गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 30 / भौगोलिक समाचार का आडम्बर

गणेश शंकर विद्यार्थी 
संसार में आजकल हितैषिता की धूम है. कमजोरों की ओर देखते ही बलवानों का ह्रदय पसीज उठता है. गहरी 'हितैषिता' की प्रेरणा से वे अपना हाथ आगे बढ़ाते हैं. मेल-जोल बड़ा समझा गया, कि प्राण बचे परन्तु एक प्रातः काल संसार ने आँख मीजते हुए देखा कि सच्चे प्राण निकल गए-अब असली चीज के स्थान पर नकली चीज रखी है और खिलाड़ी पीछे बैठा हुआ कठपुतली की तरह उस मुर्दा वस्तु के हाथ-पैर हिला रहा है. कमजोर कोरिया की ओर अशक्त जापान ने हितैषिता का हाथ बढ़ाया. भोले लोग समझे कि पडोसी है-अच्छी निभेगी. परन्तु समझने वाले समझ गए कि कोरिया के सिर पर मौत अपना खेल खेल रही है.
अंत में, अंतिम घड़ी आ पहुंची, और बे-खबर लोग तक उस दिन चौंक पड़े, जिस दिन कोरिया की स्वाधीनता के चन्द्र को काले बादलों ने ढक लिया, और उसके नौजवान बच्चे संसार में शांति स्थापिनी हेग कांफ्रेंस के दरवाजे से उसी तरह दुरदुरा दिए जाएँ, जिस तरह हमारे यहाँ एक श्रेष्ठ जाति का आदमी किसी नाम-शूद्र को दुरदुराता है. जो चक्र कोरिया पर घूम रहा था, वही एशिया के एक प्राचीन देश पर उस समय से अब तक मडरा रहा है. 'हितैषिता' की प्रबल प्रेरणा ने स्वाधीनता का गला घोटने वाले रूस और इंगलैंड, इन दो बड़े ही विचित्र मित्रों ने कमजोर और अनाथ फारस को अनाथ बनाने के लिए आगे हाथ बढ़ाया. फारस मुंह देखता रह गया, और इन हितैषियों ने उस पर अपने-अपने (उनके शब्दों में अपने-अपने वाणिज्य के प्रभाव) प्रभाव की सीमा बांध ली. फारस के कहने-सुनने पर इन मित्रगण ने घोषणा की कि हम फारस की स्वाधीनता सदा कायम रखेंगे और अपना घर सुधारने में फारस को पूरी सहायता देंगे. पर, कैसी स्वाधीनता और कैसी सहायता? संसार का कदाचार दोनों अवधूतों के इन मजेदार शब्दों पर अट्टहास से आकाश गुंजा रहा है. फारस के शुभचिंतक अर्थ-सचिव शस्टर को तंग करके निकाल देना, रूसी शासकों का ह्रदय विचारक अत्याचार, युवा फारसी पर क्रूर दृष्टि, हजारों आदमियों की हत्या, स्त्रियों का अपमान, और देश के एक सिरे से लेकर दूसरे सिरे तक रूसी आतंक से लोगों का थर-थर कांपना यही सहायता और यही स्वाधीनता 'खुशनसीब' फारस को अपने इन दोनों मेहरबान दोस्तों से मिली.
इंगलैंड ने अत्याचार नहीं किया किन्तु वह अपनी निर्बलता से, खुशामद के मारे नीचातिनीच  स्वार्थ के वश, रूस के साथ रहा, इसलिए न्याय प्रिय संसार उसे कदापि निर्दोष नहीं कह सकता. फारस का भाग्यचन्द्र दिन-ब-दिन नीचे खिसकता जाता है. उत्तर में रूसी बे-तरह बढ़ते जाते हैं. दक्षिण में इंगलैंड का प्रभुत्व है और अब रेल का जाल भी फ़ैलाने की तैयारी हो रही है. उधर रूस और इंगलैंड का सम्बन्ध घनिष्ठ होता जाता है. इंगलैंड ने फारस के तेल के कुँओं में, जो अधिकतर रूस के वाणिज्य क्षेत्र में हैं, 22 लाख पाउंड की पूँजी लगा रखी है. इधर रूस ने फारस के स्वीडन-निवासी कर्तव्यशील सिपाहियों को निकल बाहर करने की चाल चली है.  गिद्ध संसार के इस मृतप्राय राष्ट्र का मांस नोच रहे हैं और अब वह घड़ी दूर नहीं, जब उस राष्ट्र के हाथ-पांव बिलकुल ठंडे पड़ जायं और गिद्धों की पूरी तरह बन आवे.
