गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 55 / हिन्दू विश्वविद्यालय

गणेश शंकर विद्यार्थी 
अपनी स्थिति को प्रकट करने, तथा सरकारी शर्तों के औचित्य और उनकी अनुकूलता दर्शाने के लिए हिन्दू विश्वविद्यालय की कमेटी ने वह व्यवस्था प्रकशित की है जिसके अनुसार आगे विश्वविद्यालय का काम होगा. व्यवस्था का प्रकाशन केवल उसी के लिए नहीं हुआ है, पग-पग पर इस बात के समझाने की कोशिश करना, कि प्रस्तावित विश्वविद्यालय सरकारी विश्वविद्यालयों से अच्छा होगा, एक ऐसा काम है, जो विश्वविद्यालय कमेटी की इस क्रियाशीलता का और ही मतलब प्रकट करता है, और साथ ही उसके उस अविश्वास को मुश्किल से छिपा सकता है, जो उसे अपनी ही बातों पर है.
'हिन्दू  विश्वविद्यालय निवासयुक्त शिक्षालय होगा. अध्यापक और छात्र विश्वविद्यालय के आसपास ही रहेंगे. वर्तमान विश्वविद्यालय ऐसे नहीं हैं, वे केवल परीक्षा लेने वाली संस्थाएं हैं. हिन्दू विश्वविद्यालय में धार्मिक शिक्षा होगी और लड़कों की धार्मिक और शारीरिक उन्नति की ओर ध्यान दिया जाएगा.' परन्तु अच्छा होता, यदि कमेटी कृपा करके यह भी बतला देती, कि धार्मिक शिक्षा में किस धर्म का आश्रय ढूढ़ा जाएगा? विश्वविद्यालय का शासन दो मण्डलियों के हाथ में रहेगा-एक का नाम होगा कोर्ट, और दूसरी का नाम सेनेट . कोर्ट में 10 हजार रुपये से अधिक के चंदा देने वाले हिन्दू होंगे. पांच सौ से लेकर 10 हजार रुपये तक चंदा देने वालों को कोर्ट में अपने प्रतिनिधियों के भेजने का अधिकार होगा. बड़े-बड़े विद्वान् और धार्मिक पुरुष भी इस कोर्ट में प्रतिनिधि स्वरुप इस कोर्ट में लिए जाएंगे. कोर्ट के हाथ में विश्वविद्यालय का सभी प्रबंध रहेगा. कोर्ट की एक कार्यकारिणी कौंसिल होगी, जिसमें उसके केवल 20 मेंबर होंगे. सेनेट का काम शिक्षा और शिक्षार्थियों की बातों का प्रबंध करना होगा. सेनेट  में 50 मेम्बर होंगे, जिनमें पांच तो विजिटर महाशय नियत करेंगे और शेष चुने हुए, तथा विश्वविद्यालय के कालेजों के प्रोफ़ेसर आदि होंगे. सेनेट में तीन चौथाई मेम्बरों का हिन्दू होना आवश्यक है. सेनेट की कार्यकारिणी समिति का नाम 'सेंडीकेट' होगा. पाठक, यहीं से विजिटर के अधिकार पर दृष्टि रखें. कोर्ट की काउंसिल प्रोफेसर, अध्यापक आदि नियत करेगी. गवर्नर जनरल तथा उनकी कौंसिल के आदेशानुसार विश्वविद्यालय के कानून-कायदे बनाये जाएंगे, और उनमें विजिटर की इच्छा के अनुसार ही परिवर्तन हो सकेंगे.
