गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 66 : लोकसेवा
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गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
जीवन के प्रत्येक विभाग में अधिकारी की शंख-ध्वनि की जाती है. काल की गति परखने वाले, बुद्धिमत्ता से और विश्वास से, अधिकारों के मोहन-मन्त्र की शक्ति का लोहा मान रहे, और मनवा रहे हैं. आयुर्वेदिक औषधि मकरध्वज की भांति प्रत्येक सामाजिक व्यथा में अधिकारों के मंत्र का प्रयोग किया जाता है.
हमें अमृत का पता नहीं, परन्तु इस युग के अमृत की तलाश में अधिक दूर जाने की आवश्यकता भी नहीं. यह अमृत मृग-तृष्णा सदृश है. अधिकार लोलुप उत्साह और आकांक्षा की मूर्ति, और उन्नति, अभ्युदय का परमोपासक होता हुआ भी अधिकारों की देवी के पास नहीं फटकने पाता.
गणेश शंकर विद्यार्थी जी लेख-एक / घोर संग्राम
सच्चे अधिकारों की विभूति उस पर कहकहा मारती है, और कहती है, 'उस ड्योढ़ी पर चढ़ने की योग्यता तुममे नहीं. जा, और अधिकारों की सत्ता का प्रचार उस छोटे से छोटे स्थल पर कर, जो सारे अधिकारों का केंद्र है, जो सारी इच्छाओं का आरम्भ स्थान है, और जो संसार पर अपने अधिकारों की दुंदुभी बजाने की शक्ति की प्राप्ति का मुख्य साधन है.'
परन्तु जहाँ प्रकृति की इस टेर की अवहेलना की जाती है-और दुर्भाग्य से, वर्तमान युग इस टेर की परवाह नहीं करता-वहां मानव हृदय के उस पवित्र मंदिर का ह्रास आरम्भ हो जाता है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाता है और जो उसे ऊपर उठाता है.
आडम्बर ऐसी वास्तु नहीं जिसके सामने सिर झुकाया जाय, परन्तु धर्म की शक्ति उसकी उज्ज्वलता, और उसकी जीवन संचालिनी, सन्देश-दायिनी और मर्म स्पर्शिनी सत्ता से किसे इनकार है ? धर्म मनुष्य को मनुष्य बनाता है. वह उसकी शक्तियों को केन्द्रित और प्रभावशाली बनाता है.
वह उसे उच्च, पवित्र और सच्चे अधिकारों का अधिकारी बनाता है. कोरे अधिकारों के विचार में यह बात नहीं. उसमें तड़क-भड़क है, उसमें तीव्रता और प्रखरता है, परन्तु प्रत्येक ज्वर के चढ़े हुए पारे को नीचे गिरना पड़ता है. मनुष्य का ह्रदय शांति चाहता है. वह शांति नहीं, जो यथार्थ में मुर्दापन है.
शांति अपने ह्रदय के भीतर कर्मण्यता की ज्योति रखती है. उसी के लिए अधिकारों के मैदान में सरपट दौड़ लगे जाती है. आशाएं की जाती हैं, परन्तु अधिकारों की चपलता से अवश्य उत्पन्न होने वाली क्षीणता, उद्विग्नता और निराशामयी अशांति के कारण आशा का प्याला होठों तक आकर छलक जाता है.
धर्म मनुष्य के ह्रदय की इस प्यास को बुझाता है. अधिकारवादी इस बात की परवाह नहीं करता. सच्चे अधिकार उसकी परवाह नहीं करते.
गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-दो / भीषण अत्याचार
'लोक सेवा' 20 वीं शताब्दी का सांकेतिक शब्द है. लोक सेवा के भाव ने मनुष्यता के शासन का झंडा बागी हृदयों तक पर गाड़ दिया है. कुलीनता के शुद्ध रक्तकणों का जादू टूट गया, और अप्राकृतिक असमानता के किले की दीवारें टूट-फूट गईं.
तलैया के बांध टूट गए, सहानुभूति का स्रोत अब किसी समूह विशेष के लिए सुरक्षित नहीं रहा. मनुष्यता की इस विजय पर सहृदयता के आनंद का पार नहीं. पर, एक बात खटकती है. अधिकार और धर्म का यहाँ भी द्वंद युद्ध हो रहा है.
लोक सेवा, लोक सेवा के लिए नहीं, आत्मा को उच्च और पवित्र बनाने के लिए नहीं, परन्तु आत्म-गौरव के लिए, ऊपरी वैभव के लिए और विश्व पर धाक ज़माने के लिए की जाती है.
गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-तीन / कर्तव्य या प्रायश्चित?
देश के नवयुवकों! तुम्हारे हृदय में लोकसेवा का भाव जागा है. यह अच्छी बात है. वह देश धन्य है, जिसके होनहार लालों के हृदयों में उसकी सेवा के लिए कर्मण्यता की लहरें हिलोरें मारती है. परन्तु, देश की इस पवन धरती के नाम पर-उस पवित्र जननी के नाम पर, जिसकी आराधना करने की लालसा तुम्हारे ह्रदय में प्रज्वलित हुई है-तुमसे यह प्रार्थना है कि तुम अपने सेवा पथ के उन प्रलोभनों में न फंस जाना, जो संसार की वर्तमान गति, अधिकारों की आड़ में, तुम्हें छिछोरा बनाने के लिए तुम्हारे सामने पेश करे.
इस जाल से सदा बचो. तुम एक नेक काम करते हो. यदि तुम गीता की शिक्षा के अनुसार उसे निष्काम करने में समर्थ नहीं हो, तो, स्वामी विवेकानंद के शब्दों में, तुम्हें यह क्या कम लाभ है कि उसके करने से तुम्हें उच्च और महान बनने का अवसर मिला ?
जिस काम को हाथ में लो, उसे धर्म-कर्तव्य की प्रेरणा से लो, और भले ही वह अत्यंत तुच्छ हो, पर तुम उसे अपने उच्च लक्ष्य की ओर दृष्टि रखा ही करो. तुच्छ कार्य की सात्विक सफलता महान कार्य को आप से आप तुम्हारे हाथों में ला डालेगी.
गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-चार / प्रायश्चित की आशा
देश के आशा-फल नवयुवक ! जब तुम अपना काम पवित्र भाव के इस अनुभव के साथ करोगे, तब तुम्हारा नैतिक प्रभाव देश के प्रत्येक युवक के ह्रदय को जगाकर उस प्रकार लाखों वीर पैदा करेगा, जिस प्रकार की 300 मूर्तियाँ हम इस समय हरिद्वार के कुम्भ में अपने लाखों भाइयों की निष्काम सेवा करते हुए देखते हैं.
तुम्हारी कृति का पुण्य तुम्हारे करोड़ों भाइयों के उस उत्थान का कारण होगा, जिसे संसार की कोई भी शक्ति नीचे दबा नहीं सकेगी, और तुम्हारा देश व्यापी त्याग, मनुष्यता के विश्व-व्यापी शुभ साम्राज्य के झंडे को इतना अधिक ऊँचा करेगा कि अन्य गिरे हुए देश उससे जीवन और आशा का पुनीत सन्देश पावेंगे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख प्रताप में 19 अप्रैल 1915 को प्रकाशित हुआ.
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