यही क्यों, आगे भी यही खेल मिलेगा. टर्की का अंग-भंग हुआ. यूरोप के गिद्ध उसका एक-एक टुकड़ा ले उड़े. अल्बानिया बचा, शांति और हितैषिता का दम भरने वाले यूरोपीय राष्ट्रों ने उसके नए राज सिंहासन पर एक जर्मन राजकुमार को बैठा दिया. देश के अधिकांश निवासी मुसलमान हैं, परन्तु यूरोप ने इस बात पर विचार करने का कष्ट इसलिए न उठाया कि उसे एक खाली बैठे ईसाई राजकुमार को राज-सिंहासन पर बैठाना मंजूर था. इस पर भी मुस्लिम भावों की बड़ी बे-कदरी की गई. वे बिगड़ उठे और विप्लव हो गया, और अब राजकुमार भागे-भागे फिरते हैं. अल्वानियाँ अपने शासक के रूप में किसी मुसलमान राजकुमार को मांगते हैं, परन्तु उनकी कौन सुनेगा? लोहे के हाथों से उनका गला शीघ्र ही दबा दिया जाएगा, क्योंकि हितैषियों के पास हस्तक्षेप की प्रार्थना लेकर दूत पहुँच चले हैं.
कल्पना कीजिये कि इंगलैंड और टर्की में युद्ध छिड़े. टर्की इंगलैंड का बेल्स प्रान्त छीन ले, उस पर अपने एक निठल्ले मुसलमान राजकुमार का आधिपत्य कर दे. जो व्यथा उस समय स्वाधीन-चेता वेल्स-निवासियों को होगी, वही यंत्रणा इस समय अल्बनियाँ के मुसलमानों को हो रही है. परन्तु, यूरोप को अपनी गूढ़ 'हितैषिता' के सिवा किसी बात पर विचार करने का समय नहीं.
इसी तरह की चालें, संसार के अन्य देशों में भी चली जा रही हैं. इनका कारण क्या है? कारण कितने ही हो सकते हैं, परन्तु उन सबसे भिन्न, सबसे जोरदार और सबसे स्पष्ट कारण वही है, जो वर्क के शब्दों में ऊपर कहा गया है. हितैषिता, शांति और उन्नति की घोषणाएं झूठी हैं. वे उन मुखों से निकलती हैं, जो राजनीति और संसार के कुत्सित काम में कोई अंतर नहीं समझते, और जो 'भौगोलिक सदाचार' के ख्याल से इतने अंधे हो गए हैं, कि इस बात का विचार भी अपने ह्रदय में नहीं ला सकते, कि सदाचार की जो बातें लन्दन और पेरिस के निवासियों के लिए अच्छी है, वे देहली और कानपुर के निवासियों के लिए भी अच्छी हो सकती है. उदारता से भरी हुई लच्छेदार बातों की कमी नहीं, किन्तु काम के समय उदारता की नाव वोल्गा या डेन्यूब नदी ही में अटक जाती है. इस सीमा के बाहर तो मित्रता का हाथ गले पर कटारी रखने ही के लिए बढ़ता है-और 20 वीं शताब्दी के इन परम्विवेकी उदारजनों के सौभाग्य से, अपनी सीमा से बाहर अपने सारे सद्गुणों से नमस्कार कर लेना और दूसरे के गले पर बे-दरेग छूरी फेर देना 'भौगोलिक समाचार' के अटल सिद्धांत के विरुद्ध भी नहीं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 5 जुलाई 1914 को प्रकाशित हुआ. (साभार)

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