कसम से, हम नहीं सुधरेंगे
नोएडा और दिल्ली की सीमा पर जिन लोगों ने स्कूटर, कार चलाई है या उसमें बैठे हैं, उन्होंने एक सीन जरूर देखा होगा. जैसे ही कार दिल्ली सीमा में घुसने लगेगी, चालक, चाहे वह किसी भी पद पर क्यों न हो, तत्काल सीट बेल्ट बांध लेगा या फिर स्कूटर / मोटर साइकिल वाले लोग हेलमेट लगा लेंगे. फिर जब यही नोएडा लौटेंगे तो चलती गाड़ी में ही सीट बेल्ट खोल देंगे या फिर हेलमेट उतार कर अपनी बांहों में टांग लेंगे. सभी जानते हैं कि ऐसा क्यों होता है? पर करते ज्यादातर लोग ऐसा ही हैं.
ज्यादातर वाहन चालकों को पता है कि दिल्ली पुलिस ने नियम-कानून का उल्लंघन करते धरा तो जुर्माना दिए बगैर छूटेंगे नहीं और उत्तर प्रदेश पुलिस ने पकड़ा तो तय है कि जोर-आजमाइश करके छूट ही जाएंगे. हर आदमी की किसी न किसी राजनीतिक दल के वार्ड अध्यक्ष से लेकर विधानसभा अध्यक्ष तक में, किसी न किसी से जान-पहचान होती ही है. और हमारी पुलिस भी उन्हीं के आगे-पीछे भागने की आदती हो गई है. गुरुवार को जब लखनऊ में आईटीबीपी के जवान सड़क पर उतरे तो बड़े-बड़े सूरमा भी राइट टाइम नजर आने लगे. किसी ने नियम तोड़ने की कोशिश भी की और उसकी नजर इन जवानों पर पड़ गई, तो वो खुद-ब-खुद पीछे हट गया. पुलिस वाले भी इनके निशाने पर आये और एक इशारे में ही पीछे हट गए या फिर रास्ता बदल लिया. यह देखना बेहद सुखद रहा उनके लिए जो लोग नियम-कानून के तहत गाड़ियाँ चलाते हैं, दुखद रहा उनके लिए जो नियम तोड़ने में ही अपनी शान समझते हैं. तय है कि ये जवान यातायात संचालन के लिए नहीं हैं. इस खास फ़ोर्स का गठन तैनाती इंडो-तिब्बत सीमा की सुरक्षा के लिए किया गया था. यही फ़ोर्स भारत के राष्ट्रपति की भी सुरक्षा करती है. पर, मूल सवाल यह है कि हम और हमारी पुलिस नहीं सुधरने वाली.
इन जवानों ने थोड़ी सी कोशिश में दिखा दिया कि शहर का यातायात ठीक किया जा सकता है, बशर्ते पुलिस अपने असली स्वरूप में आये. किसी के दबाव में न आये लेकिन किसी से बदसलूकी भी न करे. अपना इकबाल कायम करे. कोई कारण नहीं है कि पब्लिक न सुधरे. पब्लिक भी इसलिए बिगड़ गई है क्योंकि उसे पता है कि सिपाही, दरोगा उसकी जरा सी भी कोशिश झेल नहीं पाएंगे. उसकी पहुँच इलाकाई विधायक जी के मौसी के लड़के की साली के बेटे तक जो है. अगर उसका फोन नहीं उठा तो भी कोई बात नहीं. मोहल्ले के वार्ड अध्यक्ष की बीवी का भतीजा तो फोन उठा ही लेगा. वही पर्याप्त होता है किसी भी पुलिस वाले से निपटने के लिए. असल में पुलिस ने अपना इकबाल हाल के वर्षों में खो दिया है. छोटे से लेकर बड़े पुलिस वालों का हाल यही है. ज्यादातर पुलिस अफसर अब इस रूप में पहचान बना चुके हैं कि अमुक सरकार के खास हैं तो बेहतरीन पोस्टिंग तय है. वही अधिकारी कभी खास और कभी आम इसलिए हो जाता है क्योंकि वह पार्टी के लिए काम करने का आदती है. अगर वह कानून और जनता के लिए काम करे तो कोई कारण नहीं कि पुलिस का इक़बाल वापस न लौटे. पर, शायद अब बहुत देर हो चुकी है. पहले बड़े अफसरों ने फिर छोटे कर्मचारियों ने भी वही रास्ता अख्तियार कर लिया. कई बार तो मैंने खुद देखा है कि उसी नेता के सामने सिपाही भी पहुंचा हुआ है, जिसके सामने गिडगिडा कर कप्तान साहब गए हैं.
