गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 69 : सुरापान की भयंकरता
101 वर्ष पहले गणेश शंकर विद्यार्थी की कलम से लिखा गया यह लेख आप को न केवल उस युग में ले जाएगा, अपितु, दुनिया के हालत, परिस्थितियों से भी वाकिफ कराएगा. यह भी बताएगा कि शराब के खिलाफ चल रही लड़ाई आदि काल से चली आ रही है. यह लेख शराब के ढेरों दुष्प्रभाव पर भी प्रकाश डाल रहा है. हर देश प्रेमी को स्वतंत्रता सेनानियों के ऐसे लेख जरुर पढ़ना चाहिए..
इस महायुद्ध के साथ योरप में एक महासंग्राम ऐसा हो रहा है, जिसमें रक्तपात नहीं होता, पर जिसकी जीत योरप वालों को इतना अधिक देगी, जितना कि वे और किसी प्रकार कदाचित ही पा सकते. यह युद्ध है उनका सुरादेवी के साथ. एक समय था कि उसे त्यागना तो दूर, हजार समझाने पर भी योरप वाले शराब की बुराइयाँ तक न समझते, परन्तु आज बड़े-बड़े शराबियों के हाथ के प्याले नीचे गिर रहे और गिराए जा रहे हैं.
दो-तीन वर्ष हुए जर्मनी के कैसर ने भाषण देते हुए कहा था, कि आगामी युद्ध में विजय लक्ष्मी उसी देश के हाथ रहेगी, जो सुरादेवी का बायकाट सबसे अधिक करेगा. कैसर के शब्दों की सच्चाई को उसके साथियों ने अच्छी प्रकार नहीं समझा है, जितना कि उसके शत्रुओं ने.
रूस अपनी उस हार को नहीं भूला है, जो उसने जापान के हाथों खाई. उस हार के कारणों में एक कारण रुसी सिपाहियों की बदमस्ती भी थी, जो बोद्का की बोतलें उनमें उत्पन्न करती थीं. बहुत खोकर रूस ने इस छोटे से मंत्र को सीखा, और आज हम देखते हैं कि लगभग डेढ़ अरब की वार्षिक आय पर लात मारकर रूस ने अपने यहाँ से शराब को देश निकला दे दिया.
सुरापान के वहिष्कार ने रूसियों को बहुत लाभ पहुँचाया और इस लाभ को देखकर फ़्रांस और इंग्लैण्ड ने भी इस मैदान में आगे कदम बढ़ाया है. फ़्रांस के होटलों में शराब की बोतलों का प्रवेश बंद हो गया और इंग्लैण्ड में सम्राट जार्ज के आगे बढ़ने पर सर्व-साधारण में शराब के विरुद्ध उत्तेजना फ़ैल गई है. और अब वहां शराब पर टैक्स बढ़ाने की योजना बन रही है.
शराब की रोकथाम में फ़्रांस और इंग्लैण्ड को उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी रूस में. इसका यही कारण हो सकता है कि रूस में प्रजा के अधिकार उतने नहीं, जितने इंग्लैण्ड और फ़्रांस में. और इसीलिए वहां राजा के एक इशारे से वह काम हो गया जो इन देशों में केवल प्रजा की इच्छा बिना हो ही नहीं सकता.
वह काम स्थाई नहीं होता, जिसके लाभ और हानि के विषय में भली प्रकार सोच-समझ नहीं लिया जाता. योरप के जिन देशों ने सुरापान का त्याग किया है, उन्होंने ऐसा उसकी हानियों को अच्छी तरह समझ और अनुभव करके किया है.
राना संग्राम सिंह के मुकाबले में अपनी सेना को हताश होती हुई देखकर बाबर को कुरान की शिक्षा याद आई थी. उसने पाक-परवर-दिगार से प्रार्थना करते हुए प्रायश्चित के रूप में अपने सब शराब के पत्र तुड़वा दिए थे और प्रतिज्ञा की थी कि अब शराब कभी नहीं पीऊँगा. बाद में उसने शराब पी या नहीं, पर उसका यह काम क्षणिक जोश के आधार पर हुआ था. इसका प्रभाव उसके साथियों पर बहुत ही कम पड़ा.
