शहीद दिवस पर विशेष / गांधी, नेहरु भी जिनके फैन थे

गणेश शंकर विद्यार्थी बनना या उनके जैसा बनने के लिए सोचना भी आज बहुत कठिन है. वे पत्रकार, लेखक, राजनेता के रूप में एक ऐसे व्यक्तित्व के स्वामी थे, जिससे मोहन दास करम चंद गांधी जैसे लोग भी ईर्ष्या करते थे. 
गणेश शंकर विद्यार्थी 
उनके शहीद होने का समाचार पाने के बाद गांधी जी ने कहा-हमें तो गणेश शंकर विद्यार्थी बनना चाहिए. गणेश शंकर की तरह आप एक-एक आदमी अपना-अपना अलग शांति-दल बना सकते हैं. लेकिन सवाल है कि विद्यार्थी की तरह कितने आदमी हैं? गणेश शंकर ने अहिंसा की सेना का एक बहुत ऊँचा आदर्श हमारे सामने रख दिया. वह भले ही मर गया लेकिन उसकी आत्माहुति व्यर्थ नहीं गई है. उसकी आत्मा मेरे दिल पर काम करती रहती है. मुझे जब उसकी याद आती है तो उससे ईर्ष्या होती है. इस देश में दूसरा गणेश शंकर क्यों नहीं पैदा होता है? हम थोड़ी देर के लिए मान सकते हैं कि उसकी परम्परा समाप्त हो गई, लेकिन वह इतिहास में अमर हो गया. उसकी अहिंसा सिद्ध अहिंसा थी.
विद्यार्थी जी के शहीद होने के समाचार पर जवाहर लाल नेहरु ने कहा-गणेश जी जैसे जिए, वैसे  ही मरे और अगर हममें से कोई आरजू करे और अपने दिल की सबसे प्यारी इच्छा पूरी करना चाहे तो वह इससे अधिक क्या मांग सकता है कि उसमें इतनी हिम्मत हो कि मौत का सामना अपने भाइयों की और देश की सेवा में कर सके, और इतना खुश किस्मत हो कि गणेश जी की तरह मरे. शान से वह जिए और शान से वह मरे और मर कर जो उन्होंने सबक सिखाया वह हम वर्षों जिन्दा रहकर क्या सिखाएंगे?
इस 25 मार्च को गणेश शंकर विद्यार्थी जी को शहीद हुए 85 बरस हो जाएंगे. पर, जब हम उनके बारे में सुनते हैं, उन्हें पढ़ते हैं, तो लगता है कि जैसे वे हमारे बीच मौजूद हैं. वे स्वप्नदृष्टा थे. अल्पआयु में दुनिया छोड़ने के बावजूद वे देश, समाज को इतना कुछ दे गए हैं कि उनका सहेजा जाना आवश्यक है. जिस शख्स के बारे में सोचकर नेहरु-गांधी जैसे लोग भावुक हो गए हों, उसके काम को सहेजने में सरकारों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. कानपुर मेडिकल कालेज जरूर उनके नाम पर है लेकिन वह उनके काम को नहीं सहेज सकता. कारण, वहाँ से डॉक्टर निकलते हैं, साहित्यकार, पत्रकार नहीं. जिस व्यक्ति ने अपना पूरा जीवन देश, समाज, पत्रकारिता को दे दिया हो, जो भारी बुखार में पत्नी के मना करने के बावजूद शहर में हिन्दू-मुस्लिम दंगा शांत करने निकल गया हो, और उसी प्रयास में शहीद हो गया हो, जिसका शव पोस्टमार्टम गृह में लावारिश पड़ा रहा हो, उस गणेश शंकर विद्यार्थी के काम को सहेजने का कोई भी सरकारी प्रयास न होना दुर्भाग्यपूर्ण कहा जाएगा. कानपुर में पत्रकरिता (2012-2014) के दौरान मुझे विद्यार्थी जी के बारे में काफी कुछ जानने का अवसर मिला. कारण यह था कि वर्ष 2013 में उनके द्वारा निकाले जाने वाले ‘प्रताप’ अख़बार ने सौ साल पूरे किये थे. वरिष्ठ पत्रकार विष्णु त्रिपाठी, राम किशोर वाजपेयी, शिव कुमार दीक्षित जैसे कुछ जागरूक लोगों ने अपने साथियों के साथ मिलकर ‘प्रताप’ शताब्दी वर्ष मनाने का फैसला किया. शहर में होने के कारण मुझे भी इन आयोजनों में पूरे साल शिरकत करने का मौका मिलता रहा. बिना किसी सरकारी सहयोग के जिस तरह शहर के कुछ लोगों ने प्रताप के सौ साला जश्न के बहाने विद्यार्थी जी और उनके काम को याद किया, उसकी जितनी सराहना की जाए, कम है.
