गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 39 / युद्ध की वर्तमान गति

गणेश शंकर विद्यार्थी 
उन थोड़े समाचारों की तह में जाने पर, जो हमें मिलते हैं, अब साफ-साफ पता चलता है, कि बातें ठीक वैसी ही नहीं हैं, जैसी हम अभी तक जानते आ रहे हैं. स्थिति दिन पर दिन भयंकर होती जा रही है. समाचारों से हमें मालूम पड़ता है कि हर स्थान पर जर्मनी हार रहा है, परन्तु समाचारों के भीतर की बात हमें इस चक्कर में डालती है कि फिर यह क्या बात है कि हार पर हार खाते रहने पर भी जर्मन सेना पीछे हटने के बजाय फ्रांस में घुसती ही जाती है, और सरकार युद्ध समाचार के कथनानुसार अंग्रेजी और फ्रांसीसी सेना को 23 अगस्त से लेकर 27 अगस्त तक अपने स्थान से 40 मील पीछे हटना पड़ा?
पहिली सितम्बर का समाचार हमसे कहता है कि मित्र-सेना को फिर पीछे हटना पड़ा. कितना? यह पता नहीं. लारें-अलसास प्रान्त में फ्रांसीसी सेना डटी हुई है, और मित्र सेना के उतने अधिक आदमी नहीं मारे गए, जितने कि जर्मन सेना के. अंग्रेजी सेना के ज्यादा से ज्यादा छह हजार ही सिपाही मरे हैं, ये सब बातें ऐसी हैं, जो मित्र सेना की वीरता और धीरता को प्रकट करती हैं, परन्तु इसके होते हुए भी, इस नीति से कैसे आँखें मूंदी जा सकती हैं, कि चारों ओर से घिरे होने और बड़ी ही लापरवाही से हानि सहते रहने पर भी जर्मनी ही का पलड़ा इस समय भारी पड़ रहा है. आरम्भ ही से वह शांति-नायक की चाल से चला और अभी तक उसकी चाल में कोई फर्क नहीं. मित्र-सेना आरम्भ में आक्रमणकारी की हैसियत से बढ़ी, और अब उन्हें अपनी रक्षा की चिंता है. दूसरी सितम्बर का तार हमसे कहता है कि कम्पीन के जंगल में अंग्रेज सेना ने जर्मन घुड़सवारों की 10 तोपें छीन लीं. स्पिनकोर्ट के समीप फ्रांसीसी फ़ौज ने जर्मन युवराज की सेना को हटा दिया और जापान ने जर्मनी के केओचो के सात द्वीपों पर अपना झंडा गाड़ दिया. परन्तु, इन्हीं समाचारों के मुकाबले में हम जर्मनी के विषय में ये समाचार सुन रहे हैं कि ब्रुशेल्स के चार धनाड्य उसे तावान देने के लिए लाचार कर लिए गए हैं. जर्मन व्योमयान ने पेरिस पर बम फेंके, जिनसे दो स्त्रियाँ मरी और वैसे भी जर्मन हवाई जहाज पेरिस पर चक्कर मरते देख पड़ते हैं. पेरिस की रक्षा के लिए उसके आसपास के गाँव खुदवा दिए गए, और फ्रांस की राजधानी पेरिस से उठाकर वोर्डो नाम के नगर में, जो फ्रांस के पश्चिमी समुद्र तट पर है, पहुंचा दी गईं. बेल्जियम की वर्तमान राजधानी एंटवर्प पर भी धावा मारने की तैयारी हो रही है. जर्मन व्योमयान तो उसका नजारा जब-तब देख आते हैं, पूर्व से निःशंक बढ़ती चली आने वाली रूसी फ़ौज को भी पूर्वीय प्रशिया में एक शिकस्त देकर जर्मनी ने रोक सा दिया है और उत्तर पूर्व में विकट मुकाबले के अतिरिक्त झीलों की दलदल की प्राकृतिक रूकावट रूसियों को दक्षिण में पड़ी रहने को मजबूर का रही और इन सबके सिवा इस समय भी जर्मनी गुप्तनीति से इटली को साथ देने के लिए मना रहा है.
