गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 44 / टर्की की गति

गणेश शंकर विद्यार्थी 
इस समय संसार के सामने एक प्रश्न है. इस महायुद्ध में टर्की चुप रहेगा, या वह भी मैदान में कूद पड़ेगा? जर्मनी से उसे सहानुभूति है. इस सहानुभूति के एक नहीं, अनेक चिन्ह मिल चुके हैं, जिनसे पता लगता है कि रंग बुरा है, और शीघ्र ही कोई नया गुल खिलने वाला है. 1898 में जर्मन कैसर टर्की गए. मित्रता बढ़ी. तुर्कों ने समझा कि कैसर ही हमारा हितू है और संसार के मुसलमानों ने समझा कि "इस लाभ का मुहाफिज और हामी अगर कोई गैर मजहब का बादशाह है, तो वह कैसर ही है. आम लोगों को तो यहाँ तक ख्याल है, कि वह दिल से मुसलमान हैं, मगर जाहिर इगराज सल्तनत पर नजर करके वह अपने को दीन मसीही का पेरू जाहिर करता है. "
इसी मित्रता की नींव पर टर्की में जर्मनी का प्रभाव बढ़ा. जर्मन व्यापारियों ने टर्की में अपने अड्डे बनाये. जर्मनों ने सार्वजानिक कामों में हाथ लगाया. स्कूल और कालेजों का निर्माण हुआ. रेल और गिरिजों का स्वांग किया. पत्र निकले. जर्मनी तुर्क सिपाहियों का शिक्षालय बना. पैर से लेकर सिर तक टर्की पर जर्मन चादर तान देने में कोई कसर नहीं छोड़ी गई. इटली ने ट्रपली पर आक्रमण किया. जर्मनी इटली का दोस्त था. उसने इटली को ट्रपली हड़प जाने से नहीं रोका. इस पर तुर्क तनिक छनके, परन्तु फिर हालत वही हो गई. जर्मनी ने बालकन युद्ध में टर्की का कुछ पक्ष भी लिया. एड्रिया भोपाल का प्रसिद्द किला तुर्कों से फिर नहीं छीना गया. कहा जाता है, कि ऐसा जर्मनी के कारण हुआ. जो हो, इसी प्रकार सम्बन्ध बढ़ता गया, और आज संसार को यह भय है कि कहीं टर्की भी जर्मनी का पक्ष लेकर रण-क्षेत्र में न कूद पड़े. यह भय कुछ नई बातों से और भी बढ़ता जाता है. लड़ाई के आरम्भ होते ही टर्की ने एक गहरी चाल चली. टर्की में योरप के निवासी रहते हैं. जब किसी विदेशी पर अभियोग चलता है, तब उसका मुकदमा तुर्की अदालत में तय नहीं होता. हर देश के कौंसलर रहते हैं. वही उसके मुकदमे का फैसला करते हैं. यदि वादी और प्रतिवादी में से एक तुर्क और दूसरा विदेशी हुआ तो भी विदेशी कौंसिलर बीच में पड़ता है. यह प्रणाली आज वर्षों से चली आती है. टर्की कमजोर है. उसे दबाकर योरपीय राष्ट्रों ने यह ढोंग रच रखा है.
