गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 35 / भयंकर महायुद्ध

गणेश शंकर विद्यार्थी 
ज्वालामुखी पर्वत अंत में ज्वालामुखी पर्वत ही है. उसकी शांति धोखे में डालने वाली है. पेट की आग कब तक मुंह से न निकलेगी? योरप किसी ज्वालामुखी से कम तो था ही नहीं, उसके पेट में आग भारी थी और दिन-ब-दिन उसकी वृद्धि ही होती जाती थी. योरप के देश अपने-अपने सैनिक-वैभव के बढ़ाने में सरपट दौड़ लगते जाते थे. उन्हें पता न था कि वे जाते कहाँ हैं और अपनी इस सारी चमक-दमक से सरकारी खजाने में रूपये भरने वालों की क्या हालत हो रही है? हाँ, उन्हें यदि किसी बात का ख्याल था तो वह यही, कि बस आगे बढ़े चलो, पीछे फिर कर भी मत देखो.
अंत में, जैसा कि हम देख रहे हैं, उन्होंने एक-दूसरे से ठोकरें खाई. आस्ट्रिया और सर्विया में लड़ाई हो रही थी. रूस अपने स्वजातीय सर्विया को दबाये जाते हुए न देख सका. उसने खट से आस्ट्रिया पर आक्रमण कर दिया. सर्विया का दोस्त रूस है तो आस्ट्रिया का दोस्त जर्मनी है. योरप की शक्तियों के दो दल हैं. पहिले दल में आस्ट्रिया, जर्मनी और इटली हैं, और दूसरे दल में इंगलैंड, फ्रांस और रूस. कोई भी शक्ति अपने दल की किसी शक्ति का बल कम होते हुए नहीं देख सकती, क्योंकि इससे उसका दल दूसरे दल के मुकाबले में कमजोर हो जाएगा. असिलिये, और साथ अपनी गहरी मित्रता के कारण जर्मनी ने आस्ट्रिया का पक्ष लिया. रूस ने उस पर आक्रमण कर दिया. छेड़-छाड़ आरम्भ हो गई, योरप के सारे देशों में तहलका मच गया. रूस के साथी फ्रांस में भी फौजी तैयारी होने लगी. जर्मनी ने उसमें लूकी लगा डी अर्थात फ्रांस पर आक्रमण कर दिया. पहले दल की तीसरी शक्ति इटली पल्ला झाड़कर अलग हो गई. ट्रपली की लड़ाई में इटली खूब छक चुकी है, इसलिए कदाचित, अपने बचाव का उसने यह हल ढूढ़ निकाला कि विपत्ति के समय आस्ट्रिया और जर्मनी को मदद देना मेरा कर्तव्य अवश्य है, किन्तु जब वे लड़ाई खरीदते फिरें, तब उनका साथ देना मेरे लिए आवश्यक नहीं. अब योरप के दल द्वय में से केवल इंगलैंड ही शेष रहा. वह चाहे तो चुप रह सकता, और शायद चुप रह भी जाता, परन्तु जर्मनी के बढे हुए हौंसले, और उसकी जबरदस्ती ने, अंत इंगलैंड को भी हिलने के लिए मजबूर किया.
जर्मनी ने बेल्जियम राज्य को सन्देश भेजा, या तो मित्र बनकर हमें अपने राज्य में से निकल जाने दो, नहीं तो हमें अपना शत्रु समझो. बेल्जियम ने इस जबरदस्ती की मित्रता से इनकार किया और तार द्वारा सम्राट जार्ज से सहायता की प्रार्थना की. तीसरी तारीख को अंग्रेजी पार्लियामेंट की इसी विषय पर बड़ी ही जबरदस्त बैठक हुई. पर राष्ट्र-सचिव सर एडवर्ड ग्रे ने सारी स्थिति के ऊपर अपने गंभीर विचार प्रकट किये. उनके कथन से स्पष्ट होता है कि इंगलैंड को लड़ाई में शामिल ही होना पड़ेगा, दो कारण से, एक तो यह, कि फ्रांस और इंगलैंड बड़े गहरे मित्र हैं, फ्रांस के सैनिक जहाज फ्रांस के दक्षिण पूर्व मेडीट्रेनियन समुद्र में रहेंगे, और उसका उत्तरी किनारा सूना रहेगा, जर्मनी इस किनारे पर आक्रमण करके फ्रांस को सख्त हानि पहुंचा सकता है. इस किनारे की रक्षा करना इंगलैंड के लिए कई कारणों से आवश्यक है. यदि जर्मनी फ्रांस के इस किनारे पर आक्रमण न करे, तो इंगलैंड तटस्थ रहेगा. दूसरा कारण यह है कि जर्मनी के पंजे से बेल्जियम को मुक्त रखना, इंगलैंड को पुरानी संधियों और वर्तमान स्थिति के कारण परम आवश्यक है, इसलिए उसकी सहायता में उसे जर्मनी से भिड़ना पड़ेगा. कहा जाता है कि इसी निश्चय के अनुसार इंगलैंड ने जर्मनी को सूचना दे डी है कि यदि एक भी जर्मन सिपाही बेल्जियम की भूमि पर पहुंचा, तो अंग्रेजी जहाज जर्मनी पर आक्रमण कर देंगे. इंगलैंड वाले इस निर्णय से संतुष्ट हैं, परन्तु, कहते हैं, कि मंत्रिमंडल के दो सदस्य-जिनमें से एक लार्ड मारले कहे जाते हैं-इसी बात पर अपना इस्तीफ़ा दे चुके हैं.
योरप के अन्य राज्य भी युद्ध की आशंका से डांवाडोल हैं. स्वीडन और नार्वे ने अलग रहने की घोषणा कर दी है. हालैंड और स्विट्जर्लैंड भी अलग रहेंगे. परन्तु वे अपनी फौजें तैयार कर रहे हैं. अमेरिका चुप है. जापान ने एशिया में अंग्रेजों का साथ देने को कहा है. आस्ट्रेलिया, कनाडा, दक्षिण अफ्रीका आदि अंग्रेजी उपनिवेश खूब बढ़-चढ़ कर बातें मार रहे हैं. साम्राज्य की रक्षा के लिए सभी बड़े ही बे-चैन हैं. फौजें और धन से सभी इंगलैंड की सहायता करने के लिए तैयार हैं. भारत में भी कुछ हलचल है. बंदरगाहों के जहाजों पर कड़ी निगाह है. फौजों की तैयारी पर भी कुछ अधिक देख-रेख है. श्रीमान वाइसराय ने भारत-सचिव को तार दिया है कि वक्त पड़े भारत के बच्चे-बच्चे को चाहे वह अंग्रेज हो या भारतीय, इंगलैंड की सहायता के लिए तैयार समझिये. इंगलैंड को सहायता देना भारतीयों का कर्तव्य है. किन्तु हम नहीं जानते कि पुरुषत्व खोते जाने वाली जाती ऐसे अवसर पर क्या मदद कर सकती है?
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 9 अगस्त 1914 को 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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