दोनों रुखों को सामने रखने से हमारा केवल मतलब है कि हम पाठकों को युद्ध की यथार्थ अवस्था से परिचित करावें. इन बातों को देखते हुए हमें यह मानना पड़ता है कि कम से कम इस समय जर्मनी उतना दबा हुआ नहीं, जितना कि वह समझा जाता है. उसकी यह स्थिति ह्रदय में कितनी ही चिंताओं को पैदा करती है. निःसंदेह यह कोई सहज बात नहीं कि पेरिस जर्मन सेना के हाथ पड़ जाय-1870 की बात अब उसी के साथ गई-और न हमें अंग्रेजी और फ्रांसीसी सेना के उस वीरता से निराशा है, जिसकी तारीफ शत्रु तक ने की और न हम युद्ध में जाने वाली भारतीय सेना के उस पौरुषेय गुण को अस्वीकार करते हैं, जिसकी प्रशंसा, उसके युद्ध क्षेत्र में भेजे जाने का जिक्र करते हुए, लार्ड क्रू और सर जान हिवेट ने की, परन्तु ऐसा मालूम होता है कि जर्मनी का स्थल-बल उसे कम से कम कुछ दिनों के लिए तो अवश्य ही बहुत कुछ, नीचा देखने से बनाये रखेगा. जर्मनों को नीचा दिखाने के दो अचूक रास्ते हैं. एक तो उसकी नौसेना पर आक्रमण. जहाजी लड़ाई में संसार में कोई भी देश इंगलैंड के मुकाबले में नहीं ठहर सकता, और हेलिकोलेंड की जहाजी लड़ाई ने हमें बतला दिया कि जर्मनी की भी अंग्रेजी बेड़े के मुकाबले में कुछ न चलेगी.
दूसरी बात है उसके व्यापार के बंद होने उसमें अशांति उत्पन्न होना. जर्मनी में हालैंड और डेनमार्क द्वारा खाद्य पदार्थों का जाना रोका नहीं जा सकता, परन्तु तो भी उसका व्यापर मारा जा सकता है और वह मर भी रहा है. भारत ने 25 करोड़ का खाद्य पदार्थ जर्मनी भेजना बंद ही कर दिया है.  केवल हालैंड, आस्ट्रिया जर्मनी को उसके खर्च के लिए 225 करोड़ का खाद्य पदार्थ नहीं जुटा सकते. जर्मनी में दरिद्रता बढ़ेगी और इसी के भय से जर्मन व्यापारियों ने चीखना भी आरम्भ कर दिया है. देश की आमदनी और चीजों की इस रोक और लड़ाई के इस अंधाधुंध खर्च को जर्मनी क्या, जर्मनी की सी हालत में होने वाला संसार का कोई भी देश अधिक काल तक सहन नहीं कर सकता. कूता गया है कि इस युद्ध का खर्च कम से कम 45 करोड़ पाउंड मासिक होगा, और इस खर्च को तीन मास से अधिक योरप की कोई भी शक्ति बर्दाश्त नहीं कर सकती. जिसमें तीन मास से अधिक इस खर्च को चलने का दम होगा, वही कम फौजों के रखते हुए भी अंत में विजयी होगा. धन इंगलैंड और फ्रांस के ही पक्ष में हैं. इतना ही नहीं, इंगलैंड के जहाज तो जर्मनी की आर्थिक स्थिति को बेतरह बिगाड़ने पर तुले हुए हैं. उसके सारे व्यापर पर उन्होंने पानी फेर दिया है. दूसरे शब्दों में, जर्मनी धन में कम ही नहीं, किन्तु खर्च की वृद्धि के साथ आमदनी की कमी उसे परेशान करने के लिए कमर कस रही है, तब इंगलैंड का कुछ खर्च तो अवश्य होगा. पर, उसकी आमदनी, उसका व्यापर तनिक भी न रुकेगा, और इस बात से अंत में लड़ाई की विजय का सेहरा इंगलैंड के सिर पर रहेगा.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 6 सितम्बर 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)    

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