गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 67 : एक आवश्यक प्रश्न

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
देश के कार्य-क्षेत्र को अधिक शुद्ध तथा उसे अधिक आकर्षक, उपयोगी और सार्थक बनाने के लिए उसमें बड़े भारी परिवर्तन की आवश्यकता है. हमारे यहाँ नेता हैं, कार्य-क्षेत्र के सूत्रधार हैं, परन्तु नेता और नेता में अंतर है और वह अंतर जितना यहाँ देखा जा सकता है उतना शायद ही अन्य किसी सजीव देश में देखा जा सके.
यह भी हमारे देश की अधोगति का एक चिन्ह है. इन नेताओं के ढांचे में अंतर पढ़ने की आवश्यकता है. कुछ मास हुए, पंजाब के एक दैनिक पत्र ने इस प्रश्न को बड़े जोर से उठाया था. नेताओं की तलाश में उसने देश भर में अपनी दृष्टि फेरी थी, और बड़े साहस के साथ, नई लहर के ऊपर दृष्टि रखते हुए उसने बहुत से देश के ऐसे महापुरुषों तक को नेता मानने से इनकार कर दिया था, जिन्होंने यथार्थ में अपना सब कुछ देश के महल की नींव में डाल दिया है.
उसके फैसले में सख्ती थी, पर चिरकाल से अपने ही आदमियों की अयोग्यता और अनुचित आकांक्षाओं का दबाव सहने वाला सजीव ह्रदय कब तक चुपचाप पिसता रह सकता है ? विश्व-व्यापी लहर ने उस उस ह्रदय को सन्देश पहुँचाया तथा, और उसी की प्रेरणा से उसने पुराने अकर्मण्य देवताओं को छुट्टी दे देना ही उचित समझा.
नेताओं के ढांचे में परिवर्तन होना आवश्यक है.

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-पांच / क्या संसार में हमारे लिए स्थान नहीं ?

पर, इस प्रकार की उतावली आवश्यकता नहीं. नेताओं में, चाहे वे नेता बनाए गए हों, और चाहे अपने नेतृत्व के ब्रह्मा वे स्वयं ही हों, बहुत ही कम दोष है. दोष है हमारी रूचि में. उसमें घोर परिवर्तन होना चाहिए. हमने जागृति का मर्म नहीं समझा है. उसका नाम जपते हैं, पर यह नहीं जानते कि उसका काम क्या है?
हमारे कामों में जागृति के चिन्ह नहीं हैं. उन पर घोर निद्रा की छाप है. संसार की नई गति के परखने में हमारी रूचि मानों सुषुप्त अवस्था में है. यदि ऐसा न होता, तो हम केवल बड़े नामों की पूजा न करते.
दूसरों पर इसलिए हँसते हुए, कि रुपए, आना और पाई के दास हैं, हम इसी रुपये आना-पाई की सौ-सौ परिक्रमा न करते और पतंगे की भांति उस दीपक पर न्योछावर होने की मारे-मारे न फिरते. एक राजा केवल अपनी उपाधि और राज्य के बल से, एक महाराजा केवल अपने ऊपरी वैभव और शान की सहायता से, हमारी श्रद्धा का, हमारे नेतृत्व का, हमारी पूजा का, पात्र न होता.
एक कशी नरेश को काशी के राज्य में पुजने दो, एक रामपुर के नवाब, या पहासू के नवाब की कदर रामपुर और पहासू में होने दो, पर वे इन प्रान्तों की कानूनी सभा के कैसे हो जाते, यदि इन प्रान्तों के आदमियों में बड़े नाम और बड़े दाम की उपासना का निकृष्ट भाव काम न करता हो ?

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-छः / अनुसंधान कमेटी या जले पर नमक !