क्योंकि इतिहास हमसे कहता है कि विपत्ति में पड़े हुए बाबर के बेटे हुमायूँ ने फारस में अपने बहुत से दिन शराब के सहारे काटे थे. पर, बाबर और उसके साथियों की बात सम्राट जार्ज और उनके साथियों पर लागू नहीं है, क्योंकि इन्होने जो कुछ किया है, वह केवल क्षणिक जोश के प्रभाव से नहीं किया किन्तु उसकी भलाई और बुराई को समझकर किया. उन्होंने समझ लिया कि सुरा का गुणगान धोखे की टट्टी है, सुरा से लाभ नहीं, हानि है. हानि अन्न की, और धन की, हानि शरीर की और पुरुषार्थ की.
शराब खाद्य पदार्थो को सड़ा कर बनाई जाती है. इस सड़ी चीज के बनाने में प्रत्येक वर्ष इंग्लैण्ड चार करोड़ मन अन्न, शकर आदि नष्ट करता है. ऐसे समय में जब कि अन्न के लिए इंग्लैण्ड दूसरों का मुंह ताक रहा है, अन्न का यह नाश कैसी मुर्खता का काम होता. इंग्लैण्ड हर साल सुरा देवी को अपने दो अरब 40 करोड़ रुपये की भेंट देता है.
और इस खर्च का शरीर पर क्या फल होता है, वह स्वर्गीय लार्ड राबर्ट्स, फील्ड मार्शल वोल्सले और इंग्लैण्ड के पांच नामी डाक्टरों के इन शब्दों में प्रकट होता है-'सुरापान से सिपाही की संकेतों को देखने की शक्ति कम हो जाती है, उसकी तत्परता जाती रहती है, वह ठीक निशाना नहीं लगा सकता, वह जल्द थक जाता है, उसकी सहनशीलता लोप हो जाती है और पीड़ाएँ उसे अधिक कष्ट देने लगती हैं.'
योरप के शीत देशों ने सुरा की भयंकरता को भली-भांति समझ लिया है, पर गरम देश भारत इस स्पष्ट बात बात को समझने को तैयार नहीं. वहां अधिकारीगण लोगों की इस लत को छुड़ाने की सोच रहे हैं, और काम कर रहे हैं, परन्तु भारत में अधिकारीयों को इन बातों की परवाह नहीं. और वहां भी शराब की दुकानें खुल रही हैं, जहाँ पहले नहीं थी.
1901 में भारत में लगभग छः करोड़ की शराब खर्च हुई थी. चक्र को आगे ही बढ़ना चाहिए क्योंकि इसी उन्नति है. इसी हिसाब से 1910-11 में शराब का खर्च 10.5 करोड़ हो गया. अकेले इंग्लैण्ड से हर साल 60 लाख गैलन शराब आती है. अन्य देशों से आने वाली शराब का हिसाब नहीं, और उस अन्न के नाश का भी कोई हिसाब नहीं, जो देश के भूखे बच्चों के पेट से निकाल कर इस विष के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
यहाँ के अधिकारियो से यह आशा करना कि वह भी इंग्लैण्ड और फ़्रांस के अधिकारियों की भांति आगे बढ़ने की आवश्यकता समझें, व्यर्थ है, क्योंकि हमारे अधिकारियों के मन में बात तभी आती है, जब वह उन्हीं के मन में होती है.
हाँ, देश के जिन लोगों के हृदय में इस देश नाश को देखकर आह उठती हो, जो देश के स्वास्थ्य और जलवायु, और उसकी अवस्था को देखते हुए सुरापान को हानिकारक, देश को दरिद्र, निकम्मा और चरित्रहीन बनाने वाला समझते हों, वही अपने प्रयत्न से सुरापान की हानियों को लोगों के कान तक पहुंचाएं और उसकी रोक के लिए अपना नैतिक प्रभाव काम में लावें.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 10 मई 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.
