महिला दिवस के बहाने कुछ बातें माँ-बहनों के बारे में

कहने को तो देश ने भी बहुत तरक्की की है और आधी आबादी यानी हमारी माँ-बहनों ने भी. पर चिंता के अभी अनेक कारण हैं, जिन पर तुरंत काम होना है. अगर महिलाओं की शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा पर ठीक-ठाक काम हो जाये तो तस्वीर बदलने में देर नहीं लगेगी. आजकल एक जुमला, बेटी पढेगी तो दो घर संवरेंगे, आम है. लेकिन मूल सवाल यह है कि स्वस्थ रहेगी तभी तो पढ़ पायेगी बेटी. अभी तो सूरत इतनी ख़राब है कि जो बेटियां पढ़ ले रही हैं या फिर जिनकी सेहत अच्छी है, वह उनके परिवारीजनों के व्यक्तिगत प्रयासों का नतीजा है. अन्यथा, क्या बेटियां, क्या माँएं, सबकी सेहत खराब है.  
हमें चाहिए ऐसी ही हंसती-मुस्कुराती बेटियां (साभार)

यूपी की आधी से ज्यादा किशोरियों में खून की भारी कमी है. 90 फ़ीसदी गर्भवती महिलाओं की हालत भी ऐसी ही है. गर्भवती महिलाओं की सेहत ठीक नहीं होगी तो भला होने वाली संतान के सेहतमंद होने की संभावना वैसे ही कम हो जाती है. हर दूसरी महिला प्रसव के 24 घंटे के भीतर अस्पताल से घर पहुँच जाती है. 40 फ़ीसदी से ज्यादा माताओं की बच्चे के जन्म के बाद जरूरी देखभाल नहीं हो पाती. अन्य प्रदेशों की सूरत इससे अलग नहीं है. स्वस्थ मन से की गई पढाई के परिणाम स्वाभाविक तौर पर बेहतरीन होंगे. और अगर परिणाम बेहतरीन होंगे तो आगे का रास्ता बेटियां खुद-ब-खुद तय कर लेंगी. क्योंकि जहाँ से सब कुछ तय होता है, उस राजनीतिक पहलू पर भी महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं है. क्योंकि अब महिलाओं को 50 फ़ीसदी आरक्षण देने की बातें तो होने लगी हैं लेकिन दुखद पहलू यह है कि 33 फ़ीसदी आरक्षण का बिल 26 साल से लटका पड़ा है. ये हमारी कमजोर राजनीतिक इच्छा शक्ति को दर्शाता है. अगर यह बिल पास करने पर सभी राजनीतिक दल एकजुट हों तो मुझे लगता है कि ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी. पर, नहीं हो सका. इस दौरान कांग्रेस, बीजेपी और विपक्ष ने भी सरकार बनाई और चलाई. इतने अंतर्विरोध के बावजूद जो महिलाएं लोकसभा, विधान सभा में अपनी जगह बना पाई हैं, उसके अलग-अलग कारण हैं. कोई अपने बूते झंडा बुलंद किये हुए है तो कुछ परिवार की विरासत को संभालते हुए पहुँच गई है. पुरुषवादी सोच के संवाहक हमारे राजनीतिक कर्णधार चाहे भाजपा के लोग हों या फिर कांग्रेस या कोई और. इस मामले में सब बकवास निकले. जबरदस्त बहुमत के साथ जीतकर लोकसभा में पहुंची भारतीय जनता पार्टी सरकार ने बीते लगभग दो सालों में इस बिल का नाम तक नहीं लिया. जबकि, उसके प्रस्ताव पर विपक्ष के विरोध का भी कोई कारण नहीं बनता. अगर विरोध होता भी तो लाभ भाजपा के पक्ष में ही जाएगा. पर नहीं. वे ऐसा करते हुए शायद डरते हैं. 
हमारा संविधान देश के सभी नागरिकों को आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, सांस्कृतिक क्षेत्र में समानता का मौलिक अधिकार देता है. स्वाभाविक है स्त्रियाँ भी इसी देश की नागरिक हैं. उनका वोट कतई कम करके नहीं आँका जाता.  