गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 32 / जातीय अपमान का इलाज

गणेश शंकर विद्यार्थी 
'गुरुनानक' के यात्री कनाडा की पवित्र भूमि पर पैर नहीं रखने पाए, इसलिए कलकत्ता की एक सभा ने प्रस्ताव किया कि कनाडा के गोरों का भारत वर्ष में आना रोक दिया जाए. पर, कौन रोके, और कैसे रोके-इन प्रश्नों पर अधिक विचार करने का कष्ट नहीं उठाया गया. स्वाधीनता की भूमि संयुक्त राज्य (अमेरिका) में कानून बन रहा है, जिससे आशंका की जाती है कि उसका भी दरवाजा भारतीयों के लिए शीघ्र ही बंद हो जाएगा.
देश के एक कोने से आवाज उठती है कि यदि अमेरिका वाले ऐसा करें, तो उनकी बनाई चीजों का बायकाट कर दो. बहुत ठीक, किन्तु जरा बतलाइए तो सही कि आप का यह बायकाट निभेगा कब तक? हम स्वीकार करते हैं कि जातीय भावों की शक्ति बड़ी चीज है, किन्तु वर्षों से पराधीनता के वायुमंडल में चलने-फिरने वाली जाति के जातीय भावों की शक्ति पर विश्वास कर बैठना अपने को धोखे में डालना है. जोश में भर जाना एक बात है, और दृढ़ता के साथ उस पर अड़े रहना बिलकुल दूसरी. हम जातीय अपमान का बदला बायकाट या अन्य रीतियों से लेने के खिलाफ नहीं, किन्तु हम इस बात को नहीं भूल सकते, जो बदला लेने के लिए आगे बढ़ते हैं, उनमें यथेष्ट बल नहीं. उठी हुई उंगलियाँ नीचे गिराई जा सकती हैं, घृणा का अट्टहास मित्रता की मुस्कराहट में बदलवाया जा सकता है, बंद दरवाजे खोले और उनके रक्षकों के हाथ आवाहन के लिए आगे बढवाए जा सकते हैं, यदि केवल हमें उतना ही बल प्राप्त हो जाए, जितने का अधिकारी हम अपने को वहुधा समझा करते हैं. अंग्रेजी प्रजा के नाम पर हम आकाश का पाताल से पैबंद जोड़ा करते हैं. किन्तु सच्ची और कटुता पूर्ण बात तो यह है कि आकाश, आकाश ही है, और पाताल, पाताल ही. हम अपनी सच्ची स्थिति को बड़ी ही जल्दी भूल जाते हैं, या यूँ कहिये कि साधारणतः उसको हम सदा ही भूले रहते हैं. (हाँ, कभी-कभी उसका कुछ खयाल आ जाता है.) इसी भूल से झोपड़ों में रहते हुए हम महलों के स्वप्न देखा करते हैं. यह भूल हमारी निर्बलता का एक बड़ा भारी कारण है. अपने इस भ्रम को नमस्कार करके हमें अपनी ओर, और साथ ही संसार की ओर अच्छी तरह नेत्र खोलकर देखना चाहिए. सारे महल हवा में उड़ जाएंगे और हम देखेंगे कि बस हम हैं और हमारी झोपड़ी. एक पल के लिए भी अपनी इस सच्ची स्थिति का विचार अपने ह्रदय से अलग न करके ही हम भ्रम जाल से बचते हुए आगे बढ़ सकते हैं. पिछली बातों की शिकायत फजूल है. वर्तमान परिस्थिति के अनुसार ही अपना रास्ता बनाना पड़ेगा.
जातीय गवर्नमेंट जाति की उन्नति का एक बड़ा भारी उपाय है. कोई भी आदमी यह नहीं कह सकता कि भारत में जातीय गवर्नमेंट का न होना भारत के लिए दुर्भाग्य की बात नहीं है. किन्तु शिकायत की आवश्यकता नहीं. संतोष की बात है कि वर्तमान गवर्नमेंट का अस्तित्व स्वेच्छाचारिता की नींव पर नहीं है. एक आदमी का करोड़ों आदमियों की जान-माल का विधाता बन जाना हर तरह से इससे बुरा ही है कि उसके स्थान पर देश में शासकों का एक समूह हो, जैसा आजकल भारत में है. देश और राजा के हितेच्छु बने रहकर, वर्तमान पद्धति में हम दो सुधार करा सकते हैं, जिससे हमारा जातीय बल बहुत बढ़ जाएगा, और हम अपने अपमान करने वालों को मुंह-तोड़ उत्तर भी दे सकेंगे. शासक समूह में विदेशियों की भरमार है, विदेशी कम हों और उनका स्थान उन्हें मिले, जो भूमि के नाते से उन स्थानों के सच्चे हक़दार हैं. शासक समूह का शासन अवश्य है, और वह प्रजातंत्र शासन की एक सीढ़ी है, किन्तु शासकों की दलबंदी हो जाने की वजह से प्रजा के स्वत्वों के पैरों तले कुचले जाने का सदा भय रहता है, इसलिए देश के शासक-समूह के शासन के किले पर गोले-बारी की आवश्यकता है. उसे तोड़कर शासन के काम में प्रजा के प्रतिनिधियों की एक अच्छी संख्या का प्रवेश करा देना आवश्यक है. इंगलैंड के व्हाइट हाल में बैठे-बैठे भारत पर शासन करने वालों को छुट्टी दिलाई जावे, कौंसिलों का फिर से सुधार हो, और सरकारी पदों में गोरे और काले, इंगलैंड और इंडिया का अंतर मिटे.
इतना हो जाने पर ही हमारे हाथ में कुछ शक्ति होगी, और हम जातीय अपमानों का इलाज कर सकेंगे, अन्यथा घर ही में गिरी हुई हालत में रहकर कनाडा आदि पर दांत पीसना केवल हवा पर मुक्केबाजी करना और अपने को हास्यास्पद बनाना है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 19 जुलाई 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)   

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