शहीद दिवस पर विशेष / गणेश शंकर विद्यार्थी को याद करने का समय

निर्भीक नेता, निडर पत्रकार, स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, शिक्षक, प्रखर वक्ता, कुशल राजनीतिज्ञ, पद और पैसे के प्रलोभन से कोसों दूर. ये सारे गुण एक आदमी में हो सकते हैं, सहसा भरोसा नहीं होता. लेकिन यह भारत भूमि है, इस धरती पर अनेक लाल पैदा हुए हैं. उन्हीं में से एक अहम् नाम है  गणेश शंकर विद्यार्थी, जो हिन्दू-मुस्लिम दंगे में झुलस रहे कानपुर नगर को शांत कराने के प्रयास में शहीद हो गए. तारीख थी 25 मार्च 1931. उनमें उपरोक्त सारे गुण थे.
गणेश शंकर विद्यार्थी 
न्याय के लिए संघर्ष में ही सुख तलाशने वाले विद्यार्थी जी आज भी समीचीन हैं, हमारे देश, समाज के लिए, पत्रकारिता के लिए और पत्रकारों के लिए भी. लगभग 40 वर्ष की उम्र में ही देश के लिए शहीद हो जाने वाले विद्यार्थी जी को जब भी मैं पढ़ता हूँ, तो लगता है कि वे हमारे आसपास कहीं बैठकर सब कुछ देख रहे हैं. उनके लेखों को पढ़कर यही महसूस होता है. क्योंकि, देश में हालात कोई खास नहीं बदले हैं, अलावा इसके कि हम आजाद हो गए हैं. निश्चित ही कुछ तरक्की भी हुई है. पर, विद्यार्थी जी जीते थे, समाज के लिए, गरीबों के लिए, मजदूरों के लिए, किसान के लिए और आज भी विद्यार्थी जी जैसे सैकड़ों, हजारों लोगों की जरूरत इस देश को है. क्योंकि देश की जान इस तबके को पूछने वाला कोई नहीं है. बातें जरूर होती हैं. संसद और विधान सभाओं में बहस-मुसाहिबे भी होते हैं, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात. किसान, मजदूर, जवान, कल भी परेशान था, आज भी परेशान है. उम्मीद जरूर की जानी चाहिए कि आगे उसका दुःख कुछ कम होगा.
सौ साल पहले उनकी कलम से लिखे गए ढेरों लेख गवाही देते हैं, कि देश में बहुत कुछ अभी भी वैसा ही है, जैसा उस ज़माने में था. जब वे लिखते थे तो साफ-साफ लिखते. बिना किसी से डरे हुए. बात चाहे अंग्रेज शासकों की हो या फिर अपने देश के नेताओं की. कलम केवल सच के साथ चलती. आज शायद यह कठिन काम हो चला है. मैं यह नहीं कहता कि पत्रकारिता कुछ नहीं कर पा रही, लेकिन मैं यह दावे से कह पा रहा हूँ कि अब यह खण्ड-खण्ड हो गई है. एक ही चीज को देखने-समझने का अलग-अलग नजरिया हो गया है पत्रकारिता और पत्रकारों का, होना भी चाहिए, पर पत्रकारिता का जो चेहरा हाल ही में सामने आया, वह निराश करता है. बात चाहे जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारा लगाने का मामला हो या फिर केरल में आरएसएस कार्यकर्ता की हत्या की. पत्रकारिता का चेहरा हर दम बदला हुआ दिखा. पर, विद्यार्थी जी कठिन समय में पत्रकारिता करने के बावजूद केवल सच के साथ खड़े दिखते थे. वे चेहरा या विचारधारा नहीं देखते थे.
