जब खेत ही मेड़ को खाए तो उसे कौन बचाए?

छोटे भूखंडों पर हुए अनियमित निर्माण अब सरकारी खजाने में कुछ पैसे जमा करने के बाद नियमित कर दिए जाएंगे. इस आशय का फैसला लखनऊ विकास प्राधिकरण ने कर लिया है. खबरों के मुताबिक इसे अप्रैल से लागू किया जाएगा. तर्क यह है कि इससे अभियंताओं की ओर से की जा रही उत्पीड़नात्मक कार्रवाई रुक जाएगी. कितनी गजब बात है कि प्राधिकरण भी मानता है कि उसके अभियंता आमजन का उत्पीड़न करते हैं. अधिकारी यह भी मानते हैं कि तीन हजार वर्ग फुट तक के मकानों के साथ ऐसी समस्याएं ज्यादा हैं. बिलकुल सही फ़रमाया आप ने जनाब. एक कहावत बड़ी मशहूर है - 

जब खेत ही मेड़ को खाने लगे तो भला उसे कौन बचाए?
पहले तो गलियों तक में कुछ ऐसी ही इमारतें बन जाती हैं और किसी भी जिम्मेदार को दिखता नहीं. (साभार)
लखनऊ विकास प्राधिकरण और आवास विकास परिषद ने जितनी कालोनियां बसाई हैं, चाहे लखनऊ शहर में या फिर कहीं और, एक बार नजर उठाकर देखिये..इनकी दयालुता छलछला कर हर जगह टपकती नजर आती है. सौ-डेढ़ सौ साल की कौन कहे, ये तो 25-50 साल आगे भी नहीं देख पाते. अलीगंज में कपूरथला से पुरनिया होते हुए केन्द्रीय विद्यालय अलीगंज की ओर बढ़िए, एक तरफ से बड़े-बड़े शोरूम दिख जाएंगे. गोमतीनगर थाने से पत्रकारपुरम, हुसेडिया होते हुए हेनिमेन चौराहे तक चलते जाइए, हर जगह इनका प्रदर्शन खरा दिखता है. आवासीय कालोनी में बड़े-बड़े कॉम्प्लेक्स बन जाते हैं. इन्हें पता भी नहीं चलता. फिर अचानक ये जागते हैं, और भवन निर्माता को एक नोटिस देकर अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो जाते हैं. कुछ दिन बाद पता नहीं कैसे सब कुछ सामान्य हो जाता है. मैं किसी भी सूरत में न तो अवैध निर्माण की वकालत कर रहा हूँ और न ही अवैध को वैध करने की. मेरा तो यह कहना है कि जब आप कालोनी प्लान करते हैं तो क्यों नहीं समझ आता कि यहाँ के लोगों की जरूरतें भी पूरी करनी होंगी. छोटा-मोटा कॉम्प्लेक्स बना भी दिया तो वहां पार्किंग का संकट खड़ा होता दिखता है. नरही जैसे घने मोहल्ले में अपार्टमेंट खड़ा होता है, इन्हें नहीं दिखता. ये कैलाश कुञ्ज जैसी व्यावसायिक इमारत बनाते हैं, जो वर्षों गुजर जाने के बाद भी आबाद नहीं हो पाती. अवैध कब्जेदार यहाँ मस्ती से व्यापार करते हैं. उन्हें हटाने तक की ताकत नहीं जुटा पाते ये अफसर. और अब चले हैं अनियमित निर्माण को नियमित करने. सरकारी एजेंसी न हुई, मुनाफाखोर/सूदखोर हो गए. व्यवहार से ऐसा ही लगता है. पहले खुद की जेब गरम की और अब सरकारी खजाने को भरने का प्रयास शुरू कर दिया. हद है अदूरदर्शिता की. कोई इन्हें समझने वाला भी नहीं है.