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गणेश शंकर विद्यार्थी जी |
इस महायुद्ध के साथ योरप में एक महासंग्राम ऐसा हो रहा है, जिसमें रक्तपात नहीं होता, पर जिसकी जीत योरप वालों को इतना अधिक देगी, जितना कि वे और किसी प्रकार कदाचित ही पा सकते. यह युद्ध है उनका सुरादेवी के साथ. एक समय था कि उसे त्यागना तो दूर, हजार समझाने पर भी योरप वाले शराब की बुराइयाँ तक न समझते, परन्तु आज बड़े-बड़े शराबियों के हाथ के प्याले नीचे गिर रहे और गिराए जा रहे हैं.
दो-तीन वर्ष हुए जर्मनी के कैसर ने भाषण देते हुए कहा था, कि आगामी युद्ध में विजय लक्ष्मी उसी देश के हाथ रहेगी, जो सुरादेवी का बायकाट सबसे अधिक करेगा. कैसर के शब्दों की सच्चाई को उसके साथियों ने अच्छी प्रकार नहीं समझा है, जितना कि उसके शत्रुओं ने.
रूस अपनी उस हार को नहीं भूला है, जो उसने जापान के हाथों खाई. उस हार के कारणों में एक कारण रुसी सिपाहियों की बदमस्ती भी थी, जो बोद्का की बोतलें उनमें उत्पन्न करती थीं. बहुत खोकर रूस ने इस छोटे से मंत्र को सीखा, और आज हम देखते हैं कि लगभग डेढ़ अरब की वार्षिक आय पर लात मारकर रूस ने अपने यहाँ से शराब को देश निकला दे दिया.
सुरापान के वहिष्कार ने रूसियों को बहुत लाभ पहुँचाया और इस लाभ को देखकर फ़्रांस और इंग्लैण्ड ने भी इस मैदान में आगे कदम बढ़ाया है. फ़्रांस के होटलों में शराब की बोतलों का प्रवेश बंद हो गया और इंग्लैण्ड में सम्राट जार्ज के आगे बढ़ने पर सर्व-साधारण में शराब के विरुद्ध उत्तेजना फ़ैल गई है. और अब वहां शराब पर टैक्स बढ़ाने की योजना बन रही है.
शराब की रोकथाम में फ़्रांस और इंग्लैण्ड को उतनी सफलता नहीं मिली, जितनी रूस में. इसका यही कारण हो सकता है कि रूस में प्रजा के अधिकार उतने नहीं, जितने इंग्लैण्ड और फ़्रांस में. और इसीलिए वहां राजा के एक इशारे से वह काम हो गया जो इन देशों में केवल प्रजा की इच्छा बिना हो ही नहीं सकता.
वह काम स्थाई नहीं होता, जिसके लाभ और हानि के विषय में भली प्रकार सोच-समझ नहीं लिया जाता. योरप के जिन देशों ने सुरापान का त्याग किया है, उन्होंने ऐसा उसकी हानियों को अच्छी तरह समझ और अनुभव करके किया है.
राना संग्राम सिंह के मुकाबले में अपनी सेना को हताश होती हुई देखकर बाबर को कुरान की शिक्षा याद आई थी. उसने पाक-परवर-दिगार से प्रार्थना करते हुए प्रायश्चित के रूप में अपने सब शराब के पत्र तुड़वा दिए थे और प्रतिज्ञा की थी कि अब शराब कभी नहीं पीऊँगा. बाद में उसने शराब पी या नहीं, पर उसका यह काम क्षणिक जोश के आधार पर हुआ था. इसका प्रभाव उसके साथियों पर बहुत ही कम पड़ा.
