गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 27 / दूसरा संग्राम

गणेश शंकर विद्यार्थी 
यह कम आश्चर्य की बात नहीं कि संसार की एक पराधीन जाति को छह मास के भीतर ही अपने प्रारंभिक स्वत्वों की रक्षा के लिए संसार में अपने व्यक्तियों को पशु नहीं, किन्तु साधारण मनुष्य कहलवाने के लिए अपने से कहीं जबर्दस्त शक्तियों के साथ असमान लड़ाई लड़नी पड़ी. दक्षिण अफ्रीका के संग्राम को हुए अधिक दिन नहीं गुजरे कि पराधीन भारतीयों को दूसरे घोर संग्राम के लिए तैयार होना पड़ा है. कनाडा के पश्चिमीय समुद्र-तट पर गुरुनानक नाम का एक जहाज खड़ा हुआ है. उसमें लगभग छह सौ भारतीय हैं. वे कनाडा की भूमि पर उतरना चाहते हैं, पर कोलंबिया प्रदेश के लोग, जिनके तट पर जहाज खड़ा है, उन्हें किसी तरह भी नहीं उतरने देते.
भारतीयों ने प्रार्थना की कि हमें उतरने का स्वत्व प्राप्त है, यदि तुम नहीं मानते, तो एक राजकीय कमीशन नियत करो, जो हमारे स्वत्वों की जाँच करे. यह प्रार्थना अस्वीकार की गई. उधर भारतीय भी किसी तरह पीछे नहीं हटना चाहते. उनके नेता सरदार गुरुदत्त सिंह सर्वोच्च अदालत तक अपने इस स्वत्व के लिए लड़ने को तैयार हैं. कनाडा के हिन्दुओं ने मिलकर वहां के अधिकारियों से प्रार्थना की, कि हम लोग डेढ़ लाख रुपये की जमानत देते हैं, यदि आप गुरुनानक के यात्रियों को उस समय तक भूमि पर उतारे रहने की आज्ञा दें, जब तक स्वत्व की बात का फैसला अदालत से न हो जाय. परन्तु, यह बात भी अस्वीकार हुई. अंतिम निर्णय यह रहा कि इस स्वत्व के फैसले के लिए इमिग्रेशन विभाग के अध्यक्ष के सभापतित्व में एक कमेटी बैठे. गुरुदत्त सिंह की ओर से एक वकील नियत हुआ. उत्तरी अमेरिका में कनाडा अंग्रेजी क्षत्र के नीचे एक बड़ा भारी देश है. उसकी हजारों मील भूमि खाली पड़ी है. चार लाख वर्ग मील के कोलंबिया प्रदेश में मुश्किल से चार लाख आदमी रहते हैं. यह कनाडा की घनी बस्ती का उदाहरण है. पहिले पहिल 1907 में भारतीय इस देश में पहुंचे. लगभग पांच-छह हजार सिख इस समय कनाडा में है. अपने पुरुषार्थ और मेहनत से उन्होंने वहाँ कुछ अपनी हैसियत बना ली है. नियमानुसार सिख गोरों से अधिक मेहनती और मितव्ययी हैं, और नियमानुसार कनाडा के गोरे निवासी भी इसीलिए उनसे चिढ गए हैं. गोरों ने शोर मचाया. फल यह हुआ कि एक कानून बना कि वही भारतीय कनाडा में आ सकें, जो सीधे भारत से कनाडा आवें. इस तरह भारतीयों के लिए कनाडा का दरवाजा बंद कर दिया गया, क्योंकि कोई जहाज भारत से सीधे कनाडा नहीं जाता. परन्तु गत वर्ष अक्टूबर में 35 हिन्दू सीधे भारत से कनाडा पहुँच ही गए. उन पर मुकदमा चला.
