गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 25 / हमारे अन्नदाता (2)

गणेश शंकर विद्यार्थी 
लेकिन, स्वर्गीय रमेश चन्द्र दत्त के इन शब्दों को व्यावहारिक रूप किस तरह दिया जा सकता है ? हम अपने अन्नदाता को किस तरह इस बात का विश्वास दिला सकते हैं, कि कुछ भी क्यों न हो, तेरी गाढ़ी कमाई के इस हिस्से पर सांसारिक पदार्थों के केवल भोग करने वाले लोगों का निरंकुश हाथ कभी न पड़ेगा. हम उसे किस तरह समझा सकते हैं कि, प्रकृति के लाल ! जा, जोत, बो, शांत चित से फसलें काट और भूमि को उपजाऊ बना, और तेरी शांति में हस्तक्षेप करना पाप या अत्याचार समझा जाएगा.
दो बातें हैं-परन्तु यदि वे की जाएँ. पहिली यह कि लगान के नियमों की सख्ती दूर होनी चाहिए. देश के भिन्न-भिन्न भागों में लगान का हिसाब अलग-अलग है. उत्तरीय भारत के कुछ खण्डों में डंकनी बंदोबस्त है और सभी कहीं जमींदारों द्वारा लगान वसूल होता है. मध्य भारत, मद्रास, बम्बई आदि में सरकार सीधे किसानों से लगान वसूल करती है. डंकनी बंदोबस्त में किसान को पैदावार का छठां हिस्सा देना पड़ता है, उत्तरीय भारत के अन्य स्थानों में पांचवां हिस्सा और मध्य प्रदेश में 70 फ़ीसदी उपज तक के देने की नौबत पहुँच जाती है. फिर डंकनी बंदोबस्त वालों को छोड़कर, जो देश के आकार और देशवासियों की संख्या के मुकाबले में बहुत ही थोड़े हैं, सभी किसानों के सिर पर बंदोबस्त के हेरफेर की तलवार लटकती रहती है. इस हेरफेर का चक्र भी निराला ही है. वह प्रदेशों-प्रदेशों और आदमियों को पहचान-पहचान कर चलता है. कहीं 30 साल में आप फेरा करते हैं, तो कहीं 20 साल में ही आप आ धमकते हैं. इन वर्षों में जो मेहनत की गई, उसका सारा फल बंदोबस्त के हेरफेर की नजर होकर सरकारी खजाने में पहुँचने लगता है. फिर, भला, किसान किस आशा से अपने खेत को खूब भला बनावें ? सरकारी खजाने को भरने के लिए मेहनत करना सरासर बेवकूफी होगी और सीधा-साधा किसान इतना बेवकूफ नहीं कि उसे अपने लाभ-हानि का कोई ख्याल ही न हो. इसलिए पहिले देश भर में डंकनी बंदोबस्त करके या बंदोबस्त का चक्र 60-70 साल बाद चलाकर तथा लगानों की दर की उन्नति का रास्ता मिटाकर सशंकित किसानों को निर्भय कर दिया जाय, तब समझो कि देश और जाति की दरिद्रता का पहिला इलाज हो गया. लेकिन यह इलाज कौन कर सकता है ? सर्वसाधारण नहीं, जमींदार भी नहीं, किन्तु सरकार, वही इन बातों को करके देश की दरिद्रता के एक अंश को सहज ही में दूर कर सकती है. वह ऐसा नहीं कर रही है, इसलिए देश की दरिद्रता का दोष उसके सिर मढ़ा जाता है. यदि वह इस तरह की उदारता करेगी, तो उसकी यह उदारता नई न होगी, क्योंकि हिन्दू काल में लगानों की दर बहुत कम थी और साथ ही सरकारी खजाने में कमी भी न होने पावेगी, क्योंकि खुशहाल देश में व्यापर बढ़ेगा आर बढ़ा हुआ व्यापार उसके इस घाटे को पूरा कर देगा.
दूसरी बात जमींदारों के अधिकार में है. लगान का डर सरकार से होता है और बे-दखली का डर जमींदारों से. मेहनत की, उपज बढाई, खेती अच्छी की और एक दिन जमींदार महाशय ने लगान बढ़ा दिया, चीं-चपड़ करने पर भूमि से निकाल दिया. सारी की कराई मेहनत मिटटी में मिल गई. पुराने काश्तकारों की बात नहीं है, वे तो कुतुबमीनार की जगह एक जगह डट गए, लेकिन बहुत से स्थानों पर औरों को एक साथ 12 वर्ष एक भूमि पर नहीं रहने दिया जाता. मनमाने ढंग से लगाने बढ़ाये जाते हैं,  नजरें ली जाती हैं, तंग किया जाता है और धींगा-धींगी की जाती है. इन 'सांसारिक गुसाईयों' के मुकाबले में कहीं सुनवाई नहीं. अन्नदाता को सुखी बनाना चाहते हो-नहीं, देश को सुखी करना चाहते हो, उसे दरिद्रता और दुष्काल के आक्रमणों से बचाना चाहते हो, तो इस दूसरे सुधार की ओर बहुत ध्यान देना होगा. जमींदारों की शक्ति कम और किसानों के स्वत्व की रक्षा करनी होगी.
