गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 38 / भारतीय व्यापार पर युद्ध का प्रभाव

गणेश शंकर विद्यार्थी 
युद्ध से व्यापार को बड़ा धक्का लगता है. योरप के वर्तमान महायुद्ध ने संसार भर के व्यापार पर अपना प्रभाव डाला है, कहीं कम और कहीं ज्यादा. वैज्ञानिक उन्नति से आमदरफ्त की अनेक सुविधाओं के हो जाने के कारण हमारा देश रण-भूमि से हजारों मील दूरी पर होते हुए भी इस प्रभाव से नहीं बचा है. युद्ध आरम्भ होते ही देश भर के बाजारों में बड़ी ही सनसनी फ़ैल गई. उस घबराहट के समय 15 रुपये की गिनी साढ़े पंद्रह रुपये तक बिकी.
अब घबराहट कम हो गई है. लोग अपनी अवस्था समझ रहे हैं. अब हम देख रहे हैं कि इस युद्ध का प्रत्यक्ष प्रभाव हमारे व्यापार पर यह पड़ा है कि न तो हम जर्मनी और आस्ट्रिया का माल मंगा सकते हैं, और न अपना माल उन दोनों देशों को भेज सकते हैं. इन दोनों देशों से हमें रासायनिक पदार्थ, रूई और ऊन के वस्त्र, लोहे की चीजें, पीतल, फौलाद, कागज, नमक, चीनी, औजार, शीशे की चीजें इत्यादि मिला करती थी और इनके बदले में हम उन्हें चावल, चमड़ा, रुई, टाट, अन्न इत्यादि कच्ची चीजें भेजते थे. कौन चीज कितनी आती थी और कितनी जाती थी, इसका पता उस नक़्शे से लग सकता है जो अन्यत्र कहीं दिया गया है. जर्मनी और आस्ट्रिया की चीजें नहीं आ सकतीं, इसलिए उनका भाव बढ़ चला है. केवल जर्मनी और आस्ट्रिया की ही चीजें नहीं, किन्तु सभी विदेशी चीजें महंगी हो चली हैं. स्वीडन की दियासलाई पैसे की दो-दो के हिसाब से बिकती थी, वह अब पैसे की एक मिलती है. इसका कारण यह है कि दूसरे देशों की चीजों के के आने में बहुत कुछ रोक-टोक है. अंग्रेजी, फ्रांसीसी और रुसी जहाजों के ऊपर जर्मन और आस्ट्रियन सनिक जहाजों की उसी तरह नजर है जिस तरह कि उन तीनों के सैनिक सैनिक जहाजों की इनके ऊपर है.
ब्रिटिश गवर्नमेंट ने व्यापारिक जहाजों की हानि के 80 फ़ीसदी की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली है और अंग्रेजी सैनिक जहाज व्यापारी जहाजों के रास्ते की रक्षा करते हैं, इसलिए अभी तक शत्रु व्यापारी जहाजों का कुछ बिगाड़ नहीं सके हैं. तो भी डर तो है ही, इसीलिए इंगलैंड, फ्रांस, रूस आदि की चीजें भी भारत में मंहगी हो गई हैं. हालैंड, डेनमार्क, स्वीडन और नार्वे के जहाजों का रास्ता बड़ा ही खतरनाक है. जर्मनी ने उत्तरीय समुद्र भर में, जहाँ से उनके जहाज निकलते हैं, समुद्री सुरंगे लगा रखी हैं, इसलिए वहाँ की चीजें भी यहाँ मुश्किल से आ सकती हैं. वहाँ की जो चीजें इस समय यहाँ हैं, वे महंगी हो गई हैं. इंगलैंड और फ्रांस में इस समय एक नए आन्दोलन का जन्म हुआ है. जर्मनी और आस्ट्रिया की जो चीजें उन देशों में जाती थीं, देश में ही उनके बना लेने की कोशिस हो रही है. वहाँ की सरकारें इस आन्दोलन का पूरा पक्ष ले रही हैं. भारत में भी इसी प्रकार का आन्दोलन हो तो सकता है, परन्तु उसकी सफलता की बहुत आशा नहीं. सरकारी सहायता से कच्चे माल का रूप पक्के माल में तो बदल सकता है, परन्तु अधिक उन्नत जापान और अमेरिका इस मौके से कदापि न चूकेंगे, और वे भारत के बाजारों को उन चीजों से पाट देने की कोशिश करेंगे जो अभी तक हम आस्ट्रिया और जर्मनी से लेते थे. तो भी प्रयत्न करने पर देश के कुछ व्यवसाय अवश्य चटक सकते हैं. सरकारी अर्थ विभाग के मिस्टर गिलन का कहना है कि युद्ध से भारत के व्यापार को अच्छा लाभ होगा. यहाँ और देशों की भांति बाजार नहीं गिरा, और युद्ध समाप्त होते ही भारत का अन्न योरप जा-जा कर अच्छी रकम दिलावेगा.
पर, यह पीछे की बातें है, इस समय की बातें यह हैं कि भारतीय कारखाने खूब काम कर सकते हैं, कपडे के मिल खूब कपडा बना और उससे चीन, फारस और देश के हर प्रान्त में भेज कर अच्छा लाभ उठा सकते हैं, टाटा के लोगे के कारखाने का काम चमक सकता है. कागज महंगा होता जा रहा है, इसीलिए कागज के मिल खूब काम कर सकते हैं. रासायनिक पदार्थ, चीनी, नमक, लोहा, पीतल आदि के काम में भी लाभ हो सकता है.
परन्तु जब हमारे देश की करोड़ों रुपये की कच्ची  चीजों का ऑस्ट्रिया और जर्मनी जाना रुक गया है, तो स्वभावतः उन्हें सस्ता होना चाहिए था. परन्तु, बात ऐसी नहीं हो रही है. हम देखते हैं कि अन्न तक का भाव चढ़ गया है. इसके कुछ कारण हैं. बेचारे देहातियों को बढ़ा घाटा हो रहा है. मांग कम होने के कारण उन्हें तो अपने माल को सस्ते दामों पर ही बेचना पड़ता है. न बेचें, तो लगान और क़र्ज़ कहाँ से चुकावें? पर शेहेरे में वही माल महंगा मिलता है. शहर की चीजें - हमारा मतलब विदेशी चीजों से है - महंगी है और व्यापारी उनके महंगेपन की कसर देश की चीजों को महंगा कर करता है. फल यह होता है, यह होगा की किसान घाटे में रहेगा, और विदेश के लिए खरीद करने वाले व्यापारी का भी यही हाल होगा, पर बीच के व्यापारी को अच्छा लाभ होगा. इस प्रकार देश के उस  भाग को सख्त नुक्सान पहुँचता है, जो अपने परिश्रम से चीजों को उत्पन्न करता है, और उनके पश्चात गरीब लोगों को, जिनके खाद्य पदार्थ तक महंगे हो रहे हैं. शासकों से हमारी प्रार्थना है कि, यदि इस प्रकार की किसी बात की वे आशंका देखें, तो इसका समुचित प्रबंध अवश्य करें.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 30 अगस्त 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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