मौजूदा व्यवस्था में पुलिस एक ऐसा तंत्र है, जिसके सहारे सभी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते आ रहे हैं. किसे बंद करना है और किसे छोड़ना, यह पुलिस नहीं नेता जी तय करते हैं. कानून नहीं, नेता जी से दोस्ती और दुश्मनी पर यह बात तय होती है. मुझे याद है, जब मैं छोटा था. पुलिस का एक सिपाही गाँव में आता तो कोहराम मच जाता. किताबों में, कहानियों में भी पुलिस के इकबाल के ढेरों किस्से भरे पड़े हैं. फ़िल्मी दुनिया पुलिस के इसी चेहरे को बार-बार याद दिलाती है. नेता-अफसर-अपराधी, गठजोड़ आज आम है. इसीलिए पुलिस का इकबाल कम हो चला है और केन्द्रीय बलों के जवान सडकों पर यातायात सुधारने उतर रहे हैं. उनके उतरते ही सब ठीक हो जाता है और जैसे ही हमारी सिविल पुलिस उतरती है, बे-पटरी हो जाता है. कारण साफ है. पुलिस को खुद को राजनीतिक आकाओं के चंगुल से निकलना होगा. तभी यह संभव है. बीते लगभग 30 वर्ष पहले गिरावट का यह सिलसिला शुरू हुआ है, जो आज भी बदस्तूर है. अगर कानून का राज कायम करना है तो पुलिस को फिर से शायद इतने ही बरस लगेंगे चीजों को सुधरने में. नेताओं के गलत काम को न कहने में और गरीब आदमी के सही काम को हाँ कहने में. तभी बात बनेगी और नोएडा पुलिस का रुतबा भी दिल्ली पुलिस जैसा होगा और लखनऊ पुलिस का रुतबा केंद्रीय बलों जैसा. फ़िलहाल मेरा सैल्यूट आईटीबीपी के जवानों को, जो कुछ घंटे में ही यह सन्देश देने में कामयाब रहे.
ज्यादातर वाहन चालकों को पता है कि दिल्ली पुलिस ने नियम-कानून का उल्लंघन करते धरा तो जुर्माना दिए बगैर छूटेंगे नहीं और उत्तर प्रदेश पुलिस ने पकड़ा तो तय है कि जोर-आजमाइश करके छूट ही जाएंगे. हर आदमी की किसी न किसी राजनीतिक दल के वार्ड अध्यक्ष से लेकर विधानसभा अध्यक्ष तक में, किसी न किसी से जान-पहचान होती ही है. और हमारी पुलिस भी उन्हीं के आगे-पीछे भागने की आदती हो गई है. गुरुवार को जब लखनऊ में आईटीबीपी के जवान सड़क पर उतरे तो बड़े-बड़े सूरमा भी राइट टाइम नजर आने लगे. किसी ने नियम तोड़ने की कोशिश भी की और उसकी नजर इन जवानों पर पड़ गई, तो वो खुद-ब-खुद पीछे हट गया. पुलिस वाले भी इनके निशाने पर आये और एक इशारे में ही पीछे हट गए या फिर रास्ता बदल लिया. यह देखना बेहद सुखद रहा उनके लिए जो लोग नियम-कानून के तहत गाड़ियाँ चलाते हैं, दुखद रहा उनके लिए जो नियम तोड़ने में ही अपनी शान समझते हैं. तय है कि ये जवान यातायात संचालन के लिए नहीं हैं. इस खास फ़ोर्स का गठन तैनाती इंडो-तिब्बत सीमा की सुरक्षा के लिए किया गया था. यही फ़ोर्स भारत के राष्ट्रपति की भी सुरक्षा करती है. पर, मूल सवाल यह है कि हम और हमारी पुलिस नहीं सुधरने वाली.