"वेंकटेश्वर" इस बात से प्रसन्न है कि डॉक्टर सप्रू ने विदेशों में यहाँ के मजदूरों के भेजे जाने का विरोध किया है, क्योंकि उसे शिकायत है कि अब 4 रुपये की बजाय नौकर 8 रुपये के मिलते हैं. वेंकटेश्वर को इस बात से दुःख है कि कहीं "कमीनों" के मिजाज बढ़ा देने के लिए डॉक्टर सप्रू जमींदारों के अधिकार कम करने का प्रस्ताव करते हैं. क्योंकि वह समझता है कि हमारे जमींदारों से ये ही अच्छे हैं, जैसे आदर्श हिन्दू राजा. सहयोगी की दोनों बातें यथार्थ व्यवस्था के विरुद्ध हैं. क्योंकि 4 रुपये की दर के ज़माने की तरह चीजें सस्ती नहीं है, और आये दिन हमें कम से कम इन प्रान्तों के देहातों की कथाएं सुनने को मिलती हैं, जिन्हें यदि हमारा सहयोगी सुने, तो हमें विश्वास है, कि अपनी भली नीति का बंधन ढीला करके उसे उनकी दुर्दश पर दो आंसू जरूर गिराने पड़ेंगे, जिन्हें वह 'कमीने' के नाम से पुकारता है. हमें नीचे अन्य देशों में आने-जाने का हक़ कहाँ तक प्राप्त है ? हम सरदार गुरुदत्त सिंह की देश भक्ति और साहस को सराहे बिना नहीं रह सकते. वे तुले हुए हैं कि किसी तरह भी कनाडा का प्रश्न हल हो जाए. हम भी यही चाहते हैं. हर एक सच्चा भारतीय भी यही चाहेगा. हमारे लिए यह बड़ी लज्जा की बात है कि हर अंग्रेजी उपनिवेश में हमारा इस तरह स्वागत हो. हम इस स्वागत की निर्दयता को पूरी तरह अनुभव करने लगे हैं. हम उस अपमान को अच्छी तरह समझने लगे हैं, जो दूसरे देश के निवासी हमें अपने दरवाजे से लाठी के बल हटाकर, और हमारे देश में स्वतंत्रता से विचार कर, हमारा करते हैं. जिसके ह्रदय में देश का सच्चा दर्द है, उसे यह अपमान असह्य होगा. बहुत हो चुका, और बहुत शुभ होगा वह दिन, जिस दिन यह भ्रम जाल टूटकर टूक-टूक हो जाएगा. हमें इन कठिनाइयों से तनिक भी घबराहट नहीं. हमारा सौभाग्य है कि पराधीनता में भी हम प्रारम्भिक स्वाधीनता की लड़ाई निरंकुश लोगों से लड़ रहे हैं. असभ्यता का तो कोई जिक्र ही नहीं, क्योंकि भारतीय पतन के घेरे के रूप में असफलता ही तो हमारे चारों ओर घूम रही है. यदि सफलता हुई तो एक पराधीन जाति स्वाधीन ईसाई लोगों की उस निरंकुशता के गढ़ की ईंट से ईंट बजा देगी, जिसके कारण आज के महात्मा ईसा को भी, यदि वे जीवित होते तो, अपने देश में कदम न रखने देते, क्योंकि ईशा भी एशिया के निवासी थे, जिसके निवासी स्वाधीन ना-ईसाई जातियों को एक आँख नहीं भाए, जिनके देशों में वे आनन्द भोगने में तनिक भी शरम नहीं बोध करते. किन्तु जिन्हें अपने घरों में न आने देने के लिए वे तरह-तरह के कपट-जाल  फैला कर अपनी आत्मा का हनन किया करते हैं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 31 मई 1914 को प्रकशित हुआ था. (साभार)   

Comments

Popular posts from this blog

खतरे में ढेंका, चकिया, जांता, ओखरी

सावधान! कहीं आपका बच्चा तो गुमशुम नहीं रहता?

गूलर की पुकार-कोई मेरी बात राजा तक पहुंचा दो