अन्याय करने वालों में भी कभी-कभी न्याय प्रिय लोग देख पड़ते हैं. कनाडा की बड़ी अदालत के चीफ जस्टिस हंटर साहब ने उन हिन्दुओं को निर्दोष बताया, और साथ ही इस कानून की बड़ी ही तीव्र आलोचना की. कनाडा भर में सनसनी फ़ैल गई. गोरे निवासियों ने आसमां सिर पर उठा लिया. अंत में एक कानून और पास हुआ कि जब चाहें, तब कनाडा सरकार देश में मजदूरों का आना किसी भी नियत समय के लिए रोक दिया करे. इस तरह पहली जनवरी से 31 मार्च तक के लिए कनाडा में मजदूरों का आना रोक दिया गया. इधर एक जहाज को किराये पर लेकर सरदार गुरुदत्त सिंह अपने 600 साथियों के साथ कलकत्ते से कनाडा के लिए चल पड़े. वे 31 मार्च के बाद कनाडा पहुँचने वाले थे. इधर कनाडा के अधिकारियों को यह समाचार मिला. उन्होंने बड़ी ही शांति के साथ अवधि बढ़ाकर 30 सितम्बर कर दी. भारतीय जहाज कनाडा के समुद्र तट पर पहुंचा, और इसी अवधि के झगड़े के कारण रोक दिया गया.
इस कथा के दूसरे रुख के देखने की भी आवश्यकता है. भारतीयों ही के लिए यह सारी रुकावटें है. चीनी और जापानियों के मुकाबले में कनाडा की एक नहीं चलती. पांच सौ जापानी हर साल कनाडा जा सकते हैं. चीनियों पर कुछ टैक्स है, जिसे देकर वे बे-रोक-टोक कनाडा की पवित्र भूमि के ऊपर घूम फिर सकते हैं. भारतीय ही ऐसे हैं जो एक ही राजा की प्रजा होते हुए इस बुरे व्यवहार के पात्र समझे गए हैं. कोलंबिया प्रान्त के लोगों ने यहाँ तक कह डाला है कि इंगलैंड के हाथों से भारत भले ही निकल जाए, परन्तु हम भारतीयों को अपने तट पर न उतरने देंगे. ये शब्द किसी जिम्मेदार आदमी के नहीं हो सकते, यदि हैं तो इंगलैंड अपने लाडलों की राज-भक्ति का नमूना देखे. इंगलैंड, उसके उपनिवेश और भारत-सभी के लिए यह बहुत अच्छी बात है कि इस बात का पूरा निर्णय हो जाय कि भारतीयों को अंग्रेजी छत्र के स्वीकार करते हैं कि सभी जिम्मेदार निरंकुश नहीं हैं, और न सभी में बुरी लतें और स्वार्थ भरा है, परन्तु 'वेंकटेश्वर' का किसान के स्वत्वों की रक्षा की बात से यह समझ बैठना भी भ्रम है कि प्रजा के हाथ में उनके (जमींदार के) दबाने के लिए अस्त्र दिया जाता है. किसानों का उठाया जाना जमींदारों पर अत्याचार नहीं करना नहीं है. किसानों के उठाने से वे जमींदार भी मनुष्य बन जाएंगे, जो अभी तक आकाश में उड़ते हैं. मनुष्य होकर आकाश में डेट फिरना अनुचित है, इसलिए यह सुधार बुरा भी नहीं. देश के नीच जाति का उठाना जितन आवश्यक है, लगभग उतना ही आवश्यक किसानों को नीचे से उठाकर मनुष्यों के बराबर स्थान देने का काम भी है. 'वेंकटेश्वर' इस बात के समझने की परवाह नहीं करता. प्रश्न की गहराई नापने के लिए वह अपने रंगीले शब्दाडम्बर में प्राचीनकाल के भारतीय राजतंत्र प्रणालियों और यूरोपियन प्रजातंत्र प्रणाली की छान-बीन, तथा राष्ट्रीयता के भाव से सिर साफ कर डालने को शुभ सलाह देता है. अच्छी बात है, परन्तु हमारी केवल यही प्रार्थना है कि हमारा सहयोगी भी तनिक मनुष्य को मनुष्य समझने का कष्ट उठावे, और समझे कि उसी परम पिता ने उस दीन हीन, घृणा के पत्र, पददलित व्यक्ति को भी जनमाया है, जिसने उच्च जाति के हर जगह प्रतिष्ठा पाने वाले पुरुष को उत्पन्न किया है.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख प्रताप में 7 जून 1914 को प्रकाशित हुआ. (साभार)

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