गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 21 / राष्ट्रीयता की दबी हुई लहर

गणेश शंकर विद्यार्थी 
देश की जागृति से प्रेम रखने वाले लोग आज से छह-सात वर्ष पहिले की बातें न भूले होंगे. देश के राजनैतिक क्षेत्र को दो पार्टियाँ गरम और नरम दूसरे शब्दों में, नेशनलिस्ट और माडरेट-एक दूसरे पर चोटें कर रही थीं. राजनीति-विशारद लार्ड मिंटो और लार्ड मारले ने ऐसे सुअवसर पर माडरेट पार्टी की पीठ पर हाथ फेरा था. बड़ी-बड़ी सख्तियों के झेलने, घर और बाहर सभी तिरस्कार सहने और चारों ओर विपत्ति से घिरे रहने पर भी राष्ट्रीय दल ही का पल्ला भारी मालूम पड़ता था. लेकिन इतने ही में, देश में एक भयानक तूफ़ान उठा. इधर-उधर बम के धमाके हुए, और कितने ही निर्दोष प्राणियों के प्राण गये. धर-पकड़ पर मालूम हुआ कि बम की आड़ में राजनैतिक स्वाधीनता का विचार काम कर रहा है. बस, इसी बात का सिद्ध होना था कि राष्ट्रीय दल के ऊपर आफत आ गई. उनमें और अराजकतावादियों में कोई अंतर न समझा गया.
 दबी हुई राष्ट्रीयता ने भी फिर से सिर उठाया है, और संतोष की बात है कि उसका वर्तमान रूप ऐसा सौम्य औरदेश में कठोरता का शासन हो गया. राष्ट्रीयता की जड़ उखाड़ फेंकने की तैयारी कर दी गई. अंत में राष्ट्रीयता की लहर मरू-भूमि में सूखने लगी, और इधर-उधर थोड़े से जलाशयों को छोड़कर कहीं चमकने वाले जल का नाम न रहा. लार्ड हार्डिंग की मृदुल नीति से इस समय देश में पहिले से कहीं अधिक शांति है. बम अब भी चलते हैं, और उनकी आड़ में बड़े-बड़े लम्बे-चौड़े स्वप्नों के नक़्शे देखे जाते हैं. लेकिन, देश और देश-वासियों के सौभाग्य से हमारे शासकों में पहिले से अधिक न्याय का भाव पैदा हो गया है. वे बातों के अंतर को समझने लगे हैं, और उनकी इस अच्छी नीति का फल यह हुआ है कि देश में फिर से जागृति के चिन्ह उदय हुए हैं.
सितारा (बम्बई प्रदेश) में राजनैतिक प्रान्तिक कांफ्रेंस हुई. माननीय मि. डी. वी. बेलवी उसके सभापति थे. कांफ्रेंस के होने के कुछ दिन पहले ही से समाचार पत्रों में काना-फूसी हो चली थी, और बम्बई के कुछ पत्रों, और प्रयाग के 'लीडर' में दबी और खुली जबान से कहा गया था कि कांफ्रेंस गरम दल वालों की है. बम्बई प्रान्त के बहुत से माडरेट नेता उसमें शामिल भी नहीं हुए, और इसमें भी संदेह नहीं कि प्रेसिडेंट ने अपने भाषण में अपने दल और माडरेट दल के बीच एक लकीर खींच देने की भी कोशिश की, लेकिन तो भी यह कहना अनुचित होगा कि कांफ्रेंस में किसी विशेष पक्ष के भाग लेने की मनाही थी. इस कांफ्रेंस में केवल दो बातें ऐसी हुई, जिसके कारण बहुत से लोगों ने उसे 'गरम' का नाम दे डाला और उससे अलग रहे. एकदली कांग्रेस के नियमों के अनुसार कांग्रेस और कांफ्रेंस के प्रतिनिधि वही सभा चुन सकती है, जिसका सम्बन्ध कांग्रेस या उसकी शाख-सभा से हो, और प्रतिनिधियों को एकदली कांग्रेस के 'क्रीड'पर हस्ताक्षर करना पड़ता है. सतारा कांफ्रेंस में ये दोनों बातें नहीं हुईं. केवल ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत स्वराज्य की बात स्वीकार कर लेने पर किसी भी राजनैतिक सभा का प्रतिनिधि कांफ्रेंस में योग दे सकता था.
