गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 22 / कैसा निपटारा ?
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गणेश शंकर विद्यार्थी |
उन्हें अपने संग्राम में विजय प्राप्त हुई. दक्षिण अफ्रीका की निरंकुश गवर्नमेंट को नीचा देखना पड़ा. शिकायतों की तहकीकात के लिए कमीशन बैठाया गया. कमीशन ने अपना निपटारा सुना दिया है. वह निपटारा देश के सरकारी गजट में प्रकाशित हो गया है. कमीशन के दो मेम्बरों की सुनी हुई स्वेच्छाचारिता से बहुत डर था, किन्तु रिपोर्ट में कोई ऐसी बात नहीं है, जिससे हम कम से कम इस विषय में उन्हें अन्यायी कह सकें. कमीशन के सभापति सालोमन साहब इस न्याय के लिए सब भारतीयों के धन्यबाद के पात्र हैं. रिपोर्ट अच्छी है. उसमें कहा गया है कि 45 रुपये वाला टैक्स रद्द कर दिया जाय, भारतीय ढंग का विवाह मान लिया जाय, लेकिन एक पुरुष केवल एक ही स्त्री से विवाह कर सके, जिनके अभी एक से अधिक स्त्रियाँ हों, वे उनकी स्त्रियाँ मान ली जायं, लेकिन एक की ही संतान वारिस बन सके, दक्षिण अफ्रीका के कुछ प्रान्तों में जाने की आज्ञा मिले, सारी उँगलियों के निशान के स्थान पर केवल अंगूठे का ही निशान लिया जाए, राहदारी के परवाने का 15 रुपये वाला टैक्स उड़ा दिया जाए, भारत आने-जाने में भी कुछ सुविधा रहे, इत्यादि-इत्यादि. कमीशन का फैसला किसी तरह भी बुरा नहीं कहा जा सकता. और हमारा ख्याल है कि दक्षिण अफ्रीका के हमारे देश भाइयों ने जो आन्दोलन किया था, उसके द्वारा वे इससे अधिक कुछ चाहते भी न थे. लेकिन, इस प्रश्न पर हमें दूसरी ओर से भी देखने की आवश्यकता है. देश में रहने वाले भी इसे तनिक अपनी देखें. उन्हें विदित होगा कि इस निपटारे से उनकी स्थिति एक इंच भी नहीं बदली. हमें संतोष है कि उस सारे आन्दोलन से, जिसकी आज से कुछ दिन पहले देश में धूम थी, और उस सारे धन से, जो हमने अपने प्रवासी भाइयों के लिए अपने गरीब जेब से निकाल कर समुद्र पार अफ्रीका भेज दिया, यह नतीजा निकला कि हमारे वह भाई, जो जिल्लत सह रहे थे, और मनुष्य के प्रारंभिक स्वत्वों से वंचित थे, अब अपने इन कड़े बंधनों से इतने मुक्त हो जायंगे, कि उनका जीवन इनके लिए बोझ न बनेगा. इससे अधिक कोई बात न होगी, लेकिन देश और देशवासियों की उन्नति, मान और गौरव के लिए इतना होना बहुत ही थोड़ा है. हम एक कदम से ज्यादा नहीं बढ़े. हमें अभी मीलों बढ़ना है.