फिर गिरा दी जाती हैं ऐसी इमारतें..अरे भाई गिरना ही था तो बनाने क्यों देते हो? (साभार )
एक किस्सा याद आता है. मेरे एक जानने वाले को अपनी झोपड़ी टाइप दुकान को पक्का कराने  का ख्याल आया. पैसा था नहीं. बैंक से लोन मिलने की स्थिति नहीं थी. व्यापारी थे तो उन्होंने बाजार से पैसा लेने का फैसला किया. सारी चीजें तय हो गई. तब प्राधिकरण का ख्याल आया. अधिकारियों ने उन्हें बताया कि नक्शा पास होने में कुछ दिक्कतें हैं. आप निर्माण शुरू कर दो, हर छत का दो लाख रुपया पड़ेगा. इसके बाद हम आप को नोटिस देंगे लेकिन कार्रवाई नहीं करेंगे. जब निर्माण पूरा हो जाएगा तब शमन शुल्क जमाकर निर्माण को वाजिब ठहरा दिया जाएगा. वे खुश. सब कुछ वैसा ही हुआ, जैसा तय था. जब बेसमेंट समेत चार मंजिल खड़ा हो गया, तो एक दिन किसी बड़े साहब की नजर पड़ गई. उन्होंने जानकारी ली, सारे इंजीनियर साहेबान फाइल के साथ तलब हुए. कागज का पेट भरा हुआ था. साहब ने सोचा बिना भरोसे में लिए यह गुस्ताखी. फिर क्या था..आनन-फानन बुलडोजर पहुँच गए. दो घंटे में पूरा निर्माण जमींदोज हो गया. अब व्यापारी की हालत पतली. एक ही बात बोला बन्दे ने - 'सब कुछ तो इन लोगों से पूछ कर किया था फिर ये सब क्या हो गया.' उस समय इंजीनियरों ने यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि हमने तो बनवाने की बात की थी. ऐसे न जाने कितने किस्से मिल जाएंगे इस शहर में या फिर किसी और शहर में.

मुझे यह नहीं समझ आता कि इन्हें बड़े-बड़े निर्माण दिखते नहीं और अगर किसी छोटे-मोटे आदमी ने एक खिड़की गलत लगा ली या फिर अपने बच्चे के लिए गैराज में एक छोटी सी दुकान खोल ली तो इनके पेट में दर्द उठने लगता है. ये तो नाइंसाफी है.

या तो मेरी समझदानी कमजोर है या फिर सरकारी तंत्र की नियत में खोट है. आखिर जो निर्माण अवैध है वह कुछ पैसे देने के बाद वैध कैसे हो जाएगा? इसे तो गुंडा टैक्स कहा जाना चाहिए. अब अगर सरकारी तंत्र भी वैध को वैध और अवैध को अवैध नहीं कह सकता, तो फिर बड़ी मुश्किल होने वाली है. और इसका सामना आम जनता को करना होगा. मुझे लगता है यह स्थिति ठीक नहीं है. शहर के लिए. यहाँ के लोगों के लिए. आने वाली पीढी के लिए. एक आम शहरी होने के नाते मैं सभी जिम्मेदारों से यह विनम्र अपील करना चाहूंगा कि वे जनता के टैक्स से मिले पैसे से रोटी खाते हैं. उनकी नजर में जनहित सर्वोपरि होना चाहिए. पर बहुत दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि हमारे ही भाई-बंधु अधिकारी हैं लेकिन इनका व्यवहार अंग्रेज अफसरों से भी बदतर है. जिसे कतई स्वीकार नहीं किया जा सकता. मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी मंत्रियों को इस ओर ध्यान देना चाहिए. क्योंकि इन्हें काबू में करने का हक उन्हीं के पास है. अगर ये जनहित के नाम पर अपनी दादागीरी यूं ही चलाते रहे, तो देश और समाज का बड़ा नुकसान हो रहा है और अभी कुछ ज्यादा ही होगा.

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