इस ज़माने में, जब कि राष्ट्रीयता का नाम लेना पाप हो रहा है, सतारा के निवासियों का ऐसी स्वतंत्रता के साथ एक स्वतंत्र कांफ्रेंस कर डालना सराहनीय है, और उस कांफ्रेंस के सभापति और संचालक अपनी उस योग्यता, धीरता और कार्य-पटुता के लिए देश की बधाई के पात्र हैं, जो उन्होंने राष्ट्रीयता की स्थिति को साफ करने में प्रकट की. 'लीडर' ने कहा कि इन लोगों ने अपने भाषण से देश को एक बहुत बड़ी हानि पहुंचाई. लेकिन 'लीडर' का यह कहना बिलकुल स्वाभाविक है, क्योंकि अनियंत्रित सत्ता रखने वाले लोग अपने अधिकारों की इमारत गिरते हुए, देखकर अपने आप से बाहर हो जाते हैं. जो लोग सरकार से स्वराज्य माँगा करते हैं, बड़े-बड़े पदों पर दावा प्रकट किया करते हैं, और अपने स्वत्वों के लिए नियमबद्ध लड़ाई लड़ा करते हैं, यदि उनके पीछे चलने वाले लोग, नियमबद्ध आन्दोलन करके कुछ स्वत्व उनसे लेना चाहें, तो अनुचित ही क्या? सार्वजनिक सभाओं द्वारा डेलीगेटों का चुना जाना, और उस क्रीड पर जो संयुक्त कांग्रेस द्वारा पास नहीं हुई है, हस्ताक्षर न करना, ये दोनों बातें ऐसी हैं, जिन पर, यदि आन्दोलन होता गया तो माडरेट पक्ष भी अधिक काल तक नहीं ठहर सकेगा.
यदि देश अनार्किज्म का जन्म न हो जाता, तो इसमें संदेह नहीं कि राष्ट्रीय आन्दोलन का ह्रास न होता. सतारा कांफ्रेंस ने राष्ट्रीयता को एक बार फिर उठाने की कोशिश की है. उसने राष्ट्रीयता की स्थिति का ठीक-ठीक परिचय देने का यत्न किया है. ब्रिटिश साम्राज्य के अंतर्गत, देश के लिए उपयुक्त स्वराज्य का लक्ष्य सामने रखते हुए, कुछ कामों में स्वावलंबन और कुछ में सरकार का साथ देते हुए चलने की बात सतारा कांफ्रेंस में बहुत साफ-साफ प्रकट की गई है. कांफ्रेंस के संचालकों ने अपने धैर्य और काम से यह भी प्रकट कर दिया है कि वे उन लोगों से अधिक शांति-प्रिय हैं, जिन्होनें शांति की आड़ में सतारा में कांफ्रेंस न होने देने के लिए अधिकारियों को भड़काने में कोई कसर न छोड़ी थी और साथ ही ऐसे समय में ऐसी कांफ्रेंस करके उन्होंने यह भी दिखला दिया कि वे उनसे अधिक काम करने वाले हैं, जो बम्बई एसोसियेशन के सुयोग्य मेम्बरों की तरह न खुद ही कोई काम करते हैं और न दूसरों को करने देते हैं.
हम फिर सतारा के संचालकों को उनकी सफलता और साहस पर बधाई देते हैं. और साथ ही इस लेख को समाप्त करने से पहले सतारा के सुयोग्य कलेक्टर की बुद्धिमत्ता को सराहे बिना नहीं रह सकते, जिन्होंने पूरी तरह भड़काए जाने पर भी न्याय को अपने हाथ से नहीं त्यागा, और जो कांफ्रेंस के संचालकों को काम और सलाह से सहायता देते रहे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख प्रताप में 3 मई 1914 को प्रकाशित हुआ. (साभार)     

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