हमारे कुछ भाई अफ्रीका की थोड़ी सी भूमि में तनिक बेखटके जीवन बिता सकेंगे. (हम तनिक शब्द पर जोर देते हैं, क्योंकि अभी तक उन भाइयों के लिए ऐसे कड़े बंधन मौजूद हैं, जो दम की दम में उन्हें अफ्रीका से बाहर निकाल सकते हैं. बोअरों के हाथ में अब भी दो बड़े हथियार हैं. उनका कानून है कि सोने की खानों के आसपास डेढ़ मील तक कोई एशिया निवासी न रहने पाए. हजारों भारतवासी उन नगरों में रोजगार करते हैं, जो सोने की खानों के पास हैं. ये सब चाहे जब एक मिनट में निकले जा सकते हैं. निवास नियम भी एशिया वालों के लिए ऐसा ही कड़ा है. नगर के बहार मीलों दूर रहने का नियम है, जिसका कम पालन होता है, लेकिन कानून, कानून है, और उसके अनुसार किसी समय भी काम हो सकता है.) किन्तु हमारे उस स्वत्व के अनुसार रत्ती भर भी काम नहीं हुआ है, जिससे हम दूसरे देशों में उसी तरह की स्वतंत्रता के साथ आने-जाने का दावा करते हैं, जैसा कि दूसरे देश वाले. हम ब्रिटिश साम्राज्य के नागरिक समझे जाते हैं. जिन देशों में एक अंग्रेज प्रवेश कर सकता हो, उसके दरवाजे हमारे लिए किसी तरह भी बंद न होने चाहिए. अंग्रेजी झंडे के तले तो कहीं भी हम आजादी से जा सकें. परन्तु, घटनाएँ प्रतिदिन सुन्नी पड़ती हैं कि ऐसा नहीं होता. प्रवासी भाइयों का आन्दोलन इस बात के लिए था भी नहीं, और इसीलिए कोई आश्चर्य नहीं कि सारे प्रश्नों के इस मूल प्रश्न पर उस आन्सोलन का कोई प्रभाव नहीं पड़ा. परन्तु, समझा यह अवश्य गया था कि इस निपटारे का असर इस प्रश्न पर कुछ न कुछ जरूर पड़ेगा. इसलिए हम इस निपटारे पर अधिक सतोष प्रकट करने में असमर्थ हैं. होना था, सो हो गया, लेकिन का कभी इस बे-तुके मसखरेपन का भी अंत होगा, जिसके द्वारा हम भारतीयों को उन देशों तक में धक्के खाने पड़ते हैं, जो हमारे सम्राट के झंडे के तले हैं?
घाव पर नमक छिड़कना इसे कहते हैं कि हमें तो उनके देशों में धंसने तक न दिया जाय, लेकिन वे हमारे देश में आकर खूब आनंद करे, और उसे अपने अपराधियों तक का अड्डा बनावें. हमारे प्रभु इंगलैंड की यह विचित्र नीति देखते ही बन पड़ती है. यदि हमारा देश आज स्वतंत्र होता और यदि उस हालत में दूसरे देश हमारे साथ ऐसा व्यवहार करने का साहस करते, तो उनसे हमारा स्वतंत्र देश युद्ध द्वारा निपटारा कर लेता. परन्तु वर्तमान अवस्था में हम इंगलैंड के मुंह की ओर देखने के सिवा कुछ कर भी नहीं सकते. परमात्मा उन्हीं की मदद करता है जो आप अपनी मदद करते हैं. इसलिए केवल मुंह ताकते और हाथ पसारे रहने से भी काम न चलेगा. यदि हम दूसरे देशों में पाना मान कराना चाहते हैं, तो घर में हमें अपने मान की, शान की इमारत बनानी चाहिए. संसार भर में अग्रेजी झंडे तले स्वतंत्रता के साथ जाने-आने का पूरा स्वत्व हमें मिलना चाहिए. यदि प्रभु इंगलैंड असा नहीं कर सकता तो हम उसे इस बात पर मजबूर न करें. दूसरी बात सही. जो देश हमारे लिए अपना दरवाजा बंद किये हुए हैं, वे कृपा करके अपनी पवित्र संतानों को इस अपवित्र देश में न भेजें. यदि भेजना चाहें तो उन्हें रोका जाए. बस, इससे अधिक हम कुछ नहीं चाहते, और हमारा इतना चाहना अनुचित भी नहीं. इसके लिए देश के एक कोने से दूसरे कोने तक आन्दोलन की आवश्यकता है. आन्दोलन केवल इसलिए नहीं, कि हमें रास्ता और अधिकार मिलना चाहिए, नहीं तो हमारी उन्नति रुक जाएगी, किन्तु इसलिए भी, कि हम घना सम्बन्ध रखने के कारण इंगलैंड को उस पाप और अन्याय के गड्ढे में डूबने से बचावें, जो वह अपनी इस तरह की दुर्बलता और न्याय नाशक बुद्धि से अपने पैरों के तले ही खोदता है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 10 मई 1914 को प्रकाशित हुआ. (साभार)
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