इन जवानों ने थोड़ी सी कोशिश में दिखा दिया कि शहर का यातायात ठीक किया जा सकता है, बशर्ते पुलिस अपने असली स्वरूप में आये. किसी के दबाव में न आये लेकिन किसी से बदसलूकी भी न करे. अपना इकबाल कायम करे. कोई कारण नहीं है कि पब्लिक न सुधरे. पब्लिक भी इसलिए बिगड़ गई है क्योंकि उसे पता है कि सिपाही, दरोगा उसकी जरा सी भी कोशिश झेल नहीं पाएंगे. उसकी पहुँच इलाकाई विधायक जी के मौसी के लड़के की साली के बेटे तक जो है. अगर उसका फोन नहीं उठा तो भी कोई बात नहीं. मोहल्ले के वार्ड अध्यक्ष की बीवी का भतीजा तो फोन उठा ही लेगा. वही पर्याप्त होता है किसी भी पुलिस वाले से निपटने के लिए. असल में पुलिस ने अपना इकबाल हाल के वर्षों में खो दिया है. छोटे से लेकर बड़े पुलिस वालों का हाल यही है. ज्यादातर पुलिस अफसर अब इस रूप में पहचान बना चुके हैं कि अमुक सरकार के खास हैं तो बेहतरीन पोस्टिंग तय है. वही अधिकारी कभी खास और कभी आम इसलिए हो जाता है क्योंकि वह पार्टी के लिए काम करने का आदती है. अगर वह कानून और जनता के लिए काम करे तो कोई कारण नहीं कि पुलिस का इक़बाल वापस न लौटे. पर, शायद अब बहुत देर हो चुकी है. पहले बड़े अफसरों ने फिर छोटे कर्मचारियों ने भी वही रास्ता अख्तियार कर लिया. कई बार तो मैंने खुद देखा है कि उसी नेता के सामने सिपाही भी पहुंचा हुआ है, जिसके सामने गिडगिडा कर कप्तान साहब गए हैं.
मौजूदा व्यवस्था में पुलिस एक ऐसा तंत्र है, जिसके सहारे सभी राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक रोटी सेंकते आ रहे हैं. किसे बंद करना है और किसे छोड़ना, यह पुलिस नहीं नेता जी तय करते हैं. कानून नहीं, नेता जी से दोस्ती और दुश्मनी पर यह बात तय होती है. मुझे याद है, जब मैं छोटा था. पुलिस का एक सिपाही गाँव में आता तो कोहराम मच जाता. किताबों में, कहानियों में भी पुलिस के इकबाल के ढेरों किस्से भरे पड़े हैं. फ़िल्मी दुनिया पुलिस के इसी चेहरे को बार-बार याद दिलाती है. नेता-अफसर-अपराधी, गठजोड़ आज आम है. इसीलिए पुलिस का इकबाल कम हो चला है और केन्द्रीय बलों के जवान सडकों पर यातायात सुधारने उतर रहे हैं. उनके उतरते ही सब ठीक हो जाता है और जैसे ही हमारी सिविल पुलिस उतरती है, बे-पटरी हो जाता है. कारण साफ है. पुलिस को खुद को राजनीतिक आकाओं के चंगुल से निकलना होगा. तभी यह संभव है. बीते लगभग 30 वर्ष पहले गिरावट का यह सिलसिला शुरू हुआ है, जो आज भी बदस्तूर है. अगर कानून का राज कायम करना है तो पुलिस को फिर से शायद इतने ही बरस लगेंगे चीजों को सुधरने में. नेताओं के गलत काम को न कहने में और गरीब आदमी के सही काम को हाँ कहने में. तभी बात बनेगी और नोएडा पुलिस का रुतबा भी दिल्ली पुलिस जैसा होगा और लखनऊ पुलिस का रुतबा केंद्रीय बलों जैसा. फ़िलहाल मेरा सैल्यूट आईटीबीपी के जवानों को, जो कुछ घंटे में ही यह सन्देश देने में कामयाब रहे.
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