गणेश शंकर विद्यार्थी के लेख 68 : एक राहु-ग्रस्त राष्ट्र
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गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
पूर्वीय मंगोलिया और मंचूरिया में जापानियों की बस्तियां बस जाएँगी, फोकीन प्रान्त में जापान को बहुत सी रियायतें मिल जाएँगी, सिंगटाओं और पोर्टअर्थर सदा के लिए जापान के हो जाएंगे. इतना ही नहीं, चीन अपनी सेना की शिक्षा के लिए जापानियों के सिवा अन्य जाति वालों को नियत न कर सकेगा, और जापान की आज्ञा बिना वह न तो किसी से कर्ज ले सकेगा और न किसी विदेशी को अपने यहाँ नौकर रख सकेगा और न अपना कोई स्थान किसी अन्य राष्ट्र को दे सकेगा.
सारांश यह कि चीन की चोटी जापान के हाथ होगी और उसके इशारे बिना उसकी मजाल न होगी, कि वह अपना सिर तक हिलाने का साहस करे. क्या चीन का इतना कमजोर कर दिया जाना साधारणतः संसार की भलाई की दृष्टि से, और विशेषत: एशिया महाद्वीप के पिछड़े हुए देशों की उन्नति के विचार से उचित है, और क्या चीन को इस दुर्दशा में पहुँचाने में जापान के सामने कोई भी उच्च लक्ष्य है?
कमजोरी किसी भलाई की सूचना नहीं है. उठते हुए चीन का-विश्व की ड्योढ़ी पर अपनी भेंट चढाने के लिए आगे बढ़ने वाले राष्ट्र का-सर दबा दिए जाने से संसार और उसके उच्च भावों का कल्याण और विकास नहीं हो सकता. संसार के सोते हुए राष्ट्र भी जागृति की आराधना करने लगे हैं. उनके ह्रदय को आशा का सन्देश मिल चुका है.
स्वेच्छाचारिता संसार में भले ही रहे, कमजोरों के सिर कुचले जाएँ, और स्वेच्छाचारिता अपनी विजय पर अकड़े, पर ये दृश्य, अधिक और इस बल के साथ नहीं रह सकते.
जहाँ इस विश्वास का जन्म हो गया, और बतलाइए, कौन सी ऐसी जागती हुई भूमि है, जहाँ ये अंकुर नहीं फूट पड़े हैं-वहां स्वेच्छाचारिता का आह्वान न होगा, क्रूर अत्याचारी के पैरों में भले ही लाचारी से सिर झुका दिया जाय, पर इस विवशता के भीतर न तो किसी जयचंद की आत्मा काम करेगी, और न वहां आशा का ह्रास ही होगा.
सौभाग्य से-संसार के सौभाग्य और हमारे महाद्वीप एशिया के सौभाग्य से-चीन एक ऐसा ही देश है. उसके बच्चों ने समय के ढंग को अच्छी तरह परख लिया है. वे कसौटी पर ठीक उतरे हैं. उन्होंने अपने पापों का प्रायश्चित करके, अपने कंधे का बोझ फेंककर और अपने घर का कूड़ा करकट साफ करके, संसार की उन्नति के सामने वह भेंट चढ़ा दी है, जिसके चढ़ाये बिना संसार का कोई भी देश आगे नहीं बढ़ सकता.
सोता हुआ राष्ट्र जाग पड़ा है. भले ही वह धक्के खाय-जमाने के और स्वार्थलोलुपों के-परन्तु कोई शक्ति उसे अब फिर निद्रा में अचेत नहीं कर सकती. क्योंकि परमात्मा का रक्षक हाथ उनके सर पर होता है, जो अपने पैरों के बल खड़े होकर उसकी पहली परीक्षा में सफलता प्राप्त कर चुकते हैं. जो शक्ति बढ़ती हुई ज्योति को बुझाने लपकेगी, वह थोड़े काल तक संसार को उसके प्रकाश से वंचित रखेगी, पर अंत में उसे उसका पतिंगा होकर भस्म हो जाना पड़ेगा.
