इतना अत्याचार तुम बर्दाश्त कैसे करती हो

तुम कितनी धैर्यवान हो. तुम्हारे धैर्य को सलाम करने का जी चाहता है. करता भी हूँ. रोज करता हूँ. पर मन नहीं भरता. रोज सीखता हूँ तुमसे. पर लगता है कुछ नहीं सीखा. कितना अत्याचार हो रहा तुम पर, पर तुम्हें तो शायद परवाह ही नहीं...नहीं-नहीं. ऐसा नहीं है. तुम्हें तकलीफ होती है लेकिन तुम चुपचाप इसलिए सहती हो कि हमें तकलीफ न होने पाए. क्या नहीं किया तुमने हमारे लिए...एक क्या, हजार जनम भी ले लें तो भी तुम्हारा कर्ज नहीं उतार पाऊंगा. कहाँ से लाती हो इतना धैर्य?
माफ़ करना गंगा मैया..हमने न सुधरने की कसम खा रखी है-साभार  

यह एक ऐसा सवाल है जो होश संभालने के बाद से आज तक मैं रोज पूछता हूँ खुद से, अपनों से, पर, किसी भी जवाब से मन संतुष्ट नहीं होता. याद आता है बचपन, जब हम कहीं भी शौच कर देते...कही भी पेशाब कर देते. कई बार किसी के ऊपर भी. तब भी तुम मुझे बर्दाश्त करती और आज भी, जब हम बड़े हो गए हैं. तुम्हारे दिए संस्कारों में कोई दोष नहीं. कही ने कहीं हमारे अन्दर ही कोई कमी है. तभी तो हम अपने घर की बालकनी से कूड़ा फेंक देते हैं..कहीं भी शौच-पेशाब करने से हम आज भी नहीं चूकते. क्या शहर, क्या गाँव, कहीं भी यह दृश्य आम है. रासायनिक खादों से हमने तुम्हारे सीने को छलनी कर दिया. फिर भी तुम शांत रहे. एक समय था, जब छोटी-छोटी नहरों का पानी भी साफ होता था. आज गंगा मैया भी संकट में है. सब हमारी वजह से. तुम्हारी एक करवट से होने वाली तकलीफ भी हम बर्दाश्त नहीं कर पाते. चारों ओर चीख-पुकार मच जाती है. हजारों-लाखों जानें चली जाती हैं. कुछ दिन तक हम चिंतित होते हैं और फिर अपने ढर्रे पर चल पड़ते हैं. अभी कल रात की ही तो बात है, जब तेज आंधी आई. हम सब परेशान हो उठे. घरों के खिड़की-दरवाजे बंद करने पड़े. तेज बारिश में भी हम सब यही करते हैं. हम कितने स्वार्थी हैं कि अपनी सुविधा से सारी चीजें चाहते हैं. तुम्हारी तो हमने कभी परवाह ही नहीं की. हमें लगता है कि धरा पर केवल और केवल हम ही हैं. हम भूल जाते हैं कि तुम्हें तो बहुतों का ख्याल करना पड़ता है. नर, नारी, पेड़, पशु-पक्षी, अनेक प्रकार के जीव-जंतु. सबको समय से खाना मिले, साफ पानी मिले...शुद्ध हवा मिले...ऐसा हो तो लोग निरोगी रहेंगे, ऐसा तुम सोचती हो..इसके लिए जरूरी है कि मौसम हमारा साथ दे. जाड़ा, गर्मी, बारिश, सब हो अपने-अपने समय पर. पर नहीं, हममें अब धैर्य बिलकुल नहीं. थोड़ी सी भी गर्मी, जाड़ा हम बर्दाश्त करने को तैयार नहीं. उसके लिए ढेरों कृत्रिम उपाय करने से भी हम बाज नहीं आ रहे.
काश! माँ, हम तुम्हे इतना ही हरा-भरा देख पाते-साभार   

खुद को छोड़कर हम तुम्हारी सभी संतानों को भी सताने में पीछे नहीं है. जो हमें ख़राब लगा, हमने उसे रास्ते से हटा दिया. कभी विकास के नाम पर तो कभी निजी स्वार्थ के लिए. वायदे हम बहुत से करते हैं, पर उन पर खरे नहीं उतरते. गंगा मैया के लिए बीते कई वर्षों से योजनायें बन रही हैं. उन पर अमल होने का नाटक भी हो रहा है लेकिन गंगा मैया की सूरत दिन-ब-दिन बिगड़ रही है. उनकी अन्य बहनों की हालत भी अच्छी नहीं है. सब रो रही हैं. कई तो उद्गम स्थल पर ही घुट रही हैं. बातें हो रही हैं, लेकिन उसका सकारात्मक असर दिखाई नहीं दे रहा है. कभी सडकों के नाम पर तो कभी नहरों के नाम पर, कभी किसी और विकास के नाम पर हम हजारों-लाखों पेड़ काट डालते हैं, पर फिर लगाने की चिंता हमें नहीं होती. हमारे अपने उत्तर प्रदेश में ही अभी प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगा, लेकिन यह क्या, केवल कागजी रह गया...फिर चारों ओर दिखने लगी. लाखों टन प्लास्टिक तो हमने अकेले लखनऊ में तुम्हारे हवाले कर दिया है. सब जानते हैं कि इसका इस्तेमाल हमारे लिए-तुम्हारे लिए, खतरनाक है. पर हम सुधरेंगे नहीं, कसम खा ली है हमने. इतना सब होता जा रहा है. सब कुछ तुम हंसते-हँसते झेल रही हो..मुझे पता है कि तुम तकलीफ में हो. पर, हमें कोई तकलीफ न हो, इसलिए हमारे ढेरों अत्याचार तुम बर्दाश्त करती रहती हो.
हे, धरती मैया..नमन करता हूँ आपको..मुझे और मेरे जैसों को थोड़ी सद्बुद्धि दो जिससे हम तुम पर अत्याचार न करें. मैं जानता हूँ कि तुम्हारी ख़ुशी में ही हमारी ख़ुशी है..पर ये इंसान है सबसे बड़ा जानवर..इसीलिए तो ऐसी गन्दी-गन्दी हरकतें करता है..माँ, तुझे सलाम, तुम्हारे धैर्य को सलाम. बार-बार.

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