क्योंकि इतिहास हमसे कहता है कि विपत्ति में पड़े हुए बाबर के बेटे हुमायूँ ने फारस में अपने बहुत से दिन शराब के सहारे काटे थे. पर, बाबर और उसके साथियों की बात सम्राट जार्ज और उनके साथियों पर लागू नहीं है, क्योंकि इन्होने जो कुछ किया है, वह केवल क्षणिक जोश के प्रभाव से नहीं किया किन्तु उसकी भलाई और बुराई को समझकर किया. उन्होंने समझ लिया कि सुरा का गुणगान धोखे की टट्टी है, सुरा से लाभ नहीं, हानि है. हानि अन्न की, और धन की, हानि शरीर की और पुरुषार्थ की.
शराब खाद्य पदार्थो को सड़ा कर बनाई जाती है. इस सड़ी चीज के बनाने में प्रत्येक वर्ष इंग्लैण्ड चार करोड़ मन अन्न, शकर आदि नष्ट करता है. ऐसे समय में जब कि अन्न के लिए इंग्लैण्ड दूसरों का मुंह ताक रहा है, अन्न का यह नाश कैसी मुर्खता का काम होता. इंग्लैण्ड हर साल सुरा देवी को अपने दो अरब 40 करोड़ रुपये की भेंट देता है.
और इस खर्च का शरीर पर क्या फल होता है, वह स्वर्गीय लार्ड राबर्ट्स, फील्ड मार्शल वोल्सले और इंग्लैण्ड के पांच नामी डाक्टरों के इन शब्दों में प्रकट होता है-'सुरापान से सिपाही की संकेतों को देखने की शक्ति कम हो जाती है, उसकी तत्परता जाती रहती है, वह ठीक निशाना नहीं लगा सकता, वह जल्द थक जाता है, उसकी सहनशीलता लोप हो जाती है और पीड़ाएँ उसे अधिक कष्ट देने लगती हैं.'
योरप के शीत देशों ने सुरा की भयंकरता को भली-भांति समझ लिया है, पर गरम देश भारत इस स्पष्ट बात बात को समझने को तैयार नहीं. वहां अधिकारीगण लोगों की इस लत को छुड़ाने की सोच रहे हैं, और काम कर रहे हैं, परन्तु भारत में अधिकारीयों को इन बातों की परवाह नहीं. और वहां भी शराब की दुकानें खुल रही हैं, जहाँ पहले नहीं थी.
1901 में भारत में लगभग छः करोड़ की शराब खर्च हुई थी. चक्र को आगे ही बढ़ना चाहिए क्योंकि इसी उन्नति है. इसी हिसाब से 1910-11 में शराब का खर्च 10.5 करोड़ हो गया. अकेले इंग्लैण्ड से हर साल 60 लाख गैलन शराब आती है. अन्य देशों से आने वाली शराब का हिसाब नहीं, और उस अन्न के नाश का भी कोई हिसाब नहीं, जो देश के भूखे बच्चों के पेट से निकाल कर इस विष के लिए इस्तेमाल किया जाता है.
यहाँ के अधिकारियो से यह आशा करना कि वह भी इंग्लैण्ड और फ़्रांस के अधिकारियों की भांति आगे बढ़ने की आवश्यकता समझें, व्यर्थ है, क्योंकि हमारे अधिकारियों के मन में बात तभी आती है, जब वह उन्हीं के मन में होती है.
हाँ, देश के जिन लोगों के हृदय में इस देश नाश को देखकर आह उठती हो, जो देश के स्वास्थ्य और जलवायु, और उसकी अवस्था को देखते हुए सुरापान को हानिकारक, देश को दरिद्र, निकम्मा और चरित्रहीन बनाने वाला समझते हों, वही अपने प्रयत्न से सुरापान की हानियों को लोगों के कान तक पहुंचाएं और उसकी रोक के लिए अपना नैतिक प्रभाव काम में लावें.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 10 मई 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.
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