गणेश शंकर विद्यार्थी लेख 72 : रणक्षेत्र में इटली

गणेश शंकर विद्यार्थी जी 
अंत में इटली ने लड़ाई के मैदान में आ जाना ही उचित समझा. पिछले सप्ताह तक वह सोच विचार में था. किधर झुके और किधर नहीं, यही प्रश्न उसकी क्रियाशीलता में रोड़ा अटकाए हुए था. जर्मनी, आस्ट्रिया और इटली, तीनों साथी कहे जाते थे.
पर, इटली इनसे फटा-फटा ही रहता था. कम से कम उसका मन तो अवश्य ही फटा था. ट्रिपली के हजम करते समय जर्मनी ने इटली का साथ नहीं दिया और आस्ट्रिया तो उसका पुराना शत्रु ही है. इनसे बिल्कुल ही पल्ला झाड़कर अलग हो जाने के लिए ठौर भी नहीं था, क्योंकि बंधन की जंजीरें मजबूत थीं.
जर्मनी ने अपने व्यापारिक जाल में इटली की उन्नति को जकड़ रखा था और आस्ट्रिया के मुकाबले में ऐसी निर्बल और बोदी वस्तु न थी. इस महायुद्ध के छिड़ते समय इटली को अवसर मिला. उसने जर्मनी और आस्ट्रिया का साथ देने से इनकार कर दिया. करण यह पेश किया गया कि आपस के इकरारनामे के अनुसार इटली, जर्मनी और आस्ट्रिया की सहायता करने के लिए उसी समय कर्तव्यबद्ध था, जब इन पर कोई बाहरी शक्ति आक्रमण करती.
परन्तु, इस समय तो आस्ट्रिया सर्विया के ऊपर आक्रमण कर रहा है, इसलिए इटली, आस्ट्रिया और जर्मनी का हाथ बंटाने के लिए कर्तव्यबद्ध नहीं है. बात माकूल थी. आस्ट्रिया और जर्मनी भी इसमें कुछ मीन मेख न निकाल सके. परन्तु वह यहीं तक न रह गई. इटली ने अपनी फ़ौज तैयार करना आरम्भ किया.उधर लड़ाने वाले राष्ट्रों ने इटली में अपने-अपने डोरे डालने आरम्भ किये.
इटली को लड़ाई में सम्मिलित होने के लाभ दिखने लगे और चुप बैठे रहने के लाभ भी उसे मोहित करने लगे. वह फेर में पड़ गया कि वह क्या करे और क्या न करे? इटली के निवासी लड़ाई के पक्ष में थे. समय-समय पर वे उधम मचाते, लड़ाई की पिपासा प्रकट करते, और आस्ट्रिया, जर्मनी को कोसते, और मित्र राष्ट्रों की जय-जय कार मनाकर उनसे सहानुभूति प्रकट करते.
कहा जा सकता है कि इटली के अधिकांश निवासियों में लड़ाई के लिए ऐसा ही जोश था. इस जोश का एक बड़ा भारी कारण है. पराधीन इटली जब स्वाधीन इटली बना, तो उसका एक अंग आस्ट्रिया के पैरों टेल ही रह गया. इटली वाले अपने उस अंग से प्रेम नहीं हटा सके.
रक्त जोश और उससे बढ़कर स्वाधीनता की गर्मी उनके मन को कटे हुए अंग के समेट लेने के लिए व्यथित किया करती है. और इसी भाव की प्रेरणा से उनका मन आस्ट्रिया की ओर से फिरा. नीचे से लेकर ऊँचे, सभी इटली वालों के ह्रदय में इस भाव का जादू काम करता है. इटली का महामंत्री सिगनर भी लड़ाई के पक्ष में था. लड़ाई की रोकथाम के लिए भी एक दल था.
वह आस्ट्रिया का प्रेमी नहीं था और न उसे जर्मनी ही का हित स्वीकार था. उसकी दृष्टि भी अपनी कार्य सिद्धि की ओर थी, पर वह इसके लिए रक्तपात की आवश्यकता नहीं समझता था. उसका ख्याल था कि आस्ट्रिया मजबूर किये जाने पर इटली का कटा हुआ अंग बिना लड़ाई के ही दे देगा.