25 जनवरी और 1 फरवरी 1914 के ‘प्रताप’ में विद्यार्थी जी ने देश के स्वास्थ्य पर क्रमशः दो अग्रलेख लिखे थे. उसके कुछ अंश मैं इस गरज से उद्धृत करना मुनासिब समझ रहा हूँ ताकि आज की पीढ़ी और नीति-नियंता, दोनों महसूस कर सकें कि 102 साल पहले और अब, भारत कितना बदला है. वे लिखते हैं-“हमारे देश के झोपड़ों में भी विकसित और हंसमुख चेहरे, हृष्ट-पुष्ट शरीर और स्वस्थ मधुर कंठों का अभाव है. एक तरफ मलेरिया, हैजा और प्लेग घाट लगाये बैठे हैं, दूसरी ओर अविद्या, अज्ञान, कुरीतियाँ, निर्धनता और तरह-तरह के अत्याचार लोगों को अपने कठोर पैरों तले रौंदकर पूर्व-कथित मूजियों के शिकार बनाने में सुविध्यें पैदा करते हैं.” इसी लेख में आगे वे दोहराते हैं-“गांवों की आबोहवा अच्छी होने में किसी को संदेह नहीं, लेकिन देहातियों का जैसा रहन-सहन है, वह उनके स्वास्थ्य के लिए जहर का सा काम करता है. उनके घर क्या हैं, खोहे हैं, जिनमें धुप और हवा की गुजर नहीं. जगह की कमी नहीं, लेकिन जगह की यह अनुचित और अज्ञान पर निर्भर किफ़ायत उनके स्वास्थ्य का इस तरह गला रेतती है कि उन्हें मालूम भी नहीं पड़ता. घर के आसपास और गाँव के चारों ओर कूड़ा-करकट खूब पड़ा रहता है और ताल-तलैयों में पानी सड़ा करता है.” अगले लेख में वे महिला स्वास्थ्य पर ध्यान दिलाते हैं-“अब कुछ देवियों, अपनी घर की लक्ष्मी और अपनी कुलवधुओं, अपनी कन्या और बहिनों का हाल सुनिए. चहार-दीवारी का कभी न टूटने वाली कैद ने उनके शरीर को स्वाभाविक स्वतंत्र वायु के मौके से लाभ उठाने का अवसर जो आज से शताब्दियों पहले छीन लिया गया है, लेकिन अब तो कुछ वर्षों से उनकी रही-सही तंदुरुस्ती भी छिनी सी जा रही है. यदि देश के पुरुषों का स्वास्थ्य ख़राब हो रहा है तो हम कह सकते हैं कि स्त्रियाँ रोगों का घर बन रही हैं.” इसी लेख के आगे विद्यार्थी जी लिखते हैं-देश में बच्चे बे-तरह मर रहे हैं. कमजोर माता-पिता की संतानें खूब मरना ही चाहें. सेनेट्री कांफ्रेंस में डॉक्टर कैलाश चन्द्र बोस ने कहा कि बच्चों की अधिक मृत्यु के ये कारण हैं-छोटी उम्र में विवाह, लोगों की गरीबी, दूध का महंगापन और दाइयों की मूर्खता. आंकड़े बताते हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में इन्सेफ़्लाइटिस नामक घटक बीमारी हर साल आज भी हजारों गरीब बच्चों की जान ले लेती है लेकिन हम कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पाए हैं. इस देश में आज भी लगभग छह लाख बच्चे भूख की वजह से मरते हैं. आज भी गांवों में जरूरी स्वास्थ्य सुविधाओं का अभाव है. अस्पताल हैं तो डॉक्टर नहीं. वे हैं तो नर्स और दवाएं नहीं.
इसी वर्ष 24 और 31 मई के अंक में विद्यार्थी जी ने किसानों पर केन्द्रित लेख के माध्यम से देश का ध्यान खींचा है. वे लिखते हैं-“...उन करोड़ो प्राणियों को अन्नदाता के नाम से पुकारने में हमारे साथ एक स्वर न होंगे, जो देश के झोपड़ों में रहते हैं. धुप वर्षा और जाड़े में एक समान मेहनत करते हुए अपने और संसार की उत्पत्ति का का केवल अपव्यय करने वाले लोगों के लिए भी, बिना किसी ईर्ष्या भाव के अन्न उत्पन्न करते हैं. लोग उनका नादर करते हैं. वे उनका मूल्य नहीं जानते. आँखों पर पट्टी बंधी हुई है, इसलिए वे उन लोगों की दया के पात्र हैं, जो सच्चे हीरे की परख जानते हैं. किसान प्रकृति का सच्चा लाल है. यदि प्राकृतिक उदारता, स्नेह, स्वस्थता और अन्य सद्गुणों का संसार में कहीं भी राज्य हो सकता है तो वह किसानों के निवास स्थान में ही हो सकता है. संसार के उन थोड़े से ब्यक्तियों में, जो संसार में खर्च करने के लिए पैदा नहीं हुए, परन्तु जो संसार को खर्च करने के लिए अपने बाहुबल से पदार्थों के देने को पैदा हुए हैं, उन सबमें किसानों का ही श्रेष्ठ स्थान है. परन्तु, उच्च स्थान रखते, परोपकारी होते और शांति-सुख के केंद्र बनते हुए भी चिरकाल से किसान सबसे तुच्छ, लगभग सभी के अत्याचार के पात्र और दरिद्रता और दुष्काल के शिकार समझे जाते रहे हैं. राजा उन्हें सताता, अमीर उन्हें सताता और नगर में सड़ने वाला नागरिक भी उन पर तान तोड़ना अपना कर्तव्य समझता है.” अब आप खुद ही सोचिये कि किसानों के जीवन में कितना कुछ बदला है. शायद कुछ भी नहीं. जबकि सभी जानते हैं कि बिना अन्न के जीवन चलाना बहुत मुश्किल है. अन्न के लिए कोई मशीन भी नहीं बनी है. अनाज खेतों में ही होता है और खेती किसान ही करता है लेकिन उसे आज भी लोग वैसे ही देखते हैं, जैसे सौ साल पहले देखते थे. हीन दृष्टि से. मैं अपनी बात इस उम्मीद से समाप्त कर रहा हूँ कि मौजूदा सरकारें अतीत और वर्तमान की तुलना करते हुए देश के इस तबके के बारे में कुछ अच्छा जरूर सोचें. तभी विद्यार्थी जी जैसे तेजस्वी पत्रकार का सपना सच होगा. यही हम देशवासियों की ओर से उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि भी. आमीन! आमीन! आमीन!



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