वे सदस्य हो भी जाते, पर, यदि यह भाव लोगों में न होता, तो उस समय, जबकि पता चलता कि इन 'महापुरुषों' ने प्रान्त के हित के प्रतिकूल कार्य-कारिणी कौंसिल की रचना के विषय में राय दी है, इन प्रान्तों में ही जन्म ले तथा बढ़कर उसके तथा उसके निवासियों के हित के सम्बन्ध में उन्होंने अधिकारीयों के अनुसार दल को खुश करने के लिए विदेश में उत्पन्न और इस देश का अन्न खाने पर भी इस देश की कम परवाह करने वाले बटलर-क्रेडक-कारलाइल त्रयी का पक्ष लिया है, तब उन पर प्रान्त के घर-घर से तिरस्कार का स्वर उठता.
देश के राजा और धनवान देश के सच्चे प्रतिनिधि नहीं हैं. उनमें से अधिकांश में शिक्षा, कर्तव्य परायणता और नैतिक साहस की कमी है. कालेकांकर के स्वर्गीय राजा रामपाल सिंह अपने एक राजा सम्बन्धी का जिक्र किया करते थे. जिधर लाट साहब का हाथ उठता, उधर ही राजा साहब का उठता.
हमने के ऐसे धनवान और अर्धशिक्षित, मेम्बर का हाल सुना है, जो अपना वोट उसी ओर देता है, जिधर अधिकांश गोर हाथ उठते हैं. देश की गति के खिलाफ यह कितना चलते हैं, यह देखना है, तो प्रान्तिक कौंसिल के राय नत्थी मल बहादुर की चाल देखिए.
पब्लिक सर्विस कमीशन के सामने आप की गवाही बड़े मजे की थी, और देशी व्यवसाय में सरकारी सहायता के प्रश्न के आप बड़ी ही विचित्र रीति से विरोधी हैं. अधिकारीयों के इशारे पर ये लोग किस प्रकार नाचते हैं, यह बात बहुत से अवसरों पर देखी जा सकती है, पर इससे बढ़कर शायद ही मिले, जो अभी अवध के ताल्लुकेदारों के विषय में मिली थी.
वे समझे कि श्रीमान सर जेम्स मेस्टन प्रान्तिक कार्यकारिणी कौंसिल के खिलाफ हैं, बस, अधिकांश ने आँख मूँद कर अपनी समझ से लाट साहब का साथ दे दिया. अब पता लगा कि लाट साहब ने भी उनकी सभा के सभापति - बलरामपुर के महाराज - को एक साधारण चिट्ठी लिखी. चिट्ठी से असाधारण काम हुआ. ताल्लुकेदारों की सभा हुई. सबने मिलकर उन्होंने भी, जो पहले विरुद्ध थे-कार्यकारिणी कौंसिल की रचना आवश्यक बतलाई, और उसके प्रस्ताव पर बज्रपात करने वालों को गलियां सुनाईं.

गणेश शंकर विद्यार्थी लेख-सात / वीरों की दृढ़ता

बड़े नाम वालों के कार्यों के ये कुछ उदाहरण हैं. लगभग सभी जगह यही रंग-ढंग है. इस लीला, इस भ्रम से देश के उन्नति चक्र को मंद गति न होने देने के लिए आवश्यक है कि देश वालों के ह्रदय में यह बात जम जाय कि उच्च कुल, बड़ा नाम और बहुत धन के भीतर देश की उन्नति के लिए अत्यंत आवश्यक योग्यता, कर्तव्य परायणता और नैतिक साहस का होना आवश्यक नहीं है.
पिछले गुणों का पहले गुणों से बैर नहीं है, पर पहले गुण के सनद-पत्र नहीं. पिछले गुण पहले गुणों को न रखते हुए भी आदरणीय हैं. पर केवल पहले गुणों के सामने  सिर झुकाना मनुष्यता के सच्चे तत्व का अपमान करना और अपने को पतित बनाना है.
केवल बड़े कुल, बड़े नाम और बहुत धन से विष फ़ैलाने वाले के सिवा और कोई काम नहीं हो सकता. और इस विष की रोक इसी में है कि अपने भीतर इस विचार को किसी प्रकार भी न आने दो कि इनके रखने वाले तुम्हारे देश के भाग्य-विधाता हैं.  
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 26 अप्रैल, 1915 को प्रताप में प्रकशित हुआ.

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