इसमें टर्की का सरासर अपमान है, पर मान हो या अपमान, बेचारा कर ही क्या सकता है? ऊँगली उठाने पर योरोपीय राष्ट्र उसको तोड़ कर रख देते. जापान की भी यही दशा थी, परन्तु उसने चीन को परास्त किया. संसार ने उसका बल जाना और उसकी सभ्यता को स्वीकार कर लिया. तभी से उसकी अदालत के फैसलों के सामने विदेशियों को भी सिर झुकाना पड़ता है. टर्की को यह मौका अच्छा मिला. उसने अपने कंधे से अपमान और हीनता के इस जुए को उतार फेंका. उसने घोषणा कर दी. योरप के हाथ बेतरह से फंसे हैं, इसलिए उसने इस घोषणा को चुपचाप सुन लिया. इतना ही नहीं, और बातें भी हुईं. दो जर्मन जहाज हैं, ग्रीबन और ब्रोसलो. लड़ाई छिड़ते ही वे भागकर टर्की के समुद्र में पहुंचे. टर्की ने उन्हें पकड़ लिया. लोगों ने शिकायत की कि तुर्क अधिकारी जहाजों के जर्मनों से घुलमिलकर बात करते हैं. टर्की ने कहा, नहीं हमने इन दोनों जहाजों को खरीद लिया है. दूसरे दिन उन पर टर्की झंडे का चन्द्र चमचमाने लगा. इसके बाद टर्की ने अपना समुद्री मुहाना डारडे-नेलीज बंद कर दिया. सभी राष्ट्रों के जहाजों का आना-जाना रुक गया. रूस में गेहूं की फसल तैयार थी. कटकर गेहूं इंगलैंड और फ्रांस पहुँचता, पर अब रूस में पड़ा-पड़ा सड़ेगा. इंगलैंड, फ्रांस आदि को टर्की की यह चल पसंद न आई, पर वे बोले कुछ भी नहीं, क्योंकि टर्की को अपने मुहाने बंद करने का पूरा अधिकार है. इसके पीछे खबर आई, कि ग्रीबन और ब्रोसलों में वही जर्मन काम कर रहे हैं, जो उनमें पहिले थे, और उन दोनों जर्मन अध्यक्ष तुर्की जहाजी बेड़े का अध्यक्ष बना दिया गया है. ये जहाज कृष्ण सागर में रोमानिया के समुद्र तट पर घूम रहे हैं, और समुद्र में तोपों का धड़ाका भी सुनाई पड़ा है और उनका अध्यक्ष रुसी बेड़ों पर आक्रमण कर देना चाहता है.
इधर, रोमानिया में एक घटना भी हो गई, अंग्रेजी पार्लियामेंट के एक मेम्बर  और उसके भाई पर एक तुर्क ने गोली चलाई. आरम्भ से लेकर अब तक जो काम हुए, उनसे यही पता लगता है कि टर्की जर्मनी का साथ देना चाहता है. अंग्रेज प्रतिनिधि ने ग्रीबन और ब्रोसलों पर से जर्मनों को हटा देने के लिए टर्की से कहा, परन्तु टर्की ने इनकार कर दिया. भूसे के ढेर में चिंगारी पड़ने में देरी नहीं मालूम होती. टर्की में तीन पार्टियाँ हैं. सेनापति अनवर बेदी जर्मनी के पलड़े में अपनी तलवार फेंक देने के लिए तुला बैठा है, दूसरा अंग्रेजों से सहानुभूति रखता है और तीसरा चुप रहना चाहता है. निःसंदेह इधर या उधर पड़ने से टर्की का चुप रहना ही अच्छा है. संभव है कि रोमानिया की तरह आगे चलकर उसे भी अपनी चुप्पी का कुछ प्रसाद मिल जाय. परन्तु तुर्कों में जर्मनी के पक्ष और इंगलैंड के विरुद्ध बड़ी उत्तेजना है. तुर्क स्वप्न देख रहे हैं कि वे शीघ्र ही अपने जुमे की नमाज पेरिस में पढेंगे. वे अभी तक कभी का जर्मनी का साथ दे देते, परन्तु उन्हें एक बात और भी रोके हुए है. रोमानियां, बुल्गारिया और ग्रीस ने आपस में संधि की है कि, यदि टर्की बढ़ा, तो ये तीनों उस पर झपटेंगे. 'हमदम' ने खबर दी थी कि टर्की और ग्रीस में मुठभेड़ हो गई. अभी रियूटर चुप है, पर वह कब तक चुप रह सकता है? यदि कहीं टर्की फिसल पड़ा, जर्मनी के प्रलोभन ने सुल्तान को अपनी कटार निकल लेने के लिए तैयार कर लिया तो हमें डर है, कि योरप में खून की नदियाँ और भी बेग से बहेंगी. ग्रीस, रोमानियां और बल्गेरिया तो मैदान में आ ही जायंगे, कोई आश्चर्य नहीं, इटली और पुर्तगाल भी झपट पड़ेंगे. पाहिले मनुष्यों के शरीर का खून बहेगा, और उसके बाद उनकी आँखों से खून के आंसू.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी का यह लेख 'प्रताप' में 25 अक्टूबर 1914 को प्रकाशित हुआ था. (साभार)

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