थोड़े काल तक संसार घाटे में रहेगा, परन्तु चन्द्र बादलों से निकलेगा और वह दमकेगा अपने पूरे प्रकाश से, और प्रज्ज्वलित करेगा उन चकोरों के मुखों को, जो उसकी आशा में प्रकाश की ओर सिर उठाये होंगे. चीन के दबाए जाने से यही बात होगी.
संसार की उन्नति गति थोड़ी ही देर के लिए बंद होगी, और चीन की उन्नति के पाने की उत्सुकता में बैठे हुए देशों को थोड़ी ही देर के लिए विचलित होना पड़ेगा. परन्तु, अंत में एशिया के उज्जवल भविष्य के विश्वास और जागृति के भावों के दबे हुए बल की सजीवता के आधार पर यह दृढ़ता के साथ कहा जा सकता है कि स्वेच्छाचारिता और स्वार्थपरता का भंडाफोड़ हो जाएगा.
यदि हम थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि संसार में पुण्य की नहीं, पाप की जय होती है, नैतिक बल और सदाचार का नहीं, स्वेच्छाचारिता और स्वार्थ का डंका बजता है, और इस कारण जापान चीन को हड़प जाएगा, तो भी केवल बुद्धि की दृष्टि से देखने पर भी कम से कम हम काम में जापान का कल्याण नहीं समझते.
संसार में इस समय स्वेतांग राष्ट्रों का बोलबाला है. जापान ही अंधों में काना राजा है. चीन के बलवान हो जाने से स्वेतांगों की स्वेच्छाचारिता कम करने में जापान को उससे बहुत सहायता मिलती, और इन दो बड़े देशों के बीच में होने से एशिया के अन्य देशों का साहस बढ़ा रहता, और उन्हें उन्नति का मार्ग मिलता.
पर, चीन को दबा डालने पर जापान अकेला रह जाएगा. चीन की सभी बातों में पैर पसारने पर-फ़ौज, कर्ज, व्यापार, खान और रेलवे, सभी पर दांत लगाने पर-यह आवश्यक है कि एक दिन, जापान और उसके इस समय लड़ाई में फंसे हुए स्वेतांग मित्रों में अच्छी खटपट हो जाए. ऐसे अवसर पर उनके मुकाबले में कर्ज से लदे जापान का खड़ा रह सकना असंभव है.
योरप और अमेरिका इस शर्त में बंधे हुए हैं कि वे चीन की स्वाधीनता कायम रखेंगे. और साथ ही, योरप के महायुद्ध का एक बड़ा भारी कारण यह भी बतलाया जाता है कि बड़े-बड़े राष्ट्रों से छोटे-छोटे राष्ट्रों की रक्षा की जाय. यद्यपि स्वार्थ के समय शर्तनामों के विचार का काम करना कठिन है, और छोटे राष्ट्रों की रक्षा की बात भी केवल बात ही है, तो भी योरप और अमेरिका चीन में जापान का प्रभाव हो जाना नहीं देख सकेंगे और फुर्सत पाते ही शर्तनामे और दीनरक्षा की मधुर तानों के साथ जापान पर टूट पड़ेंगे.
चीन और जापान के सम्बन्ध का अंतिम समाचार यह है कि जापान के मंत्री ने चीन को सूचना दी है कि जब चीन जापान की सब शर्तें मंजूर कर लेगा, तब उसे केवोचाओ लौटा देने के विषय पर विचार किया जाएगा. पर, सिंगटाओ पर सदा के लिए जापान का कब्ज़ा हो चूका समझना चाहिए. कभी केवोचाओ जर्मनी के अधीन था. उस पर चढाई करते समय जापान ने कहा था कि उसे जर्मनी से लेकर चीन को दे दूंगा, पर जब कब्ज़ा हो गया तो टालमटोल करता रहा, और आज यह रंग लाया है. जर्मनी अपनी क्रूरता और बेईमानी के लिए कोसा जाता है, इंग्लैण्ड का साथी होते हुए भी जापान अपनी शठता के कारण जर्मनी से अच्छा नहीं कहा जा सकता.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 3 मई 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.
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