आस्ट्रिया और इटली के बीच इसी विषय पर लिखा-पढ़ी भी हुई. जर्मनी भी बीच में पड़ा. वह इस पक्ष में था कि इटली को डे दिलाकर चुप ही रखा जाए. जो भूमि आस्ट्रिया इटली को देता, उसके बदले में जर्मनी उसे कुछ भूमि देने को तैयार था. आस्ट्रिया इस दबसट में पड़कर कुछ राजी हो गया था. उसने इटली को कुछ देना स्वीकार कर लिया था, पर उतना नहीं जितना कि इटली चाहता था.
बस, यहीं से सब लिखा-पढ़ी का अंत हुआ और तलवारों की म्यानों पर हाथ पड़ गया. इटली के लड़ाई चाहने और न चाहने वाले दल यहाँ एक हो गए. और आस्ट्रिया को युद्ध की चुनौती दे दी गई. आस्ट्रिया के साथ जर्मनी ने भी इस चुनौती को स्वीकार किया. और अब इस महायुद्ध में एक ओर इंग्लैण्ड, फ़्रांस, रूस, बेल्जियम, सर्विया, और इटली हैं और दूसरी ओर जर्मनी, आस्ट्रिया और टर्की.
अंतरराष्ट्रीय राजनीति का एक मुख्य गुण है-नीचे से नीचे बात की जाती है. पर, उसका भी हेतु न्याय और सदाचार के आधार पर प्रकट किया जाता है. इटली से आस्ट्रिया ने लड़ाई ठान दी, पर क्यों ? इटली को पागल कुत्ते ने तो काटा ही न था, और उसके इस काम का कोई न्याययुक्त कारण भी होना चाहिए और वह है. आस्ट्रिया ने सर्विया पर आक्रमण किया, पर इटली से बिना पूछे किया. उसे इस विषय में इटली से सलाह लेनी चाहिए थी. क्योंकि जर्मनी, आस्ट्रिया और इटली में जो इकरारनामा हुआ था, उसके अनुसार आस्ट्रिया बालकन राज्यों में से किसी में हस्तक्षेप करने से पहले सलाह लेने के लिए बाध्य था.
इटली के लड़ाई में आ जाने से इंग्लैंड. फ़्रांस और रूस का पल्ला जबरदस्त पड़ जाएगा. यद्यपि अभी तक जर्मनी फ़्रांस में घुसा हुआ है, बेल्जियम को हडपे हुए है, पोलैंड आदि पर पैर जमाये है, पर अब उसे एक नए शत्रु की ताजा फ़ौज के मुकाबले में जो शक्तियां खर्च करनी पड़ेंगी, उससे उसके पग के पीछे हटने की पूरी संभावना है.
जर्मनी और आस्ट्रिया, दोनों का सामना करते रहने में रूस को अपना बहुत जोर लगाना पड़ा. पर, अब वह हल्का हो जाएगा, क्योंकि आस्ट्रिया को इटली का भी सामना करना पड़ेगा.
इटली से मित्र राष्ट्रों को फ़ौज की सहायता मिल सकेगी. वैसे युद्ध अधिक काल तक चलता, पर अब इटली के भी मैदान में आ जाने से लड़ाई जल्दी समाप्त होगी. साथ ही इटली के आगे बढ़ने से रोमानिया और ग्रीस के भी उससे मिल जाने की संभावना है. आस्ट्रिया का भविष्य बड़ा ही अंधकारमय दीख पड़ता है. लड़ाई के पश्चात शायद उसके खंड हो जाएँ.
अब जो राष्ट्र लड़ाई में शामिल होंगे, वे बस निरा अपने मतलब से होंगे. इटली की आस्ट्रिया के एक भाग, मेडीट्रेनियन समुद्र, और टर्की के एशियाई भाग पर दृष्टि है. इसी प्रकार पीछे से लड़ाई में आने वाले राष्ट्र की किसी न्याय और अन्याय के विचार से नहीं, परन्तु लूट-खसोट और छीना झपटी के विचार से ही युद्ध क्षेत्र में आएंगे.
नोट-गणेश शंकर विद्यार्थी जी का यह लेख 31 मई 1915 को प्रताप में प्रकाशित हुआ था.


Comments

Popular posts from this blog

पढ़ाई बीच में छोड़ दी और कर दिया कमाल, देश के 30 नौजवान फोर्ब्स की सूची में

युवाओं के लिए प्रेरणा स्रोत हो सकती है अगम की कहानी

खतरे में ढेंका, चकिया, जांता, ओखरी