गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 31 / ढाक के वही तीन पात

गणेश शंकर विद्यार्थी 
विलायत में बैठी, भारत के शासन की डोर हिलाने वाली इंडिया कौंसिल के सुधार का बहुत कटुता और थोड़ी मिष्ट्ता मिश्रित प्रस्ताव पार्लियामेंट के हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स के सामने पेश हुआ, उस पर कुछ काल के लिए खूब ले-दे रही, और अंत में गत 7 तारीख को उसकी अंत्येष्टि क्रिया कर डाली गई. जिस दिन देश में यह समाचार आया कि उक्त कौंसिल का सुधार होना निश्चित हो गया है, उसी दिन से लोगों ने इस सुधार के स्वप्न पर बड़ी-बड़ी आशाओं के महल खड़े करने आरम्भ कर दिए. यह होना चाहिए, वह होना चाहिए, आदि प्रस्तावों के ढेर के ढेर भी मुफ्त ही भेंट किये जाने लगे.
गिनते-गिनते दिन पूरे हुए, और अंत में रियूटर के तारों ने बहुतों के आशा पर पानी फेर दिया. आशा की हत्या भी बड़े मजे से की गई. आँखे तरसती थी कि अब सारा हाल पढ़ने को मिलता है, और तब मिलता है, किन्तु धीरे-धीरे पूरे आराम के साथ ही इन समाचारों ने उत्कंठित लोगों के पास आने की कृपा की. अब, जाँच-पड़ताल होने लगी. शायद उस भूसे में भी कुछ दाने निकल ही आवें. मन समझौते के लिए दाने निकले, और संतोष ढूढ़ने वालों ने उन्हीं दानों को बहुमूल्य समझकर ह्रदय से लगाया. उक्त बिल के दोनों पक्षों को संक्षेप में देख जाइए. इस समय कौंसिल में 14 मेंबर उपस्थित रह सकते हैं, इस बिल में यह संख्या 10 हो जाती. इनमें से दो मेंबर भारतीय होते, जो इस समय भी हैं, परन्तु जिनका होना न होना अधिकारियों की मीठी इच्छा पर निर्भर है. हाँ, अब ये दोनों चुने हुए होते. इस चुनाव का रहस्य भी ध्यान से सुन लीजिए. देश भर की कौंसिलों के गैर सरकारी मेम्बरों में से 40 सज्जन अपने साथी मेम्बरों द्वारा चुने जाते, और फिर, इन 40 में से, किन्हीं भी दो को भारत-सचिव अपनी कौंसिल की मेम्बरी के लिए चुन लेते.
नए बिल से भारत-सचिव के अधिकार बहुत बढ़ जाते. एक गुप्त विभाग का निर्माण होता, जिसका सारा संचालन अकेले भारत-सचिव मन-माना करते. मेम्बरों की स्थिति में भी परिवर्तन होता. अभी तक वे केवल सलाहकार हैं, अब से हर मेंबर को किसी विभाग का काम सौंपा जाता. यह परिवर्तन प्रत्येक मेम्बर को अपने विभाग का पूरा स्याह या सफ़ेद कर देने वाला उसी तरह बना देता, जिस प्रकार भारत-सचिव अपने गुप्त विभाग में स्वयं बन जाते. सुधार की ये खास-खास बातें हैं. इनका विरोध हुआ. भारतीयों के एक बड़े भाग ने विरोध का स्वर ऊँचा किया. यहाँ के गोरे और लार्ड कर्जन के नेतृत्व में उनके विलायती भाई वन्धुओं ने भी विरोध किया है. विरोध हुआ दोनों तरफ से, परन्तु अपने-अपने स्वार्थ की दृष्टि से. गोरों को तो यह डर हुआ कि 14 मेम्बरों में अब ज्यादा से ज्यादा 10 और कम से कम 7 ही रह जाएंगे, और उसमें भी दो भारतीय और 3 इंगलैंडस्थ अंग्रेजों के निकल जाने पर केवल दो ही स्थान उन अंग्रेजों के लिए बचेंगे, जिनकी उदारता का रक्त 'इंडियन सिविल सर्विस' खुश्क कर देती है, और जो उनके साथी होते हैं. निश्चित रूप से दो भारतीयों का कौंसिल में प्रविष्ट होना भी न देख सके.
इन बातों को कुछ आड़ में रखा गया, परन्तु भारत सचिव की अधिकार वृद्धि और मेम्बरों को सलाहकार से शासक बना डालने की बात उठाकर खूब विरोध किया गया. भारतीयों ने भी इन बातों को लिया, पर बहुत से लोग यह समझते रहे कि दो भारतीयों का निश्चित रूप से लिया जाना, चुनाव का सिद्धांत स्वीकृत होना, और साथ ही, एंग्लो-इंडियनों का इस बिल का विरोध करना इस बात को प्रकट करता है कि यह बिल कुछ उपयोगी अवश्य है. उनकी इस धरना को उन्ही की सी दृष्टि से देखने में हम बिलकुल असमर्थ हैं. भारत सचिव का गुप्त विभाग निर्माण करके स्वेच्छाचारी बन बैठना हम पसंद नहीं करते. उनका अलग-अलग विभागों को सौंपकर अपने मेम्बरों को स्वेछाचारी बना देना भी हम पसंद नहीं करते. दो भारतीयों का निश्चित रूप से लिया जाना अच्छा था, किन्तु उसके साथ चुनाव की सुविधा का जो पुछल्ला लगा था, वह निरा ढोंग था. खयाल कीजिये कि देश भर के आनरेबिल मेम्बरों ने अपने 40 भाइयों को इन दो स्थानों के लिए चुना. अब, भारत सचिव इनमें से दो अपने मन के चुन लेते.  तब चुनाव का अधिकार भारतीयों को कहाँ प्राप्त हुआ? बात तो अपने मन की ही रहती, चाहे फिर हद 40 की हो या 100 की. इन 40 में भी ऐसे ऐसे माननीय मेम्बरों की कमी न होती, जो, बस केवल 'माननीय' भर हैं. इन्हीं के चुन लिए जाने की बहुत आशंका होती. सरकार तो अपना पल्ला झाड़ कर अलग हो जाती, जब चुनाव का अधिकार प्रजा को मिल गया तो फिर चाहे जैसे मेम्बर कौंसिल में पहुँचते, इससे उसको क्या मतलब? इस सारे बिल में केवल इतनी ही उपयोगी बात थी कि दो भारतीयों का कौंसिल में सदा रहना निश्चित हो जाता. और शेष सारी बात ऐसी थी, जिन्हें ढोंग या स्वेच्छाचारिता बढ़ाने वाली कहा जा सकता है. अफीम की बड़ी गोली के साथ थोड़ा सा शहद अवश्य लगा था. हाँ, लोग इस तनिक सी शहद पर बेहतर टूट पड़े थे.
यह बिल लार्ड्स सभा की दूसरी आवृति पर बहुमत से अस्वीकार कर दिया गया. यह बात खास नतीजे से खाली नहीं. विरोध से हमारे गहरे दोस्त एंग्लो इंडियन लोगों की वक्र गति दीख पड़ती है. साथ ही हम यह भी देखते हैं कि देश के शासन में उदारता की सच्ची नीति का प्रवेश उतना सहज नहीं, जितना समझा जाता है. लोग हमारी उन्नति का इसलिए विरोध करते हैं कि वे चाहते हैं कि हम सदा पैरों तले ही पड़े रहें. नहीं तो पूरे विचार और उचित परिवर्तन के लिए यह बिल किसी कमेटी को क्यों न सौंप दिया जाता.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख प्रताप में 12 जुलाई 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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