गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 45 / सभ्यता और युद्ध

गणेश शंकर विद्यार्थी 
संसार के एक हिस्से में बड़ी मार काट हो रही है. लाखों परिवार तबाह हो रहे हैं. नगर और गाँव धूल में मिल रहे हैं. लोग परेशान हैं. उन्हें चिंता है, चिंता लड़ने की, आत्म-रक्षा की, और भभकती हुई अग्नि के शांत करने की, जिनका युद्ध से कोई सम्बन्ध नहीं है, वे भी व्यथित हैं. उनका काम बंद है. वे मानते हैं, युद्ध बंद हो. दयार्द्र हृदयों में, विचारशील दिमागों में भी युद्ध के अंत के लिए विचारों की बाढ़ चक्कर मार रही है.
सभी लोग वर्तमान अवस्था पर विचार कर रहे हैं. वे उसके कारण भी ढूढते हैं, और हथियार बंदी, वयापार की प्रतिद्वंदिता, लागडांट, उद्दंडता, और अहम्मन्यता की नीति आदि तक पहुंचकर संतुष्ट हो जाते हैं, परन्तु यह दशा उनकी है, जिनके सिर पर युद्ध का डंका बज रहा है. जो अपना युद्ध से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध समझते हैं, और जिन्हें सांसारिक प्रश्नों पर संसार के हित और अहित ही की दृष्टि से देखने की बुरी या भली आदत है. एक दूसरे प्रकार के भी आदमी हैं. अधिकतर हमारे देश ही को इनकी जन्मभूमि होने का गर्व और गौरव प्राप्त है. युद्ध की भीषणता की छींट तक यहाँ नहीं पड़ती. सुख निद्रा का पूरा सामान है. कूपमंडूकता ने संसार से नमस्कार ही करा छोड़ा है. अपढ़-कुपढ़ लोगों की बातें तो निराली हैं ही, उनकी समझ से तो मानो उन्ही के सिर पर युद्ध की तोपें चल रही हैं. पर, पढ़े-लिखे सुसभ्य सज्जनों की रीति-नीति भी किसी प्रकार साधारण नहीं. युद्ध पर विचार होता है. युद्ध के कारण बड़ी ही गंभीरता और बारीकी से खोजे जाते हैं. फल निकलता है. सभ्यता का एक हिमायती खड़ा होता है. हाथ उठाकर वह कहता है, "संसार देखे, युद्ध का बड़ा भारी कारण यह था कि 'पश्चिमीय' सभ्यता की नीव खोखली थी, और वर्तमान युग में जर्मनों और अंग्रेजों के ऊपर तोपों के गोले नहीं गिर रहे हैं, किन्तु उस सभ्यता-निकृष्ट, भयंकर हीन सभ्यता के महल पर बिजलियाँ गिर रही हैं." और साथ ही, सभ्यता का यह दूत अपनी ऊँची आवाज से संसार को 'पूर्वीय' सभ्यता का सन्देश सुनाकर 'शुभ', आवश्यक और अत्यंत रोचक काम काम पूरा करता है. एक जगह नहीं, अनेक जगह यही तमाशे हो रहे हैं. कहीं बड़े जोर-शोर के साथ और कहीं साधारण ढंग से.
बैठे ठाले कुछ काम होना ही चाहिए. निःसंदेह यह भी एक काम है, नहीं, एक बड़ा काम है. 'सभ्यता' की सेवा है. उसके विकास में हाथ लगाना है. सभ्यता के 20 वीं शताब्दी के इतिहास में, कोई आश्चर्य नहीं, सेवकों की इस अच्छी सेवा का प्रकाशमान अक्षरों में जिक्र हो. ज़माने की एक बड़ी भारी जरूरत है. हम नहीं जानते कि वह कैसे पूरी होगी, और कौन पूरी करेगा? नारमन एंजेल ने एक ग्रन्थ रचा. संसार ने जाना कि युद्ध की सारी बातें वैसी ही नहीं हैं, जैसी समझी जाती हैं, उनमें से बहुत सी ऐसी भी हैं, जो 'भारी भ्रम'ही हैं. पर, संसार कम से कम एक भारी भ्रम और भी है. हम नहीं जानते को वह उस भ्रम से छोटा है या बड़ा, जो आज जर्मनों की मात्रा से अधिक देश-भक्ति का कारण है. परन्तु, इतना हम अवश्य कह सकते हैं, कि वह भ्रम उनके लिए उतना हानिकारक नहीं जिन्हें संसार को अपनी आँखों से देखने का अवसर प्राप्त है, जितना उनके लिए, जिनकी आँखें अपनी चाहरदीवारी से बाहर ही नहीं जातीं. यह है 'सभ्यता का भ्रम'. इसी भ्रम के उपासकों ने सभ्यता को अपने घर की एक कोठरी में बंद कर रखा है.
बस, उन्हीं की सभ्यता सच्ची, और शेष सबकी झूठी, और खोखली. झूठी सभ्यता के कारण योरप के महायुद्ध का जन्म हुआ. परन्तु, सच्ची सभ्यता का शायद उस समय जन्म ही न हुआ था. जब विभीषण ने लंका के भेद राम को बताये थे, जब कुरुक्षेत्र में रक्त बहा था, जब मुसलमानों ने भारत लिया था, और जब 'सच्ची सभ्यता' पर अंग्रेजों के रूप में 'खोखली सभ्यता' का राज्य हुआ था. धक्का खाने पर, चोट लगने पर, अफीम की पीनक दूर हो सकती है, पर सर्वस्व खोकर भी यह नशा-यह भ्रम-दूर नहीं हुआ है. दूसरों के पतन के कारण ढूढ़े हैं, दूसरों के झगड़ों की नींव को खोज निकलने के लिए समाधि लगे जाती है, परन्तु अपनी दुर्गति पर भूल कर भी नजर नहीं डाली जाती. सभ्यता संसार के किसी कोने में बंद नहीं है, और न ही वह कहीं की निवासिनी है. हम महात्मा गांधी के इस भाव के हैं कि सभ्यता न पूर्वीय है और न पश्चिमी, उसकी हदबंदी नहीं हो सकती. पश्चिम की सभी बातें बुरी नहीं हैं, और न पूरव की सभी बातें अच्छी ही हैं. विवेक-परिमाण पर उनकी समाप्ति समझिये, जो दूसरों की आँखों की फूली ही देखते फिरते हैं, परन्तु जिन्हें अपने आँख की शहतीर की खबर नहीं.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 1 नवम्बर, 1914 को 'प्रताप' में प्रकाशित हुआ था. (साभार)     

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