गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 49 / स्वदेशी आन्दोलन का वर्तमान रूप

गणेश शंकर विद्यार्थी 
1901 की कलकतिया कांग्रेस के सभापति, देश के आर्थिक प्रश्नों की नस-नस की अच्छी जानकारी रखने वाले, व्यापर कुशल मि. डी. ई. बाचा ने अपने विद्वतापूर्ण भाषण में कहा था कि आज आधी शताब्दी से अधिक का समय बीत गया कि 30 करोड़ रुपये की रकम से लेकर 40 करोड़ की रकम तक भारत से हर साल बाहर चली जाती है. आज इस बात को कहे हुए 13 वर्ष हो चुके. तब से व्यापर बढ़ गया है. इसमें संदेह नहीं, कि यदि भारत के व्यापार के सारे अंको  को इकठ्ठा करके हिसाब लगाया जाय, तो हमें वह रकम भी बढ़ी हुई मिलेगी, जो आज लगभग 60-70 वर्ष से हर साल हमारे देश से बाहर निकल कर हमें राष्ट्रीय दरिद्रता का शिकार बनाती जाती है. इस दरिद्रता का उपाय केवल यही है कि हम अपनी रक्षा करें, हम पूरा ख्याल रखें कि कोई हमारा खून चूसने न पावे. स्वदेशी आन्दोलन इस रोग का इलाज है.
आज से कुछ वर्ष पहिले लोगों ने इसी अस्त्र को ग्रहण किया था, और आज फिर वही बाना धारण किया जा रहा है. हम स्वदेशी आन्दोलन के सिद्धांत का ह्रदय से आदर करते हैं. हम उसे देश की उन्नति का मूलमंत्र समझते हैं. परन्तु, दुर्भाग्य से या सौभाग्य से, हमें स्वदेशी आन्दोलन के वर्तमान रूप पर तनिक भी विश्वास नहीं. यह आन्दोलन युद्ध के कारण उठा. यदि युद्ध न हुआ होता, तो शायद इसका जन्म ही न होता. कितने ही लोगों की धरना है, जिनमें अधिकारियों से लेकर हमारे कुछ नेता और हमारे कुछ पत्र तक सम्मिलित हैं, कि इस अवसर पर हमें नहीं चूकना चाहिए. यदि सचेत रहकर हमने काम किया तो हम अपने बाजार से जर्मनी और आस्ट्रिया का माल निकाल देंगे. इसी कारण कलकत्ता में प्रदर्शिनी हो रही है. इसी कारण बंगाल सरकार ने अपना एक अफसर देशी व्यवसाय की जाँच-पड़ताल के लिए नियत किया है. इसलिए मद्रास सरकार एक दियासलाई के कारखाने की ओर झुकी है और इसीलिए देश के कारखाने वालों ने अपनी करवटें बदली हैं. हाथ-पैर हिलाना बुरा नहीं है. परन्तु इस अवसर के औचित्य पर हमें संदेह है. आज युद्ध ज्वर से लोगों के भीतर गरमी है. कल युद्ध शांत हो जाएगा, और कौन कह सकता है कि हमारी क्रियाशील आत्माएं भी कठिनाइयों के मुकाबले मन ठंडी न पड़ जाएँगी?
फिर केवल आस्ट्रिया और जर्मनी ही हमारे मुंह का भोजन छिनाने वाले नहीं हैं. यदि हम सचमुच किसी भ्रम में पड़े हुए नहीं हैं, और हमें अपने व्यवसाय को बढ़ाना है, तो हमें अन्य देशों से बाजार की लड़ाई लड़नी पड़ेगी, और इन देशों में, हमारे प्रभुओं के देश इंगलैंड का स्थान सबसे प्रथम हैं. हम सभी विदेशी चीजों के वहिष्कार के सिद्धांत की आवश्यकता नहीं समझते, क्योंकि किसी देश के बुद्धिमान निवासी इस बीसवीं शताब्दी में इस बात पर कमर नहीं कस सकते कि वो विदेशी वस्तुओं को लेंगे ही नहीं. जब वे विदेशों में अपना व्यापार फैलाना चाहते हैं, तो उन्हें अपने यहाँ भी विदेशों का माल किसी न किसी रूप में कुछ न कुछ अवश्य आने देना पड़ेगा. वहिष्कार एक घृणा सूचक भाव है. जब हमें इस समय आस्ट्रिया और जर्मनी का माल लेना ही पड़ता है, तो इंगलैंड के माल का वहिष्कार करना अनुचित और असंभव है. पर यदि हम अपनी व्यावसायिक उन्नति चाहते हैं, तो हम इंगलैंड के प्रति इस विषय में उदासीन भी नहीं रह सकते. हम उन बातों को भूल सकते हैं, जिनसे हमारा व्यापर नष्ट हुआ. वैज्ञानिक उन्नति ने तो हमारी कारीगरी को गिरा ही दिया, पर स्वार्थ-पूर्ण कारस्तकानियों ने भी हमारे व्यापार को कुछ कम तहस-नहस नहीं किया. हम इन सारी बातों को इसलिए भूल सकते हैं कि अब गड़े मुरदे उखाड़ने से अधिक लाभ नहीं. हम इन सारी बातों को इसलिए भी भूल सकते हैं कि भारत के शासकों और शासितों में कटुता न बढ़े, पर हम अपने आगे के रास्ते की कठिनाइयों को नहीं भूल सकते.
यह एक खुली हुई बात है कि भारत कच्चा माल पैदा करने वाला रह गया है, और इस माल से इंगलैंड ही बहुत लाभ उठाता है. इंगलैंड ने जिस प्रकार भारत पर व्यापारिक प्रभुता पाई, वह बात बहुत ही कटुतापूर्ण है. परन्तु इस प्रभुता को दूर करना तो दूर की बात है, उसके कम करने का प्रयत्न करना भी कम विकटता-पूर्ण नहीं है. हमारे शासक वर्तमान स्वदेशी आन्दोलन के साथ हैं, पर, वे इंगलैंड के विपक्ष में उसका कभी साथ नहीं दे सकते. इस आन्दोलन की सफलता में और भी बहुत कठिनाइयाँ हैं, जिनके विषय में हम अपना मत आगामी अंक में प्रकट करेंगे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 13 दिसंबर 1914 को 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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