हम थोड़ा पीछे जाएँ तो पता चलता है कि आजादी के बाद तो महिलाओं को देश के हालत का हवाला देकर पीछे किया गया. बाद में संयुक्त राष्ट्र के हस्तक्षेप के बाद संभवतः 1975 में महिलाओं की स्थिति पर एक रिपोर्ट तैयार कराइ गई, जो बेहद भयावह निकली. महिलाएं बेहद खराब हालत में पाई गईं. तब थोड़ी सी हलचल हुई, लेकिन फिर वही ढाक के तीन पात. लगातार ढेरों प्रयासों के बावजूद उस रिपोर्ट पर तो कोई कार्रवाई हुई नहीं. लेकिन महिला संगठनों ने लगातार दबाव बांये रखा. तब कांग्रेस सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम समय में एक समिति गठित की. समिति ने यह रिपोर्ट मौजूदा  सरकार को पिछले साल ही सौंप चुकी है. लेकिन अभी भी हम उम्मीद कर सकते हैं, कि इस रिपोर्ट पर सरकार जरूर ठोस कदम उठाएगी. इस रिपोर्ट में भी जनप्रतिनिधि संस्थाओं में 50 फ़ीसदी आरक्षण की बात शामिल है. सिफारिश का मतलब इतना तो जरूर हुआ कि कमेटी को इसकी जरूरत महसूस हो रही है. मगर सरकार की इस मसले पर चुप्पी संदेह पैदा करती है. कभी इस तरह के किसी भी प्रस्ताव का पुरजोर समर्थन करने वाली मौजूदा लोकसभा प्रमुख सुमित्रा महाजन, सुषमा स्वराज जैसी हस्तियाँ भी फिलहाल चुप हैं. भाजपा शासित कई राज्यों ने उम्मीदवारों का शिक्षित होना अनिवार्य कर दिया है. होना भी चाहिए. भला कोई क्यों विरोध करने लगा इसका लेकिन, अगर यह लागू हो जाएगा तो भी मौजूदा हालत में महिलाओं को उनका पूरा अधिकार मिलने में काफी मुश्किलें आने वाली हैं. क्योंकि अभी देश में महिलाओं की साक्षरता डर लगभग 66 फ़ीसदी ही है.  
यद्यपि, मोदी सरकार ने शौचालय और सफाई को लेकर छोटे किन्तु बेहद अहम् कदम उठाये हैं. इनका सकारात्मक परिणाम भी देखने को मिल रहा है. पर, बीते साल शिक्षा, स्वास्थ्य के बजट में कटौती ठीक कदम नहीं माना जाएगा. ये दोनों मद इसलिए जरूरी है क्योंकि अब गाँव की हर महिला अपनी बेटी को पढ़ना चाहती है. लेकिन वह ऐसा तभी कर पायेगी जब उसके अपने गाँव या फिर आसपास कही स्कूल होगा. क्योंकि भारत की बड़ी आबादी अभी भी गाँव में ही रहती है और वहाँ शिक्षा-स्वास्थ्य के क्षेत्र में अभी भी बहुत काम होना शेष है. हमारा देश स्वास्थ्य के क्षेत्र में बीते वर्ष संयुक्त राष्ट्र के शताब्दी विकास के लक्ष्य को नहीं पा सका. हमारे यहाँ प्रति एक लाख जन्म पर माँ की मृत्यु दर 109 और शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार जीवित बच्चों पर 27 होनी चाहिए थी, पर ऐसा हुआ नहीं. अभी हमारी यह दर क्रमशः 140 और 40 है. बेटियों को पेट में मारने की प्रक्रिया बदस्तूर है. उस पर लगाम लगाने के अब तक के सारे प्रयास फेल ही हुए हैं. अभी भी संगठित क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं की संख्या बहुत कम है. आंकड़ों को देखें तो 90 फ़ीसदी से ज्यादा महिलाएं असंगठित क्षेत्र में काम कर रही हैं. उन्हें सभी तरह के सरकारी लाभ दिलाने के लिए सरकारों को तेज कोशिशें करनी होंगी. क्योंकि सरकारी तंत्र इतना ढीठ हो चुका है कि उस पर कोई असर नहीं पड़ता सामान्य आदेश-निर्देश का. महिलाओं के प्रति अपराध लगातार बढ़ रहे हैं. लेकिन इनमें पुलिस का रवैया हमेशा ही बेहद लचर होता है. मुझे याद आता है अपना बचपन. गाँव में पुलिस की सीटी बजने का मतलब होता था. आज कप्तान के गुजरने पर भी वो बात नहीं है. पुलिस का इकबाल कम हुआ है. अपराधियों ने अपना तरीका भी बदल दिया है. लेकिन अभी इस मसले पर काफी काम होना है. असल में पुलिस को अपने राजनीतिक आकाओं का पीछा छोड़ना होगा. जुर्म होने पर सीधी कार्रवाई करनी होगी, जो आज कठिन लगती है. उसे अपने इस रवैये में भी तबदीली लानी होगी, कि हर मामले में महिला ही गलत होगी. इससे भी दो कदम आगे की बात, अब हमें लड़कियों को मजबूत बनाना होगा, उन्हें कमजोर बनाने से बात नहीं बनने वाली. और यह काम निश्चित तौर पर माता-पिता को करना होगा. अपनी बात ख़त्म करते हुए मैं यही कहना चाहूँगा कि सरकारों को अभी भी महिलाओं के हित में बहुत कुछ करना है, वह भी बिना किसी भेदभाव के. ऐसा होगा तो हमारी महिलाएं भी आगे दिखेंगी और देश भी. आमीन.




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