इस दौरान मैंने भी विद्यार्थी जी के बारे में जानने-समझने की भरसक कोशिश की. उनसे जुड़ने का प्रयास किया. और इस नतीजे पर पहुंचा कि गणेश शंकर विद्यार्थी का काम हर हाल में सहेजा जाना चाहिए. केंद्र और राज्य सरकारों की जिम्मेदारी बनती है कि वे इसके लिए कुछ ठोस प्रयास करें. क्योंकि अभी तक जो कुछ काम हुआ है, वह केवल लोगों ने निजी स्तर पर या फिर सामूहिक तौर पर किया है. सरकार का ध्यान इस ओर बिलकुल नहीं गया. विद्यार्थी जी के सैकड़ों लेख पढ़ने के बाद मैं इस बात को दावे से कह सकता हूँ कि उनके नाम पर कोई भी सरकार पत्रकारिता का एक विश्वविद्यालय स्थापित कर सकती है. उनके लिखे एक-एक लेख में इतनी ताकत है कि पत्रकारिता के छात्र बहुत लाभान्वित होंगे. उनके काम पर शोध की आवश्यकता भी है. जिस तरह से हमारी पत्रकारिता में गिरावट आ रही है, उसे रोकने में विद्यार्थी जी का साहित्य बहुत काम का साबित हो सकता है.
हालाँकि, अपने एक लेख में विद्यार्थी ने हिंदी पत्रकारिता के भविष्य के बारे में कुछ टिप्पणियां की थीं, जो आज भी कहीं न कहीं समीचीन हैं और उनके स्वप्नदृष्टा होने का सबूत देती हैं. वे लिखते हैं-“...पत्रकार कैसा हो, इस सम्बन्ध में मेरी दो राय हैं. एक तो यह कि उसे सत्य या असत्य, न्याय या अन्याय के झगड़े में नहीं पड़ना चाहिए. दूसरी राय यह कि पत्रकार की अपने समाज के प्रति बड़ी जिम्मेदारी है. वह अपने विवेक के अनुसार अपने पाठकों को ठीक मार्ग पर ले जाता है. वह जो कुछ लिखे, प्रमाण और परिणाम का विचार रखकर लिखे. पैसा कमाना उसका ध्येय नहीं है और अपने कार्य से जो पैसा कमाता है वह ध्येय तक पहुँचाने के लिए एक साधन मात्र है. इस तरह संसार के पत्रकारों में दो तरह के आदमी हैं-पहले दूसरी तरह के पत्रकार अधिक थे, अब इस उन्नति के युग में पहली तरह के हैं. उन्नति सिर्फ समाचार-पत्रों के आकार-प्रकार में हुई है, लेकिन खेद की बात है कि उन्नति उनके आचरणों में नहीं हुई. मैं ह्रदय से चाहता हूँ कि उधर हो या न हो, किन्तु कम से कम वे आचरण के क्षेत्र में पीछे न हटें. पैसे का मोह और बल की तृष्णा भारत वर्ष के किसी भी नए पत्रकार को ऊँचे आचरण के पवित्र आदर्श से बहकने न दे”.
अंत में मैं यही कहूँगा कि जब भारतीय पत्रकारिता सवालों के घेरे में है, ऐसे कठिन समय में गणेश शंकर विद्यार्थी हमारे मार्गदर्शक हो सकते हैं. उनसे सीख लेकर कोई भी नया पत्रकार अपनी लेखनी को और पैना बना सकता है. अगर कुछ भी पत्रकारों ने उनसे कुछ भी सीखने का प्रयास किया तो पत्रकारिता का कुछ भला जरूर होगा.
  

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