गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 23 / मानव स्वत्व

गणेश शंकर विद्यार्थी 
संसार की स्वाधीनता के विकास का इतिहास उस अमूल्य रक्त से लिखा हुआ है, जिसे संसार के भिन्न-भिन्न भाग के कर्तव्यशील वीर पुरुषों ने स्वत्वों की रणभूमि में करोड़ों मूक और निर्बल प्राणियों के बोलने की शक्ति और भुजाओं में स्वरक्षा का बल उत्पन्न करने के लिए निर्मोह होकर गिराया है. स्वाधीनता का पहला युद्ध घर ही में लड़ना पड़ता है. घर के सिर चढ़े भूतों को उतार कर धरती पर पटकना पड़ता है. जो देश या जाति अपने स्वेच्छाचारी व्यक्तियों की स्वेच्छाचारिता की जड़ पर कुठार चलाना अपना कर्तव्य नहीं समझती, वह स्वेच्छाचारिता की कठोरता को भूलती जाएगी, और अंत में निरंकुशता का पाश उसे मानसिक शिथिलता के उस गहरे गड्ढे में जा फेंकेगा, जहाँ उसे 'श्रावण के अंधे समान रहओर हरियाली ही हरिय्ली दिखाई पड़ेगी', और जिसका अंधकार उसके नेत्रों को स्वाधीनता के प्रकाश की एक झलक को भी देखने में असमर्थ बना देगी. धन्य हैं वे देश और जातियां, जिन्हें स्वेच्छाचारिता के विरुद्ध घोर संग्राम करना पड़ा, और जिन्हें इस प्रकार मनुष्य की स्वाधीनता के विकास के क्षितिज को अधिक बढ़ने का अवसर प्राप्त हुआ. इंगलैंड और उसके इन, निवासी अंग्रेज भी उन देशों में और उन लोगों में से एक हैं, जिन्हें इस देश में अपना रक्त अच्छी तरह बहाना पड़ा, और जिन्हें इस महान कार्य में सफलता भी नहीं मिली.
अंग्रेज जाति स्वाधीनता प्रिय है. अपनी स्वाधीनता के लिए उसे बड़े-बड़े संग्राम लड़ने पड़े-बाहरी संग्राम ही नहीं, भीतरी भी. बहार के आक्रमण करने वालों को तलवारों से स्वागत नहीं करना पड़ा, घर के उन निरंकुश शासकों के भी होश ठिकाने करने पड़े जो प्रजा के सिर पर पैर रख कर चले. 13 वीं शताब्दी का आरम्भ था. उस समय इंगलैंड का राजा जॉन था. जॉन पूरा स्वेच्छाचारी और और प्रजा को हर तरह से कष्ट देने वाला शासक था.  अंत में उसकी निरंकुशता का पात्र एक दिन पूरा भर गया, और 1215 में जाति के कुछ प्रतिनिधियों ने एकत्र होकर जॉन को धर दबोचा और उससे उस "स्वाधीनता के पत्र" पर हस्ताक्षर करवा लिए, जो आज "मैगना चार्ट" के नाम से प्रसिद्ध है. गला दबाये जाने पर उसने हस्ताक्षर तो कर दिए, लेकिन वह उसके अनुसार काम करने को तनिक भी तैयार न था. उसने फ़्रांस की ओर सहायता के लिए हाथ बढ़ाया, परन्तु प्रजा उसके पीछे पड़ गई. अंत में, वह देश छोड़कर भागा और रास्ते में ही मर गया. 17 वीं शताब्दी के मध्य में इंगलैंड का राजा चार्ल्स प्रथम था. हजरत को युद्धों का खर्च पूरा करने के लिए मनमाने टैक्स लगाने का बड़ा चस्का था. रुपये भी खूब उधर लिया करते थे. बार-बार पार्लियामेंट तोड़ा और बनाया भी करते थे. इसके समय की तीसरी पार्लियामेंट ने इसे उस समय रुपया दिया, जब उससे "पिटीशन ऑफ़ राइट" नाम के पत्र पर हस्ताक्षर करा लिए. लेकिन चार्ल्स का सुधार कुछ भी न हुआ. कभी जहाज पर नया टैक्स लगता और कभी किसी युद्ध के लिए रुपये की चिंता होती. चार्ल्स की धींगाधींगी  बहुत बढ़ गई. उसका हाथ पार्लियामेंट के मेम्बरों पर बुरी तरह पड़ने लगा, और वह जिसे चाहता, उसे कैद कर देता. प्रजा ने उसका खुल्लम-खुल्ला विरोध किया. युद्ध हुए. वर्षों देश में अशांति रही. अंत में, प्रजा की अदालत से चार्ल्स को फांसी की सजा हुई और उसका सिर उसकी स्वेच्छाचारिता की वेदी को भेंट हुआ. चार्ल्स प्रथम के पुत्र चार्ल्स द्वितीय के समय में राजद्रोह के कितने ही षडयन्त्र  पकडे गए, और इसका फल यह हुआ कि राजद्रोहियों को नाना प्रकार के कष्ट दिए जाते थे. इस अत्याचार की भी रोक हुई, और हाबीस कार्पस एक्ट पास हुआ.