किसी नए विषय की कक्षा या उसका कालेज सरकार की आज्ञा बिना नहीं खुल सकेगा, और आरम्भ में (1) हिन्दू ब्रह्मविद्या (2) पूर्वीय शिक्षा, (3) साहित्य (4) विज्ञानं और (5) कानून की पढाई का प्रबंध होगा, आगे चलकर धन हाथ आते ही शिल्प-कला, व्यवसाय और औषधि विज्ञान की पढाई का प्रबंध होगा. हम इस क्रम को अच्छा नहीं समझते. हिन्दू ब्रह्म विद्या और पूर्वीय शिक्षा उनके लिए अधिक लाभकारी नहीं हो सकती, जिन्हें रोटियों के लिए संसार के कठिन संग्राम पथ से गुजरना है. कानून की शिक्षा की अभी क्या आवश्यकता है?  यदि वकील पैदा करने हैं, तो क्या वे कम हैं? और क्या वर्तमान विश्विद्यालय काफी से अधिक वकील पैदा नहीं कर रहे ? यह भी नहीं कहा जा सकता कि हिन्दू विश्विद्यालय वकीलों के पैदा करने की अधिक अच्छी मशीन होगी. औषधि विज्ञान, व्यवसाय और शिल्प-कला की शिक्षा अधिक उपयोगिनी होती, पर किन्हीं कारणों से, जिन्हें विश्वविद्यालय की कमेटी अपने ही तक रखना चाहती है, शायद ये कारण इतने बुरे हैं कि उन्हें प्रकट करके वह बाहरी लोगों को दुःख नहीं पहुँचाना चाहती, वह इनकी शिक्षा को रुपये की कमी के नाम पर आगे के लिए टालती है.
'विश्वविद्यालय अपना चांसलर आप चुनेगा.' परन्तु, विश्वविद्यालय का काम चांसलर के हाथ में नहीं होता, सारा काम वायस-चांसलर करता है. हिन्दू विश्वविद्यालय का वायस-चांसलर 'कोर्ट' से चुना तो जाएगा, परन्तु उसकी नियुक्ति को मंजूरी देगा विजिटर. 'विजिटर विश्वविद्यालय का निरीक्षण भी करता रहेगा और वह हिसाब-किताब भी देखेगा.' कमेटी के इस छोटे से विवरण में लगभग सात स्थानों पर इस बात के सिद्ध करने की बहुत कोशिश की गई कि हिन्दू विश्वविद्यालय वर्तमान विश्वविद्यालयों से कहीं स्वतंत्र होगा, इसमें हिन्दुओं ही का हाथ अधिक रहेगा. केवल सीनेट में सरकार के पांच मेम्बर होंगे. कोर्ट में एक भी न होगा, कोर्ट के सभी मेम्बर हिन्दू होंगे और कोर्ट के हाथों ही में सब बातों का अधिकार होगा, इत्यादि-इत्यादि. गवर्नर जनरल को कुछ असाधारण अधिकार प्राप्त होंगे, जैसे किसी प्रोफ़ेसर को निकाल देना, किसी बाहरी परीक्षक को नियत कर देना, इत्यादि. कमेटी का कहना है कि गवर्नर जनरल अपने इन अधिकारों को उसी समय काम में लावेंगे, जब वे देखेंगे कि इनको काम लाये बिना विश्वविद्यालय हानि से नहीं बच सकता. साथ ही, कमेटी का यह भी कहना है कि यदि इस तरह काम न होगा, तो विश्वविद्यालय की कौंसिल इस बात को गवर्नर जनरल के सामने पुनर्विचार के लिए फिर पेश करेगी.
अंत में, भारत की बढ़ती हुई जागृति के भरोसे पर आशा की गई है कि सरकार कोई काम ऐसा नहीं करेगी, जो लोकमत के विरुद्ध हो और यदि उसने कोई ऐसा काम किया भी, तो भारत और भारत से बाहर के शिक्षा-विज्ञानं के जानकारों से सलाह ली जाएगी. यदि उनकी राय सरकार के अनुकूल रहेगी, तो दबना ही उचित होगा, और यदि सरकार के मत के खिलाफ हुई, तो सरकार को उस पर विचार करना ही पड़ेगा. कमेटी की व्यवस्था का यही सार है. कमेटी ने बड़ी कोशिश की है कि लोगों के जी से सरकारी हस्तक्षेप का ख्याल निकल जाए. हम नहीं समझते कि उसे सफलता हुई है. विजिटर के अधिकार बड़े ही खतरनाक हैं, और हम आगामी अंक में उनकी और अन्य बातों की आलोचना करेंगे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप'में 25 जनवरी 1915 को प्रकाशित हुआ था. (साभार) 

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