क्या वाकई कई हिस्सों में बंट गया है देश?
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| फाइल फोटो-साभार |
रात से सुबह तक, बल्कि इन शब्दों को सजोने तक मैं देख पा रहा हूँ कि जो लोग कन्हैया के भाषण की सराहना कर रहे हैं, सरकार समर्थक लोग उनकी लानत-मलामत करने से नहीं चूक रहे. जो लोग उस नौजवान के भाषण की निंदा कर रहे हैं, लगभग वही हाल उनका भी है. एक और वर्ग है जो कन्हैया के भाषण को सुनकर अपनी राय तो बना रहा है लेकिन उस राय को अपनी चहारदीवारी के बाहर व्यक्त करने को तैयार नहीं है. देश में जब भी विचारधाराओं की लड़ाई शुरू होती है तो यह हालत दिखाई देना आम बात है. यह मामला तो ऐसा था जिसमें मीडिया भी काफी हद तक अपने पथ से भटक गई दिखाई दे रही थी. कोई साफ-साफ कन्हैया के पक्ष में खड़ा था तो कोई सरकार के साथ. होना भी चाहिए, लेकिन इस तरह कई-कई हिस्सों में मीडिया बंट जाएगी तो बात नहीं बनेगी. इससे भटकाव की स्थिति बनेगी. देश का युवा कहीं किसी स्तर पर गुमराह हो सकता है. क्योंकि वह मीडिया पर बहुत भरोसा करता है.
मेरी निष्ठा न तो भाजपा में है और न ही कांग्रेस में. न ही समाजवाद में है और न ही वामपंथ में. मैं भारत देश का एक पढ़ा-लिखा नागरिक होने का दावा करता हूँ. देश की तरक्की मुझे पसंद है. मैं कतई गिरगिट के मानिंद व्यवहार नहीं करना चाहता और न ही मंशा रखता हूँ. जिस तरह हमारे नेताजी लोग सत्ता में रहने पर जिस चीज की माला जपते हैं, विपक्ष में आने के साथ ही वही चीज उनकी नजर में खराब हो जाती है. मेरा विश्वास बेहतर को बेहतर और घटिया को घटिया कहने में है. इसीलिए मैंने पूर्व में भी जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय प्रकरण में कानून को अपना काम करने देने की वकालत की थी, मैं उस पर आज भी कायम हूँ. हमारे टेलीविजन के दोस्तों को मनन करना होगा, क्योंकि उन्हें देखकर देश अब राय बनाने लगा है. यह पहला मौका नहीं है जब टेलीविजन समाचार स्रोत कठघरे में आये हैं. आए दिन यह सूरत बनती दिखती है, जो मीडिया के लिए ठीक नहीं है. माध्यम चाहे कोई हो. मुजफ्फरनगर दंगे में भी एक टेलीविजन समाचार स्रोत विवादों आया है. मामला फ़िलहाल अदालत में है.
अब हर चीज को विचारधारा से जोड़कर तो नहीं देखा जा सकता. देखा भी नहीं जाना चाहिए. देश के सामने अनेक ऐसे संकट हैं, जिन पर चर्चा होनी चाहिए. उनका समाधान तलाशा जाना चाहिए. आज हमारे प्रधानमंत्री जी देश के किसानों की आय अगले कुछ सालों में बढ़ाने वाले हैं. पर, यह आय कैसे बढ़ेगी, इस पर तस्वीर साफ नहीं दिख रही. आजादी के बाद देश के सकल घरेलू उत्पाद में खेती-किसानी का योगदान लगभग 65 फ़ीसदी था, आज घटकर बमुश्किल 15 फ़ीसदी बचा है. ऐसे में यह मुमकिन नहीं लगता. इसलिए मैं बार-बार कहता हूँ कि देश को चलाना अलग बात है और विचारधारा अलग. किसी भी विचारधारा का व्यक्ति देश को तरक्की के रास्ते पर ले जा सकता है. केवल सत्ता में बैठे लोग नहीं. ऐसा भी नहीं है कि विपक्ष में बैठे लोग तरक्की का विरोध ही करते हैं. खतरनाक बात यह है कि इस धमाचौकड़ी में वह तबका मौन हो जाता है, जो वाकई देश की भलाई चाहता है लेकिन चूँकि उसकी आवाज इस बेजा शोर में दब जाती है या वह इतने शोर में बोलना ही नहीं चाहता. इसी कारण मैं असमंजस में हूँ और यह कहने की हिमाकत कर पा रहा हूँ कि देश कई हिस्सों में बंटा नजर आता है. यह ठीक नहीं. न देश के लिए, न ही समाज के लिए और न ही वामपंथ, दक्षिणपंथ के लिए. या किसी और विचारधारा के लिए भी, जिसकी जानकारी मुझे नहीं है. हमारा संविधान हमें ढेरों अधिकार देता है तो हमारे कर्तव्य भी साफ-साफ दर्ज है. हमें इसके अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए. अगर हम ऐसा करते हैं तो हम कानून पर पूरा भरोसा भी कर ही लेंगे. बिना इसके एक स्वस्थ, विकासशील देश को हम विकसित कैसे कर पाएंगे?

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