लोगों के ह्रदय-मंदिर में  स्वाधीनता की मूर्ति स्थापित करने वाले तीन कानूनों पर अंग्रेज जाति को गर्व है, और हमारे विचार से, यह गर्व उचित है. हमें उस जाति के दोषों और अत्याचारों पर दृष्टि नहीं डालनी है. निर्दोष है ही कौन? अत्याचारों से भी किसी का दामन बिलकुल साफ होना असंभव है. किन्तु, वैसे अंग्रेज जाति ने  संसार की अच्छी सेवा की है. और या सेवा अधिकतर इसी कारण हो सकी, कि उसके व्यक्तियों के हृदयों में स्वाधीनता का गर्व और प्रेम है. इसी गर्व और प्रेम की प्रेरणा के समय-समय पर उन्होंने अपनी स्वाधीनता में भाग लेने के लिए संसार के अगणित प्राणियों को निमंत्रण दिया है. हाल ही में पार्लियामेंट के हाउस ऑफ़ कामंस से एक प्रस्ताव सर्व-सम्मति से पास हुआ है कि अंग्रेजी साम्राज्य भर की प्रजा को उक्त तीनों कानूनों के अनुसार लाभ पहुँचाना चाहिए. कौन कह सकता है कि प्रस्ताव में उदारता कूट-कूट कर नहीं भरी है? कौन कह सकता है कि स्वाधीनता के संग्रामों के लड़ने वाले लैंगटन, हेम्पडन आदि की संतानों में स्वाधीनता के प्रेम का रक्त ठंडा पड़ गया है? कौन कह सकता है कि वे अपनी प्यारी स्वाधीनता के सुख को नीचातिनीत स्वार्थ के वश होकर अपने ही तक रखना चाहते हैं?
परन्तु, हमें दूर से सुहावना शब्द निकलने वाले ढोल के अंदर पोल ही मालूम होती है. विश्वास की कमी नहीं है, परन्तु केवल लड्डुओं के खाने की कल्पना भूख को दूर नहीं कर सकती. हाउस ऑफ़ कामंस के इस प्रस्ताव के अनुसार अंग्रेजी राज्य के अन्य देशों में जो चाहे सो किया जाय, लेकिन हमारे देश की, जिसके कारण अंग्रेजी साम्राज्य, 'साम्राज्य' के नाम से पुकारा जाता है, किसी दशा में कुछ परिवर्तन नहीं होना है. इंगलैंड के उक्त तीनों कानूनों की बात ही जाने दीजिए, हम पूछते हैं कि महारानी विक्टोरिया ने उस निरंकुशता के साथ तो वह घोषणा की न थी, जिसके अभ्यासी उनके पूर्बज जॉन और चार्ल्स थे? उन्होंने जो कुछ कहा था, वह सब  पार्लियामेंट की अनुमति से, जिसका वही हाउस ऑफ़ कामंस एक बड़ा भाग है, जो आज इस प्रस्ताव को पास कर रहा है. भारतीय विदेशों में अंग्रेजी झंडे ही तले धक्के खाते फिरते हैं, देश में तरह-तरह के गला-घोंटू कानून पास हो जाते हैं, जिससे प्रजा की स्वाधीनता दिन-ब-दिन कम होती जाती है, देश वालों को अपने ही देश के उच्च पद नहीं मिलते, गोरे और काले रंग का भेद दिन-ब-दिन बढ़ता जाता है और शासक गोरे रंग का पक्ष लेकर अन्याय के गड्ढे में गिर रहे हैं. संसार से गुलामी उठ गई है, लेकिन हमारे शासकों की कृपा से हमारे लिए वह शर्त बंधे कुलियों की भर्ती के रूप में मौजूद है. 1818 का वह निरंकुश कानून मौजूद है, जिसके अनुसार कितने ही सज्जन बिना कारण देश से निकले गए और अभी न मालूम कितने निकले जाएंगे. ये सब अयाचार और अन्याय उस हालत में हो रहे हैं, जब हमें महारानी का स्वत्व-पत्र प्राप्त है और जिसके अनुसार हम संसार भर की अंग्रेजी प्रजा के बराबर हैं, हमारे देश में काले-गोरे का भेद न होना चाहिए और हमें उच्च से उच्च पद मिलने चाहिए.
पर, स्वत्व सहज ही प्राप्त नहीं होते. संसार में उनके लिए नदियों रक्त बहा है. स्वत्व की बेदी पर सिर चढाने का साहस उन्ही को हुआ, जिनमें कर्तव्य का भाव था, जिन्हें निरंकुशता से घृणा थी, जो उसका मूलोच्छेदन करना अपना धर्म समझते थे, और जिनमें इस काम के लिए प्राणों का तनिक भी मोह न था. उनकी तत्परता के सामने संसार को उन्हें रास्ता देना पड़ा. वे मनुष्य समझे गए और उन्हें मानव स्वत्व प्राप्त हुए. परन्तु, जिन्होंने रक्त की जगह पसीना भी न बहाया हो, जो स्वयं निरंकुश हों, और जिन्होनें करोड़ो भाई-बहिनों को गुलामी की बेडी से जकड रखा हो, उन्हें हाथ-पैर हिलाए और ऊँचे उठे बिना, आशा भी न रखनी चाहिए कि संसार उन्हें मनुष्य भी समझेगा. भारतीयों के लिए पेरिया और शूद्र नाम घृणा के पात्र हैं, पर संसार के पेरिया और नाम शूद्र भारतीय स्वयं ही हैं. मानव स्वत्व मिला नहीं करते. उन्हें लेना पड़ता है. बल चाहिए-बल. संसार की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं-इंगलैंड के उदार हाउस ऑफ़ कामंस से लेकर पराधीनता की भूमि में आकर पराधीनता के सूर्य के ताप को अपने ह्रदय की स्वाधीनता का सारा रस भेंट दे देने वाले निरंकुश अंग्रेज शासक तक-जो ह्रदय में बल रखने वाले वेग को आगे बढ़ने से रोक सकें और उसे मानव स्वत्व की डेवढी से महारानी की घोषणा या विलायती कानूनों की वेदी तक न पहुँचने दे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख प्रताप के 17 मई 1914 के अंक में प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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