्रकाशित हुआ था. (साभार)
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